जब गहराई में डूब कर देखा तो खुद को किसी कोने में हतोत्साहित पाया क्योंकि शब्द बाण राष्ट्रीय हित को बस कुरेद रहे हैं. हाँ! यह सच है जिसके मुख पर देखा देशहित की बात और विकास की बात. कोई कह रहा है कि विकास ऐसे होगा तो कोई कहा कि वैसे होगा! फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्सएप पर बस देश को बदलने की बङी - बङी डायलॉग. ऐसा लगता है कि भारत एक मंच बन गया है और सभी अपना - अपना प्रदर्शन करने में लगे हैं. सच तो यह है कि कोई भी व्यक्ति देश बदलने के लिए बहुत कम जबकि खुद को विचारक और राष्ट्रीय समर्थक साबित करने का जोर लगा रहे हैं. हम बङे तो बङे का नाटक जोरों से चल रहा है. यह नाटक नहीं तो और क्या है, हम खुद कचरा फेंकने के लिए पङोसी के लाइट बंद होने का इंतजार करते हैं, फूल - माला नदियों में बहा रहे हैं, एक कदम पैदल चलने में असमर्थ हैं, सार्वजनिक क्षेत्रों को क्षतिग्रस्त करने में सक्षम हैं, अपने काम को जल्दी कराने के लिए जबरन घूस देने में माहिर हैं, गुटखा - तंबाकू खा कर कैंसर बचाव में उतरे हैं और इतना ही नहीं अनुशासनहीनता के दम पर लोकतंत्र बचाने की पहल करते हैं. क्या - क्या गिने और भी बहुत कमजोरियों ने हमारे अंदर के मानव को जकङा है. बिगङे तो हम हैं और देश को बदलने की बात कर रहे हैं. जबकि हमारा देश तो आज भी हिमालय सिपाही, गंगा के पानी , खेतों और लोकतंत्र के साथ गौरवान्वित कर रहा है. बदलो खुद को/ताकि देश बढ़े/गौरव तो हमको है/बदलो खुद को/ताकि हम विश्वगुरू बने.