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बहू मिल गई

9 मार्च 2022

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काफी दिनों से एक ही स्थान पर रहते-रहते मन में कुछ घुटन सी महसूस होने लगी थी। वैसे तो मैं और मेरा परिवार देश के कई सारे तीर्थस्थलों का भ्रमण कर चुके हैं लेकिन महाप्रभु जगन्नाथ के दर्शनों के लिए मन सदा ही लालायित रहता था दरअसल जब भी योजना बनी कोई न कोई अड़चन बीच में आ गई और प्रोग्राम धाराशाई हो गया। जैसा कि कहते हैं न कि जब तक माता बैष्णदेवी का बुलावा नहीं आता तब तक कोई लाख कोशिशों के बाद भी वहां उनके दर्शनों के लिए नहीं जा पाता, कुछ इसी तरह की मान्यता महाप्रभु जगन्नाथ जी के साथ भी हैं।

खैर जो भी हो, तकरीबन दस साल के बाद हाल ही में मुझे महाप्रभु का बुलावा आया। कहने का तात्पर्य- इस बार आनन-फानन में फटाफट प्रोग्राम बना और कोविड पीरीयड होते हुए भी पुरी जाने का सौभाग्य प्राप्त हो गया। मैं, मेरी पत्नी, बड़ा बेटा आदित्य और उसका एक दोस्त प्रबीर पुरी के लिए घर से निकल पड़े। चुंकि मैं एक अवसर प्राप्त रेलवे कर्मचारी था अतः दुरंतो एक्सप्रेस में सप्तनिक एस-3 में आरक्षण मिला वही मेरे बेटे आदित्य और उसके दोस्त प्रबीर को दूसरी बोगी यानि कि एस-4 में आरक्षण मिला। खैर जो भी हो, हम बड़े आराम से पुरी पहुंच गए।

शनिवार का दिन था। होटल पहुंचते ही पता चला कि अगले दिन यानी रविवार को किसी कारण वश मंदिर बंद रहने वाला था अतः हमने शनिवार को ही पुजा देना उचित समझा। होटल मैनेजर की कृपा से पुरी मंदिर का एक पांडा भी हमें वही मिल गया। हम जल्दी से नहा धोकर मंदिर जाने के लिए तैयार हो गए। 

पुरी के पांडा के विषय में मैं पहले से ही बहुत कुछ सुन रखा था कि वें नये लोगों को ठगने में कोई कसर नही छोड़ते अतः मैंने सावधानी बरतते हुए कार में ही उससे दक्षिणा के बारे में पहले ही बात कर लीं ताकि बाद में चलकर कोई झिकझिक न हो। बातों ही बातों उसने मुझे बताया कि पुरी में महाप्रभु जगन्नाथ खाने के लिए बैठे हैं, अतः यहां आकर लोग प्रभु को खाने के लिए लाखों रूपयों का दान या चढ़ावा चढ़ाते हैं, जैसे कि रामेश्वर में प्रभु स्नान करने की मुद्रा में रहते हैं अतः वहां जाकर लोग डूबकी लगातें है। उत्तराखंड के किसी मंदिर में प्रभु सोने की मुद्रा में रहते हैं अतः वहां जाकर लोग पलंग बिछौना इत्यादि का दान करते हैं बगैरह-बगैरह।

खैर जो भी हो, मैंने भी अपने सामर्थ्य अनुसार प्रभु के चरणों में उनके खाने के लिए चढ़ावा चढ़ाया जो कि 1551/- रूपये का था। पांडा ने बताया कि हमें जो प्रसाद मिलेगा वह स्वयं अपने हाथों से ले जाकर होटल में पहुंचा देगा। हमारे पास उसकी बातों पर विश्वास करने के अलावा और कोई चारा भी नहीं था। पूजा अर्चना के बाद हम वापस होटल पहुंच कर सारे दिवस उसकी बाट जोहते रहें पर वह नहीं आया। फोन करने पर उसने बताया कि वह शाम पांच बजे तक आ जायेगा पर पांच की जगह सात बज गए पर वह नहीं आया। मैंने फिर उसे फोन लगाया तो वह बोला कि वह थोड़ा व्यस्त हैं रात के नौ बजे तक जरूर आ जायेगा। हम तकते रहे गए पर वह नहीं आया और फिर उसका फोन भी स्वीच ऑफ हो गया।

बस यही से शुरू हुई मेरी फजीहत..... " बहुत चालाक बनते हैं ना..... लीजिए 1551/- का चुना लगा गया..।"

यही अल्फाज़ थें मेरी पत्नी का।

मैं बेचारा क्या करता, मेरे मन भी बिचलित हो गया। लेकिन दिल में एक तसल्ली थी कि मैंने तो प्रभु के चरणों में अपनी सेवा अर्पित की है और यदि पांडा कुछ गड़बड़ी करता है तो उसका फल वहीं भोगेगा। मुझे पैसे जाने की चिंता नहीं थी सिर्फ इस बात का दुःख था कि इतने आस्था विश्वास के साथ पुजन करने के बाद भी प्रभु के महा प्रसाद से वंचित रह गया था। 

खैर जो भी हुआ उसे दिल से निकाल कर बाहर फेंक दिया। दूसरे दिन पुरी भ्रमण का कार्यक्रम था। हम सुबह-सुबह नहा-धोकर तैयार हो गए और बस डिपो पहुंच गए। पहुंचते ही हल्का फुल्का नाश्ता कर लिए।

और कल वाली उस बात को लगभग भुला ही दिया। सारा दिन पुरी और भुवनेश्वर के दार्शनिक स्थलों का भ्रमण करते रहें, तकरीबन रात साढ़े आठ बजे तक जब हम वापस होटल पहुंचे तो मैनेजर ने हमें बुला कर हमारा प्रसाद दिया। वह प्रसाद पाकर आप विश्वास नहीं करेंगे मैं और मेरा परिवार तो मानो निहाल ही हो गए। प्रभु के प्रति हमारी आस्था में एकाएक लाखों टन की बढ़ोतरी हो गई, हम वहीं खड़े-खड़े प्रसाद को लगभग बीसों बार माथे से लगाया और महाप्रभु को अंतरात्मा से धन्यवाद जताया।

सबसे पहले हम कमरे में जाकर फ्रेश होकर प्रसाद ग्रहण किए फिर थोड़ा रेस्ट लेने के बाद खाना खाने के रेस्टोरेंट चलें गए। हमारे पुरी आने का मकसद अब पुरी तरह से सफल हो गया था।

दूसरी सुबह हम फिर पुरी के अन्य दार्शनिक स्थलों को देखने हेतु होटल से निकल पड़े। उस दिन हमारा मन और ज्यादा प्रफुल्लित था कारण महाप्रभु की असीम कृपा जो हम पर हुई थी। उनका प्रसाद जो मिल गया था।

चौथे दिन हमारे लौटने की पारी थी। ट्रेन में हमारा आरक्षण तो था पर हमें दुरंतो एक्सप्रेस में इस बार मिडिल और अपर बर्थ मिला था जिससे पत्नी जी थोड़ी नाखुश थीं क्योंकि मिडिल बर्थ पर वो थोड़ी असहजता महसूस करती थी। मैंने उनकी मनःस्थिति को भाप लिया और उनसे कहा कि परेशान होने की कोई जरूरत नही, आगे महाप्रभु की इच्छा से सब ठीक हो जाएगा। बस एक रात की तो बात है। किसी तरह कट ही जायेगी।

स्टेशन पहुंच कर हमने जैसे ही अपनी सीट पर कब्जा जमाया, हमारे सामने वाली सीट पर एक सज्जन जो सपरिवार हमारी तरह ही कलकत्ता लौट रहे थे हमें देख कर बोलें आप लोग भी कलकत्ता लौट रहे हैं शायद...?

हमने भी बड़े सौहार्द से बताया कि आप बिल्कुल दुरुस्त फ़रमा रहें हैं। फिर बातों का सिलसिला आगे बढ़ा तो उन्होंने हमसे एक गुजारिश की। दरअसल उनकी पत्नी छोटी बेटी सुनयना, मंझली बेटी-दामाद उनके साथ थे पर उनकी बड़ी बेटी और बड़े दामाद जो इसी ट्रेन से सफर कर रहे थे पर उनकी सीटें अलग कम्पार्टमेन्ट में आरक्षित थीं अतः वे चाहते थे कि यह सफर वो एक साथ करें क्योंकि उनके साथ उनका पांच वर्षीय पोता उनसे अलग हो गया था। जाहिर था, पोता अपने माता-पिता के साथ ही रहेगा और वो सज्जन अपने पोते को बहुत मिस कर रहें थे अतः वे हमसे हमारी सीटें आपस में एडजस्ट करने के लिए कहें। फिर मैंने जब उनकी सीट का स्टेट्स लिया तो पता चला कि वे सीटें साईड लोवर और साईड अपर थीं, हमें तो मानो हमारी मनमांगी मुराद मिल रही थी अतः हम तुरंत तैयार हो गए और हम एस 4 की वजाय एस 6 में आ गए, जहां मेरे बेटे आदित्य और उसके दोस्त प्रबीर की भी सीटें थीं। यह सब महाप्रभु की इच्छा से ही शाय़द संभव हो रहीं थीं। हम एक बार फिर महाप्रभु का मन ही मन धन्यवाद ज्ञापन किए और यात्रा शुरू कर दी।

उसके बाद हम लोग अपनी बातों में मशगूल हो गए कि तभी आई आर सी टी सी द्वारा खाना वितरण होने लगा। उन दिनों चुंकि कोविड पीरीयड होने के कारण रेलवे पास पर खाना मिलना बंद हो गया था पर टिकट होल्डरों को यह फैसलिटी उपलब्ध थीं अतः हमें भी दो पैकेट खाना मिल गया क्योंकि हम इस वक्त उस सज्जन की सीट पर जो बैठें थें। हमने भी चुपचाप खाना ले लिया। फिर मैंने अपने बेटे आदित्य को बुलाया और उनका खाना उन तक पहुंचाने को कहा।

आदित्य और उसका दोस्त खाना लेकर जब उनके पास पहुंचे तो वें बड़े ही बड़प्पन से उन्हें खाने का न्योता दिए। आदित्य ने जब उन्हें बताया कि हम लोगों का खाना रेस्टोरेंट से ही पैक करवा लिया गया है तो वें निश्चिंत हो गए। हमारा छोटा सा यह सौहार्द पूर्ण व्यवहार उन्हें इतना पसंद आया कि खाना खाने के तुरंत बाद मुझसे मिलने मेरे कम्पार्टमेन्ट में आ गए और घंटों हमसे बातें की और मेलजोल बढ़ा तो वे अपने घर आने का सपरिवार न्योता भी दे दिए।

चुंकि फोन नंबर का आदान-प्रदान उसी दिन हो चुका था अतः हमारे घर पहुंचने के दो दिनों के बाद ही उनका फोन आया और उन्होंने फोन पर हमारा वादा याद दिलाया।

हमने वादा किया था अतः निभाना भी जरूरी था। हम सपरिवार तीसरे दिन उनके घर बालीगंज पहुंचे। जहां उन्होंने हमारी काफ़ी आव-भगत की और हमें बहुत सारे इज्ज़त से नवाजा। फिर बातों ही बातों में यह भी बताया कि उन्होंने उनकी छोटी बेटी सुनयना के लिए मेरे बेटे आदित्य को पसंद भी कर लिया है। वैसे भी हम अपने बेटे के लिए एक अच्छी लड़की और एक अच्छे खानदान की तलाश कर ही रहे थें। अब आगे महाप्रभु जगन्नाथ जी इच्छा होगी तो शायद यह रिश्ता हो भी जायेगी।

कुल मिलाकर मैं सिर्फ इतना ही कहूंगा कि महाप्रभु ने मुझे उनकी दर्शनों के एवज में अपनी कृपा से मालामाल कर दिया है।

जय जगन्नाथ........!!!!!!!!!!!!

आशा है आपको यह कथा पसंद आई होगी। जय जगन्नाथ.....!!!!!

इंद्रजीत केवट

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आशा है यह रचना आपको पसंद आएगी, आगे आपकी सेवा में हमेशा समर्पित रहूंगा और अच्छी से अच्छी कहानियां लेकर आऊंगा, कृप्या प्रोत्साहित करें......!!!

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