एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए।
हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले ज्यादातर यही जानवर भाग निकलता है। उसके उपरांत थोड़ी देर तक कोई आहट नहीं मिली। प्रतीक्षा करते-करते मुझको लगा जैसे बहुत विलंब हो गया हो। लगान पर से उठ सका नहीं था; क्योंकि हँकैये अबी तक समीप नहीं आए थे।
हँकैये के समीप आते ही चोटी पर दो फायर हुए। एक के कुछ क्षण बाद दूसरा।
जब हँकैये आ गए, हम सब लोग शर्मा जी के पास पहुँचे। देखें तो एक सुअर उनकी बैठख में ढाई से तीन फीट के अंतर पर पड़ा है। उनसे मालूम हुआ कि भागते सुअर के पहली गोली पेट पर पड़ी थी। वह गोली के लगते ही सीधा शर्मा जी पर विद्युत गति से आया। दूसरी नाल तैयार थी ही; परंतु चूक सकती थी, चूकी नहीं, सुअर के खोपड़े पर पड़ी। गोली के वेग का धक्का उसपर इतना प्रचंड पड़ा कि उसकी गति रुक ही नहीं गई बल्कि वह चित होकर गिरा था।
सुअर में कितनी ताकत होती है, इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि पाँव में कठोर चोट लग जाने के बाद भी कितना उछल सकता है।
एक दिन झाँसी के निकट ही पाली-पहाड़ी की हँकाई की गई। मालूम था कि सुअर निकलेगा। संदेह था, शायद तेंदुआ भी निकले। तेंदुआ तो नहीं निकला, सुअर निकले।
जिस शिकारी के पास से एक सुअर निकला, उसको शिकार का अनुभव कम था। गोली चलाई। सुअर के पैर में सख्त चोट लगी; परंतु वह काफी उछला और आक्रमण करने का विकट प्रयास किया। असमर्थ हो चुका था, इसलिए वह कुछ नहीं कर पाया।
सुअर बिना घायल हुए बी घुड़की-धमकी देने की प्रवृत्ति रखता है। शिकार के बिलकुल प्रारंभिक जीवन में एक बार मैं एक छोटे से पेड़ की आड़ लेकर बैठ गया। प्रातःकाल के थोड़ी देर बाद के बड़ी खोंसवाला सुअर सामने आया। राइफल मैं एक मित्र की माँग लाया था। बड़े बोर की राइफल थी। पहले कभी न चलाई थी; परंतु चला जा सकता था। सुअर ने मुझे देख लिया, खड़ा हो गया। एक घुड़की उसने मुझको दी। राइफल मैं सुधार हुए था; परंतु गोली चलाने की साध मन में न उठ सकी। सुअर चला गया।
सुअर चालाक भी काफी होता है। सुअर की 'सूध' मशहूर है; परंतु कुछ लोगों के इस भ्रम के लिए कोई आधार नहीं कि वह मुड़ता नहीं है। यह सच है कि वह कभी-कभी तीर की तरह सीधा दौड़ता है; परंतु यह सच नहीं है कि उसको मुड़ पड़ने में कोई अड़चन होती है। यही बात उसकी सिधाई के बारे में कहा जा सकता है। वह सीधा-वीधा नहीं होता।
सोते हुए सुअर के पास किसी के यकायक पहुँच जाने पर वह चौंक पड़ता है; परंतु ऐसा नहीं कि वह सदा भाग खड़ा होता है। कभी-कभी वह चुपकी भी साध लेता है। सोचता होगा, बला टल जाए तो आरमा से सो जाऊँ।
एक बार मैंने एक झाड़ी में कुछ सुअर पड़े हुए देखे। एक बड़े सुअर पर ताककर गोली चलाई; परंतु निशाना खाली गया। सुअर एक किनारे से भाग गए। मैं झाड़ी में घुसा। अनुमान किया कि झाड़ी खाली होगी। देखा तो बिलकुल पैरों के पास से एक सुअर निकल भागा। खैर हुई कि उसने मेरी टाँगों को अपने सपाटे में नहीं भरा। बंदूक चलाने पर मैं तुरंत झाड़ी में घुस पड़ा था। इस सुअर को निकल भागने की सुविधा नहीं मिली, इसलिए छिपे रहने की चालाकी खेल गया।
सुअर को सूँघने की शक्ति प्रकृति ने बहुत मात्रा में दी है। जब वह सचेत होकर अपनी नाक का प्रयोग करता है तब शायद सूँगने की शक्ति में साँभर ही उसकी बराबरी कर सकता है। विंध्यखंड में लोग उसे 'सगुनिया जानवर' कहते हैं अर्थात् वह शकुन का विचार करके चलता है, इसलिए सहज ही शिकारी के हाथ नहीं पड़ता। वायु यदि सुअर की नाक के अनुकूल हो तो वह बड़ी दूर से सूँघ लेता है और गली काटकर निकल जाता है। उसकी नाक ही उसके शकुन लेने की शक्ति है। सुअर के गली से जरा ऊँचाई पर शिकारी बैठा हो तो सुअर शकुन-वकुन कुछ नहीं ले पाता। वायु ऊपर से निकल जाती है और सुअर को अपनी नाक से कोई सहायता नहीं मिल पाती।
परंतु जब वह झरबेरी के बेर खाने पर चिपट जाता है। तब उसकी एकाग्रता सूँघने और सुनने की शक्तियों को मानो कुंठित कर देती है। बेर के दिनों के शिकार को 'बिरोरी'कहते हैं। सुअर बेरों को कड़कड़ाकर खाता है। रात के सुनसान में एक फर्लांग तक से सुनाई पड़ता जाता है। जब बिरोरी का शिकार खेलनेवाला शिकारी धीरे-धीरे एक-एक डग को नापता हुआ बेर कड़कड़ाने वाले सुअर के पास जाता है, तब अत्यधिक सावधानी के साथ काम लेना पड़ता है। सुअर की कड़कड़ाहट के शब्द पर ही शिकारी को अपने हर एक कदम को सँभालना पड़ता है। गोली चलान का अवसर तब मिलता है जब शिकारी सुअर से आठ-दस कदम के फासले पर रह जाता है। परंतु उसके शब्द पर ही बंदूक नहीं चलाई जा सकती। बंदूक की गोली और सुअर के बीच में झाड़-झंखाड़ की टहनियाँ होती हैं। या तो गोली इन टहनियों से रिपटकर चली जाती है या सुअर 'हुर्र हुख'करके ऊपर आता है। भाग्य अच्छा हुआ तो भाग भी जाता है। परंतु यदि केवल घायल ही हुआ तो फिर शिकारी के प्राणों पर आ बनने की पूरी संभावना है। इसलिए शिकारी को एक ओट से दूसरी में जाने का और सुअर को पछियाने का काफी समय तक प्रयत्न करना पड़ता है। जहाँ सुअर एक झरबेरी से दूसरे की ओर आता हुआ शिकारी को दिखलाई पडा कि बस!
इसके संकट से शिकारी को जितनी सनसनी मिलती है उतनी शायद ही किसी और प्रकार से मिलती हो। न कोई मचान, न कोई आड़-ओट; अपनी अटल एकाग्रता तथा हाथ में सधी ही तैयार बंदूक और शिकारी प्रत्येक प्रकार की परिस्थिति के प्रस्तुत। यहाँ तक कि आक्रमण के लिए दपटते हुए सुअर को छलाँग मारकर कूद-फाँद जाने के लिए तैयार। जो यह न कर सके वह बिरोरी को शिकार न खेले। उसके लिए तो मचान या गड्ढा ही ठीक है।
मैंने बिरोरी का शिकार खेला है; परंतु अधिक नहीं।
कई बार सुअर के ठीक पास पहुँच गया; परंतु सुअर ने देख लिया और भाग गया। मैं बंदूक नहीं चला पाया।
एक बार ही सफल हुआ। सुअर पर छह या सात कदम के फासले पर गोली चलाई थी। राइफल की गोली थी, इसलिए सुअर तुरंत समाप्त हो गया। मुझको उजेले अँधेरे दोनों में राइफल पर बहुत भरोसा रहा है। अँधेरे में ही एक बार एक सुअर को राइफल से पचास या पचपन कदम की दूरी से मारा था।
एक बार पहाड़ की हँकाई कराई गई। कई मित्र साथ थे। उनमें से कुछ तो बहुत दूर-दूर और बड़े-बड़े शिकार खेल चुके थे। बड़े लोग, रुपये-पैसे, समय और गोली-बारूद की कोई कमी नहीं। चिड़ियों से लेकर अरने भैंसे, गैंडे, नाहर और हाथियों का शिकार तरह-तरह के बड़े जंगलों में खेल चुके थे। उस दिन की पहाड़ की हँकाई का शिकार मुझको उन्हीं मित्रों की कृपा से प्राप्त हुआ था। उन्होंने सबसे अच्छा स्थान मुझको बैठने को दिया। हँकाई शुरू हो गई।
एक बड़ा चीतल मेरे हाथ लगा। थोड़ी ही देर में एक करारा सुअर आया। उस पर मैंने 12 बोरे बंदूक की गोली चलाई। गोली पक्की (SOLID) थी। भागते हुए सुअर के पेट में लगी। उसने मुझको देखा नहीं, इसलिए घायल होकर भागा और जिधर मैं बैठा था, उसके पीछे के जंगल में चला गया।
इस हँकाई की समाप्ति पर जंगल के उस भाग की हँकाई करवाई गई, जो मेरी पीठ पर पड़ता था और जिसमें घायल सुअर चला गया था।
इस हँकाई की समाप्ति पर जंगल के उस भाग की हँकाई करवाई गई, जो मेरी पीठ पर पड़ता था और जिसमें घायल सुअर चला गया था।
हम लोगों ने आसन बदला। मैं एक मचान पर चढ़ गया; परंतु यह मचान लगान के पाँत में उलटी बैठती थी। मेरे मित्र मुझसे नीचे की तरफ आमने-सामने बैठते थे, ऐसे कि गोली चलती तो एक-दूसरे पर पड़ने की संभावना थी। मित्र ने मुझको सीटी द्वारा सचेत किया। मैं मचान से उतरकर लगान की पाँत में जा लगा।
परंतु, मचान पर से उतरने के पहले मैंने दुनाली खाली कर ली और राइफल की नाल में से कारतूस निकाल मैगजीन में पहुँचाकर ताला डाल दिया। जहाँ मैं खड़ा था वहां एक पेड़ की आड़ थी। पेड़ से राइफल टिका दी और दुनाली हाथ में ले ली। दुनाली खाली थी।
हँकाई में वह घायल सुअर निकला। मेरे मित्र के पास आया। उन्होंने उस पर राइफल चलाई। उनकी राइफल चलने पर सुअर जरा टेढ़ा भागा, तब उसका घाव मुझको दिखलाई पड़ा। मैं समझा, उनकी राइफल की गोली से घायल हुआ है। उस समय मुझको यह नहीं मालूम हुआ कि सुअर मेरा ही घायल किया हुआ है। सुअर जंगल में विलीन हो गया। थोड़े समय उपरांत मेरे सामने, जरा ऊपर की ओर हटकर, जहाँ से हँकाई आ रही थी, सुअर का एक झुंड आया। इसको 'दार' कहते हैं। सुअर जब निकट आ जाए, मैंने बंदूक को कंधे से जोड़कर निशाना साधा। घोड़े ने 'खट्ट' का शब्द किया। कारतूस नाल में था ही नहीं, सुअर का बिगड़ ही क्या सकता था! सुअर लौट गए।
मैंने इधर-उधर आँखें फेरीं किसी ने मेरी मूर्खता को देख तो नहीं लिया है। तुरंत दोनों नालों में कारतूस डाले और घोड़े चढ़ाकर तैयार हो गया। लौटे उनकी खरभर सुन ली और दो-एक को झाँक भी लिया। सुअरों ने मुझको देख लिया था, इसलिए वे वहीं के वहीं फिर लौट पड़े और बेतहाशा भागकर, हाँकेवालों में हकर निकल गए और विलीन हो गए। हाँकेवाले पास आने लगे; परंतु वे जरा दूर थे, मुझको दिखलाई नहीं पड़े। मैंने सोचा, घोड़ों को चढ़ाए रखना व्यर्थ है। घोडों को उतारने के लिए बंदूक हाथ में कर ली और उत्सुकतावश लौटे हुए सुअरों की दिशा में देखने लगा।
उँगलियाँ बाईं नाल की लिबलिबी को दबाने के लिए पहुँच गईं; परंतु अँगूठा पहुँचा दाईं नालवाले घोड़े पर। दाईं नालवाले घोड़े को साधने के लिए अँगूठे से दबाया, जिसमें वह यकायक गिरकर कील को ठोकर न दे; परंतु उँगलियाँ थीं बाईं नाल के घोड़े ककी लिबलिबी पर और अँगूठा उसपर था नहीं। धाँय से बाईं नाल चल गई। दाईं नाल का घोड़ा गिरा नहीं, क्योंकि उसकी लिबलिबी पर दाब नहीं था; पर घोड़े का नुकीला सिरा अँगूठे की जड़ में था। बाईं नाल के चलते ही जोर धक्का लगा। कंधे पर तो बंदूक थी नहीं, जो धक्के को झेलता है। दाईं नाल के घोड़े का सिरा अँगूठे की जड़ में धँस गया।
मैंने झटपट, सावधानी के साथ, दाईं नाल के घोड़े को साधकर बिठला लिया और बंदूक पेड़ से टिका दी। अँगूठे की जड़ से खून की धार बह निकली। रूमाल से पोंछ-पाँछकर मन में मनाने लगा, कोई हँकाईवाला या लगानवाला न आ जाय, नहीं तो मूर्खता अपने पूरे रूप में प्रकट हो जाएगी। घाव पर रूमाल बाँधने की हिम्मत पड़ नहीं रही थी। मूर्खता जो पकड़ी जाती। रूमाल का वह बंधन सारी कहानी कह डालता। मैंने खूब दबा-दबाकर रक्त निकाल दिया और पोंछ-पाँछ डाला।
जब हँकाईवाले आ गए और लगानवालों को अपने स्थान छोड़ने की आजादी मिली तो मैं उन मित्र के पास पहुँचा, जिन्होंने सुअर पर राइफल दागी थी।
अपने घायल हाथ की ओर से उनका ध्यान उचटाने के लिए कहा, 'सुअर घायल हो गया है, जरा उसका चिह्न देखिए।'
वे बोले, 'हाँ, घायल तो अवश्य हो गया है। पता लगाता हूँ।'
वे झुके-झुके घायल सुअर के चिह्न को देखने लगा। तब तक मैंने अपना घाव पूरी तरह सुखा लिया। मूर्खता ढक गई।
घायल सुअर का चिह्न लेते-लेते मित्र ने एक पत्थर के पास देखा तो राइफल की गोली के टुकड़े पड़े हुए हैं। मैं भी उनके पास पहुँच गया। मैंने बी वे टुकड़े देखे।
वे बोले, 'भाई, मेरी गोली तो पत्थर पड़ी है, सुअर पर नहीं पड़ी है। वह आपका घायल किया हुआ सुअर था।'
मैंने सोचा, मैं भी अपनी मूर्खता प्रकट कर दूँ। बंदूक चल पड़ने की सविस्तार कहानी सुनाकर कहा, 'नाल जरा ऊँची थी, नहीं तो गोली किसी हँकाईवाले पर पड़ती।'
वे हँसकर बोले, 'यार मेरे, चुप भी रहो। न किसी से मेरी कहना, न अपनी।'
हम दोनों ने अपनी झेंप पर परदा डाल लिया।
मेरे एक मित्र (अब इस दुनिया में नहीं हैं) शिकार में काफी रुचि रखते थे अर्थात् जितनी का उनके खाने से संबंध था। स्थूल इतने कि बिना हाँफ के दस कदम भी चलना एक आफत। एक दिन बड़ा दंभ किया। बोले, 'मैं चलती मोटर में से जानवर पर बंदूक चला देता हूँ।'
मैंने सिधाई के साथ पूछा, 'और वह जानवर को लग भी जाती है?'
उन्होंने जरा हेकड़ी के साथ उत्तर दिया, 'नहीं तो क्या कोरे पटाखे फोड़ता हूँ!'
मैंने उस समय बात नहीं बढ़ाई, परंतु उनकी परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया।
एक दिन अवसर मिल गया।
वे ताँगे पर बैठकर शिकार के लिए जाने को ही थे कि मैं अकस्मात् उनके घर पहुँच गया। उन्होंने मुझे साथ चलने के लिए कहा। मैं तुरंत राजी हो गया, चाहता ही था। बंदूक ले आया और साथ हो लिया।
कुछ ही मील जाने पर उनको हिरनों का एक झुंड मिल गया। गोली चलाने के लिए उन्होंने मुझसे प्रस्ताव किया। मैंने तो न चलाने का निश्चय ही कर लिया था। नाहीं कर दी।
'आप ही चलाइए। ताँगे से ही चलाइए। हिरन पास ही तो हैं।'
'अजी नहीं! ताँगा हिल रहा है। निशाना चूक जाएगा।'
'पर मोटर से तो कम हिल रहा है।'
'आप मजाक समझते हैं; चलाता, मगर घोड़ा भड़क जाएगा।'
'तब उतर जाइए। ओट लेकर चलाइए।'
पेड़ों की आड़ के आने पर ताँगा रोक लिया गया। वे किसी तरह ताँगे से उतरे।
धोती पहने हुए थे। ढूँकते-ढाँकते वे हिरनों की ओर बढ़े। दस-पंद्रह कदम भी न गए होंगे कि चौकन्ने हिरनों ने उनको देख लिया। हिरन भागे।
वे भी हिरनों के पीछे भागने का प्रयत्न करने लगे। उधर उन्होंने गोली चलाई, इधर उनकी धोती अधखुली हो गई। हिरनों के पास गोली की हवा तक न फटकी। वे धोती सँभालते और हँसते हुए ताँगे की ओर आए। मारे हँसी के मेरे पेट में बल पड़ रहे थे।
मैंने किसी तरह हँसी को रोककर उनसे कहा, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'
वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'यदि सुअर होता और जरा सा घायल हो जाता तो आप क्या करते?'
वे जबरदस्ती हँसी को दबाते हुए बोले, 'क्या करते! सुअर क्या कर लेता?'
मुझको फिर हँसी आ गई। मैंने कहा, 'क्या कर लेता, सो तो मैं ठीक-ठाक नहीं बतला सकता, परंतु इतना कह सकता हूँ कि आप धोती सँभालने की फुरसत न पाते।'
इन पर हम दोनों हँसते रहे; लेकिन उस दिन के बाद हम लोगों का साथ शिकार में न हुआ।
दो वकील मित्रों तो शिकार में मेरे साथ घूमने की लालसा हुई। मैं इनकार न कर सका। परंतु वकील मित्र कमजोर न थे। तेरह मील चलने के बाद मेरी साइकिल के चक्के में एक बेतुका छेद हो गया। तब दोनों गपशप करते हुए आठ मील पैदल गए। बेतवा किनारे 'घुसगवाँ' नाम का एक गाँव है। संध्या होने के पहले ही पहुँच गए। गाँववालों की सहायता से तुरंत बंदूकें लिए जंगल की ओर चल दिए।
तीन-चार सुअर मिले। मेरे मित्र की सीध में वे बैठ नहीं रहे थे, इसलिए मैंने ही बंदूक चला दी। एक गिर गया। रास्ते की रिस वकील मित्र ने मरे हुए सुअर पर निकाली। वे आमोदप्रिय भी थे, इसलिए भी उन्होंने एक दिल्लगी की।
मरे हुए सुअर पर उन्होंने धाड़ से गोली छोड़ी। चूकने की कोई बात ही न थी। गोली लगने पर हँसते हुए बोले, 'बस जी, मैंने इसको मारा है। मेरे शिकार पर तुमने बाद में बंदूक चला दी।'
मैंने कहा, 'बिलकुल सही, मुकदमों की सचाइयों से भी ज्यादा सच।'
फिर हम लोग बैलगाड़ी से उसी रात चिरगाँव रेलवे स्टेशन पर आए और सवेरे झाँसी पहुँचे। मित्र बहुत थक गए थे; परंतु उनकी वन-भ्रमण की कामना कम नहीं हुई। वे अनेक बार मेरे साथ जंगलों और पहाड़ों में घूमे हैं।
दूसरे साहब का अनुभव बिलकुल विपरीत रहा।
एक गाँव में अदालती काम से दूसरे वकील मित्र मेरे साथ गए। गरमियों के दिन थे। दस बजते-बजते गाँव पहुँचे। लू चलने लगी। बारह बजे तक हम लोग काम से निवृत्त हो गए। गाँव से मील-डेढ़ मील पर जंगल था। मैंने उनसे मटरगश्त के लिए प्रस्ताव किया। लू चल रही थी, इसलिए उनके उत्साह में कुछ ढिलाई आ गई थी; लेकिन बिलकुल बुझा न था। साथ चल दिए।
मील-डेढ़ मील चलने के बाद ही वकील मित्र काफी परेशान हो उठे। बोले, 'अभी तक तो कुछ दिखा नहीं। यों मारे-मारे फिरने से क्या फायदा?'
मैंने कहा, 'शिकार मिले या न मिले, पर चलने-फिरने के फायदे से तो तुम इनकार नहीं कर सकते। लौटकर जब चलोगे, बेभाव भूख लगेगी। रात को बेहिसाब सोओगे।'
जंगल छेलवे और हींस-मकोय का था। ऐसी जगह सुअरों के पड़े मिलने की आशा थी। इसलिए लगभग एक मील और भटके। मेरे मित्र को प्यास लग रही थी। ढुकाई के शिकार में भी दो कठिनाइयों का अनुभव कर रहा था। अपने को सँभालना और उन मित्र को दबे-छिपे ले चलना। इसलिए हम लोग लौट पड़े।
मित्र का मुँह सूख रहा था और उनसे चलते नहीं बन पा रहा था। गाँव पहुँचते ही मैंने देखा, उनके पैरों में बड़े-बड़े फफोले पड़ आए हैं। उनका कष्ट देखकर मुझको खेद हुआ और क्षोभ भी। एक प्रश्न मन में उठा क्यों नहीं स्कूलों और कॉलेजों में ही लड़कों को पक्का और कट्टर बना दिया जाता?
वकील मित्र ने कष्ट कम होने पर कहा, 'भाड़ में जाय तुम्हारा शिकार! आगे के लिए कसम खाई।'
किसी-किसी ग्रामीण में सुअर के प्रति इतनी हिंसा होती है कि वह सबकुछ कर डालने पर उतारू हो जाता है। तब इतना निडर हो जाता है कि जान पर खेल जाता है।
भरतपुरा गाँव के पास ही एक लोधी अपने खेतों के बीच की पड़ती पर घर बनाए हुए था। जब देखो तब सुअर कुछ-न-कुछ उत्पाद खेतों में करता रहता था। उसके पास हथियार कोई था नहीं। हिंसा ने उसको एक निश्चय दिया।
लोधी का शरीर बहुत तगड़ा था, परंतु उसके आँख एक ही थी; पर थी काफी तेज।
वह एक दिन संध्या के पहले ही सुअरों की राह पर एक ओट में जा बैठा। कुल्हाड़ी साथ में थी।
सुअर बहुत धीरे-धीरे आया। आड़ से लगभग सटा हुआ निकला। लोधी ने आव देखा न ताव, जैसे ही सुअर के पीछेवाला भाग उसकी पहुँच के पास हुआ कि उसने पिछले पैर अपने दोनों हाथों से पकड़ लिए और खड़ा हो गया।
सुअर लगा करने 'हुर्र हुख'। उसने बहुत प्रयत्न लौटकर चोट पहुँचाने का किया, बड़ा बल लोधी के फौलादी शिकंजे से निस्तार पाने के लिए लगाया; परंतु सब व्यर्थ।
लोधी अपनी लगन पर दृढ़तापूर्वक सवार था और सुअर के पैरों को इस प्रकार पकड़े था कि वह किसी तरह भी छुट्टी नहीं पा सका। कुल्हाड़ी करीब थी; परंतु लोधी उसका उपयोग नहीं कर पा रहा था।
गुल-गपाड़ा सुनकर आस-पास के किसान कुल्हाड़ियाँ और लाठियाँ लेकर दौड़े। तब सुअर से उसने छुटकारा पाया।
फिर तो सुअरों से उस लोधी का डर सदा के लिए छूट गया। उसने बड़े-बड़े सुअर लाठियों और कुल्हाड़ियों से मारे। कई बार घायल भी हुआ। सुअर के नाम से ही उसको इतनी चिढ़ थी कि वह उसकी खोज में दिन-रात, जाड़ा-बरसात कुछ नहीं देखता था। यदि उस किसान के पास बंदूक होती तो शायद वह जंगल को सुअरों से सूना कर देता।
उसने बंदूक का लाइसेंस प्राप्त करने की चेष्टा भी की; परंतु उसको लाइसेंस कौन देता! न काफी मालगुजारी देनेवाला जमींदार और न पुलिस का मुखिया; न अँगरेज शिकारियों का खुशामदी या अँगरेज का आबुर्दा।
एकांत जीवन बितानेवाला निडर, निर्भीक किसान। उसने अंत तक अपनी लाठी-कुल्हाड़ी का भरोसा किया और बंदूक की या बंदूक का लाइसेंस देनेवालों की कभी परवाह नहीं की।
सुअर के शिकार के लिए जो 'गड्ढा' बनाया जाय वह काँटेदार तो कम से कम होना ही चाहिए; परंतु मेरे एक साथी हेकड़ी के साथ एक रात कठजामुन के झुरमुट में जा बैठे। कठजामुन में पत्तों की भरमार थी। मोटी डालें बहुत कम थीं। उसके साथ दुर्जन कुम्हार बैठा था, नहीं तो असली बात का पता ही न चलता।
सुअर आया। उन्होंने बंदूक चलाई। सुअर घायल हो गया। उसने समझ लिया कि गोली कहाँ से आई। झुरमुज की ओर झपटा।
शिकारी और दुर्जन भागे। दुर्जन ने दूर भागकर दम ली। शिकारी लगे काटने चक्कर कठजामुन के झाड़ के। उनके साथ सुअर भी चक्कर काता रहा। सुअर बहुत घायल हो गया था, इसलिए शिकारी बच गए; नहीं तो वह अपनी खीसों से उनकी उधेड़बुन कर डालता। चाँदनी रात थी, दुर्जन सब देख रहा था।
सवेरे जब मैंने उनसे रात का वृत्त पूछा, क्योंकि एक-दूसरे का अनुभव पूछने में प्रमोद होता है, तो उन्होंने कहा, 'सुअर घायल होकर भाग गया।' दुर्जन हँस पड़ा। उसकी हँसी शिकारी को बहुत खली। वे अपनी झेंप को ढाँकना चाहते थे; परंतु दुर्जन की हँसी उघाड़े दे रही थी। मेरे कुरेदकर प्रश्न करने पर दुर्जन ने कहा, 'सुअर भग गओ और जे कठजामुन को परदच्छना (प्रदक्षिणा) देत रये।'
फिर उसने सारा हाल विस्तार के साथ सुनाया।