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दबे पाँव (अध्याय 23)

16 मई 2022

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती है, जिसमें उसने गायरा किया हो- क्योंकि गायरा करके वह आस पास ही कहीं छिप जाता है। तब लगानवालों को पूरी चुप्पी साधकर बैठना पड़ता है। शेर को लगानवालों के पास भेजने के लिए पेड़ पर कुछ लोग बैठ जाते हैं; यदि सेर भटककर उनकी ओर आता है तो वे कंकड़ बजा देते हैं और शेर मुड़कर लगानवालों की ओर चला जाता है।

कुछ लोगों का अनुभव है कि शेर आदमियों के बीच से ढोर को पकड़ ले ताजा है; परंतु ऐसे लोगों का यह भी कहना है कि आदमियों के हल्ला-गुल्ला करने पर शेर डरकर, छोड़कर भाग जाता है।

अनेक शिकार यह कहते हैं कि घायल होने पर ही शेर शेर बनता है; वैसे तो वह डरपोक जानवर है। सदा अपनी रक्षा की चिंता में रहता है।

एक अँगरेज शिकारी ने घायल शेर के रोमांचकारी पराक्रम का वर्णन किया।

अँगरेज और उसकी पत्नी दोनों शिकार खेलने गए। वे निकट मचानों पर पृथक-पृथक बैठे। हँकाई हुई। शेर पहले पुरुषवाले की मचान के पास आया। वह अपनी पत्नी को शिकार खिलाना चाहता था, इसलिए उसने बंदूक नहीं चलाई। शेर उसकी पत्नी की मचान के पास पहुँचा। उसने बंदूक चलाई। शेर घायल हो गया। घायल शेर ने उस स्त्री को देख लिया। शेर मचान पर पहुँचने के लिए पेड़ पर चढ़ा। स्त्री ने बंदूक की गोलियाँ खर्च कर डाली, परंतु शेर न मुड़ा।

उसका पति यह सब देखकर बहुत घबराया। शेर स्त्री के निकट पहुँचता चला जा रहा था। अँगरेज पत्नी को चोट पहुँचने के भय से बंदूक नहीं चला रहा था। वह अपने मचान से उतरा। शेर झपट मारकर स्त्री पर टूटना ही चाहता था कि उसने अपनी पत्नी को बरकाते हुए गोली चलाई। स्त्री डर के मारे मचान से नीचे जा गिरी और घायल शेर गोली खाकर जमीन पर लुढ़का। स्त्री बच गई। शेर मर गया। शेर संबंधी और अनेक मनोरंजक घटनाएँ हैं।

शेर का मेरा अनुभव यद्यपि अन्य शिकारियों की अपेक्षा अधिक विस्तृत नहीं है, तथापि समकक्ष अवश्य होगा।

अप्रैल सन् 1946 की बात है। मैं ओरछा राज्य (श्यामसी) वाले फॉर्म पर था। इस फॉर्म के निकट ही राज्य का रक्षित वन है। जानवर तो उसमें कम हैं, परंतु जंगल पर्वतमय होने के कारण सुंदर है।

मेरे पास शिकार खेलने का लाइसेंस था। एक दिन पहले तक काफी परिश्रम कर चुकने के कारण सोचा कि जंगल की सैर कर आऊँ। बैलगाड़ी पर गया।

मेरा फॉर्म प्रबंधक बिंदेश्वरी गाड़ी हाँक रहा था। गाड़ी में मेरे पास एक बुड्ढा और बैठा था। फॉर्म से गाड़ी लगभग साढ़े छह बजे सुबह चली। चार-पाँच फर्लांग चलने के उपरांत सूरज ऊपर चढ़ आया।

फॉर्म और रक्षित वन के बीच सिंगा नाला है। नाले की चढ़ाई साधारण है। चढ़ाई पार करते ही सघन वन मिलता है। उसी स्थान पर छोटा सा नाला ऊपर आकर उस नाले में दाईं ओर मिला है। नाले पर हिंस, मकोय, करधई, नेगड़ और पलाश के छुटपुट पेड़ हैं।

मैं आगे की ओर मुँह किए था, एक बुड्ढा बगल में। बैल मट्ठर थे और धीमे-धीमे चल रहे थे।

बुड्ढे ने मेरी बगल में धीरे से कुहनी से स्पर्श किया और कहा, 'नाले के ऊपर और पत्तों के बीच चीतल पड़ा है।'

मैंने तुरंत उस ओर देखा। गाड़ी खड़ी करवा दी। पत्तों के पीछे शेर खड़ा था। खरी छौहोंवाला दीर्घकाल पूरा शेर। बुड्ढे ने पहले कभी शेर न देखा था, इसलिए उसे चीतल का भ्रम हआ।

मैंने बिंदेश्वरी और बुड्ढे से कहा, 'नाहर है।' वे दोनों उत्सुकता के साथ उसे देखने लगे। बंदूक मेरी तैयार थी, परंतु लाइसेंस में शेर के शिकार की अनुमति न होने के कारण बंदूक चलाने का लालच तक मन में न आया। परंतु मुझको एक कल्पना सूझी।

लोग कहते हैं कि मनुष्य की आवाज पर सेर भाग जाता है, परंतु वह अडिग रहा, और मैंने जोर के साथ बातचीत की थी, तो भी वह नहीं हटा था। मैंने शेर की हुंकार-गर्जन का अभिनय अपने कंठ से किया। मैं कम से कम पच्चीस बार गरजा।

फिर भी शेर वहाँ से न हिला।

मैंने सोचा, इतना खेल काफी है। गाड़ी आगे बढ़वाई। मुश्किल से चालीस-पचास कदम बढ़ी होगी कि शेर दाईं ओर से चलता हुआ बिलकुल आड़ा आ खड़ा हुआ। हम लोगों के और उसके बीच कोई आड़ नहीं थी; न एक पत्ता और न एक सींक। इस बार गोली चलाने का लोभ मन में हुआ; परंतु लाइसेंस की बाधा के कारण रुक गया।

शेर पूर्व की दिशा की ओर था। उसके ऊपर से सूर्य की किरणें रिपट रही थीं। गाड़ी से वह पचास-साठ डग के अंतर पर होगा। मुझको फिर शरारत सूझी। और मैंने फिर उसके गर्जन की नकल की। अव की बार शेर ने अपना जबड़ा जरा नीचे को लटकाया और अगला पंजा लगभग एक इंच जमीन से उठाकर फिर रखा- मानो सोच रहा हो कि इस अभद्रता का क्या उत्तर दूँ। मुझको भी संदेह हुआ। दाल में काला समझकर मैंने गाड़ी हँकवाई।

मार्ग में एक मोड़ था, लगभग पचास गज का। इस मोड़ से शेर नहीं दिखलाई पड़ रहा था; परंतु जैसे ही मोड़ साफ हुआ, देखा कि शेर गाड़ी के पीछे-पीछे आ रहा है।

मैं समझ गया कि शेर चिढ़ गया है और उसकी नियत में फर्क है, शायद आक्रमण करेगा।

मैंने बिंदेश्वरी से कहा, 'गाड़ी तेज चलाओ।'

उसने बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कि बैल को ठोकर मारते-मारते एक पैर का जूता खिसककर गिर गया; परंतु बैल मट्ठे थे, इसलिए न बढ़े। बैलों ने शेर को नहीं देखा था, और पश्चिम का पवन होने के कारण उन्होंने सेर की गंध भी नहीं पाई थी, नहीं तो गाड़ी को फेंक-फाँककर भाग जाते।

शेर के मार्ग में जूता आया। उसने एक छोटी सी छलाँग मारकर इस अपशकुन को पार किया।

बिंदेश्वरी चुप्पा बहादुर है। उसका धीरज उसकी गाँठ में था; परंतु बुड्ढे के चेहरे पर मैंने घबराहट के लक्षण देखे। वह पीछे बैठा था। डर लगता था, कहीं वहीं का वहीं न टपक जाए। मैंने अपने दोनों साथियों को चिल्लाकर ढाढ़स दिया।

मैंने शेर पर गोली न चलाने का निश्चय कर लिया था, क्योंकि मैं ओरछा नरेश के सौजन्य का अपमान नहीं करना चाहता था।

परंतु इधर अकेले मेरे ही नहीं, मेरे दो साथियों के प्राणों पर आ बनी थी, जिसमें बिंदेश्वरी तो मेरे कुटुंब का एक अंग सा ही था।

गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। शेर मानो नाप-नापकर अपने और गाड़ी के बीच के अंतर को कम करता चला आ रहा था।

मैंने पूरे जोर के साथ चिल्लाना शुरू किया, 'हट जा, भाग जा, कमबख्त! अभागे हट जा, भाग जा।'

मैं इतना चिल्लाया कि अंत में मेरा गला बैठने लगा। सुनसान जंगल में मेरी चिल्लाहट गूँज-गूँज जा रही थी। चिल्लाहट के कारण मेरे कान सनसना रहे थे; परंतु हम लोग भयभीत नहीं हुए थे।

जब जब मैं चिल्लाहट को और अधिक कठोर और भीषण बनाता, तब-तब शेर जरा सा, बहुत जरा सा सहमता जान पड़ता; परंतु वह रुका नहीं। उत्तरोत्तर अपने और गाड़ी के अंतर को कम करता चला आ रहा था।

उसके पंजों से नाखून निकल-निकल पड़ रहे थे। मूँछें खड़ी थीं। बड़ी-बड़ी आँखें जल रही थीं।

दो फर्लांग चलने के बाद अंतर केवल पच्चीस-तीस कदम का रह गया था।

चिल्लाते-चिल्लाते मेरा गला लगभग बैठ गया था। शेर को केवल दो लंबी छलाँगें मारने की कसर थी कि हम तीनों की हड्डी पसली एक हो जाती। यदि भागनेवाले तेज बैल होते, तो भी पार नहीं पा सकते थे; क्योंकि शेर भी उसी अनुपात में अपना डग बढ़ाता।

अब केवल एक विकल्प कल्पना में आ रहा था - या तो शेर गाड़ी पर कूदकर हम लोगों को चबाता है या फिर उसपर राइफल चलाकर उसकी गति को कुंठित करना चाहिए।

परंतु इस विकल्प में एक बड़ी बाधा थी - पहाड़। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर गाड़ी चल रही थी। शेर उलटा-सीधा हम लोगों की ओर बिना रुके हुए चला आ रहा था। निशाना नहीं बाँधा जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में वह शायद घायल ही होता और फिर घायल शेर वास्तव में शेर होता है। फिर वह किसी हालत में भी हम लोगों को न छोड़ता।

तब एक और उपाय सूझा। मैंने सोचा, शेर के आगे जरा अंतर पर गोली छोड़नी चाहिए। शायद बंदूक की आवाज और गोली से उडी धूल के कारण डरकर लौट जाय। शायद गोली से उचटी हुई धूल उसकी आँखों में पड़ जाय। तब तक हम लोग, मंथर गति से ही सही, जान बचा ले जाएँगे। और यदि यह उपाय विफल हुआ तो एक अंतिम संकल्प वही था - ताककर सेर के सिर पर गोली चलाना। फिर लगे कहीं भी।

मैंने तुरंत बढ़ते हुए शेर के सामने गोली चलाई, ऐसी कि उसके फुट या दो फुट आगे पड़े। गोली चलते ही अर्राट का शब्द हुआ। उसके सामने धूल भी उड़ी। शेर की हिम्मत डिग गई।

वह लौट पड़ा और जंगल में विलीन हो गया। हम लोग अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए घर लौट आए।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

16 मई 2022
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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

16 मई 2022
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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022
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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

16 मई 2022
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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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