आंख थी शैतानी सी करती थी मनमानी सी घर के खुले द्वार में रास्ता है तक्क रही | दबी दबी सी चाल है चोर जैसी ढाल है गुड़ की डाली हाथ में सांस सी अटक रही | कोशिशें हज़ार है जाना घर से भार है यार
आंखों की पलकों को जब नींद सताती थी वो लेके गोद मेँ अपनी मुझपे स्नेह जताती थी अपने आँचल से ढककर अब कौन सुलता है वो खिलखिलाता बचपन मुझको फिर बुलाता है नन्हें कदमों से उठकर चलने की ख्वाहिश थी
खिलखिलाती सी एक उम्र को जी लिया एक मुस्कराहट से हर गम को पी लिया ऊँगली थाम के अब कोई चलाता नहीं यह बचपन फिर लौट कर आता नहीं न भूख की चिंता थी और न थी कल की फ़िक्र हर बात पे हसते थे जिस बात का होता जिक्
अबोध मन सा बचपन,निश्छल चंचल चितवन।पुष्प अंकुरित सा कोमल,ओस की बूंदों सा मनभावन।।घर आंगन महकाता बचपन,नादान परिंदे जैसा बचपन।गुलशन गुंजाएमान बालमन,बिन बात मुस्काए बालमन।।सूरज सा दमके बालमन,निश्छल भोला भ
गुज़रा ज़माना - न जाने कितने लोगो ने उस गुज़रे ज़माने को याद किया होगा । अपनी कुछ धुंधली सी तस्वीरो मे चाहे वह (दुर्दशन हो या पुराने फिल्मी गीतो मे जिसे आज भी
बचपन था वोबड़ा सुहाना,हौले से वो माँ का जगाना,नहा-धो तैयार हो जाना,पट्टी लेकर स्कूल को जाना।पट्टी को गुट्टे से चमकाना,खड़िया का एक घोल बनाना,कलम दवात को लेकर अपनी,अ आ इ ई लिखते जाना।न टेबल न कुर्सी तब थ
कल मैंने आपको हमारे बाग़-बगीचे में उगाई कंडाली के पौधे के बारे में कुछ बातें बताई। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए आज मैं आपको हमारे उत्तराखंड से लाकर बगीचे में लगाए कुणजा के पौधे के बारे में बताती हूँ। बचपन
क्या वो दिन थे बचपन केमां की गोद और पापा के कंधे ,न समाज की चिंता न दुनिया का डर ,क्या वो दिन थे बचपन के........ मां की मनुहार और पापा का प्यार, &
ईश्वर का दिव्य अवतार है
बचपन
जीवन में खुशिय
बचपन जो अब सपना लगता है बचपन गावं में गन्ने खेत में कान्छी (गन्ने का बीज) बोते ,गेहूं बोते व् काटते हुए खेतों में ही बीता। उन दिनों गावं में सुबह की सैर, प्राणायम , योगा का चलन या ऑप्शन न था। इसकी कमी हम लोग खेत में काम करके व् सिर पर चारे की गठरी को खेत से घर तक को लादकर पूरी करते
बचपन कितना अच्छा था।जब दांत हमारे कच्चे थे।कमर करधनी, पैर पैजनिया,चल बईयन, सरक घुटवन खड़े हो गए।पकड़ उंगली दादा दादी की,सैर गाँव की कर आते थे।ले चटुवा, गाँव की दुकान से,लार होठो से, दाड़ी तक टपकते थे।धो मुँह माँ हमारी, काजल आँख धराती थी।कर मीठी मीठी बातें बकरी का दूध पिलाती थी।उतार हमारे गर्दीले कपड़ो क
स्कूल न जाने के लिए पेट का गड़बड़ हो जाना टीचरों की डाँट पर आँखों से टेसुओं का बह जाना पेंसिल को दोनों तरफ से छीलना, रबड़ को गोदना दोस्तों के साथ मौज मस्ती में स्कूल टाइम का बीतना वो २६ जनवरी का स्कूल में खाना और पद संचलन याद आता है मुझे मेरा वो बचपन विष-अमृत हो या हो छुप्पन-छुपाई सिथोलिया हो या
पेड़ ही है, जो अपने ऊपर फल आने के इंतजार में आँधी, बारिश, तूफान सभी को झेलते है। उन्हें यह नही मालूम था कि, फल कोई और तोड़ ले जाएगा। सब कुछ लूट जाने के बाद पत्ते भी साथ छोड़ देते है। वह तो शाख है, जो साथ नही छोड़ती बस कोई कटे और तोड़े न। जमी के अंदर तो जड़े भी महफ़ूज रहती है। पेड़ किसी से कहते नही, बचपन के
छोटे तो सब अच्छा था बड़े होकर जैसे भूल हो गईपहले खेलते थे मिट्टी से जनाब लेकिन अब तो जिंदगी ही धूल हो गई कोई डांट देता था तो झट से रो जाया करते थे फिर पापा मम्मी के सहला देने से तो आराम से सो जाया करते थे अब कोई डांट दे तो रोते नहीं अब आराम से सोते नहीं दोस्तों अब तो
वो भी क्या उमर थी,जब मस्ती अपने संग थी ,सारी फिकर और जिम्मेदारियाँ, किसी ताले मे बंद थी,वो गलियाँ जिसमे खेलते थे क्रिकेट,पतंग उड़ाते कभी थे,कभी तोड़ते थे कांच तो कभी पेंच लड़ाते वो हम थे,क्या सच में वो दिन थे बचपन के ?बारिश मे भीगना ,क्लासेस बँक करना ,कीचड़ के पानी मे खुद को भिगोना,छत पे खड़े होके सीटी ब
वक्त करवट ले गया।गाँव से भागे, शहर में कमाया मौज मनाया।गाँव की गलियाँ सूनी, शहर की गलियों में रंगरलियाँ।गाँव बड़े , घर मन न भए, शहरों में झुग्गी बस्ती बनाए।जीकर नरक भरी जिंदगी शहर में, गाँवों में नाम कमाए।छोड़ छाड़ माँ बाप की ममता, शहर में प्यार प्रेम कमाए।सुबह नहाए कम्पनी को जाए, कर याद गाँव को पछताए।
कोई लौटा दो मुझे वो दोस्त सारे जो खेले थे साथ हमारे लड़ते झगड़ते भी थे एक दूसरे से फिर भी खुश थे सारेकहा चले गये वो दिन हमारे अब गाँव वीरान सा
बचपन मे स्कूल जाने के लिए, किशोरा अवस्था मे एक मुकाम हासिल करने के लिए। परिवार को चलाने के लिए, ताउम्र घर संभालते रहे, खुद को घुलाते रहे साबुन की तरह।साफ हो गए मृत सैय्या के लिए। आखरी समय मे , खुद को तैयार करते रहे शमशान में जलाने के लिए।