shabd-logo

मुक्तिबोध

hindi articles, stories and books related to Muktibodh


मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं बांहें फैलाए! एक पैर रखता हूँ कि सौ राहें फूटतीं, मैं उन सब पर से गुजरना चाहता हूँ, बहुत अच्छे लगते हैं उनके तजुर्बे और अपने सपने.... सब सच्चे लगते हैं, अजीब-

भूल-ग़लती आज बैठी है ज़िरहबख्तर पहनकर तख्त पर दिल के, चमकते हैं खड़े हथियार उसके दूर तक, आँखें चिलकती हैं नुकीले तेज पत्थर सी, खड़ी हैं सिर झुकाए सब कतारें बेजुबाँ बेबस सलाम में, अनगिनत खम्भों

बेचैन चील!! उस जैसा मैं पर्यटनशील प्यासा-प्यासा, देखता रहूँगा एक दमकती हुई झील या पानी का कोरा झाँसा जिसकी सफ़ेद चिलचिलाहटों में है अजीब इनकार एक सूना!! 

मैं बहुत दिनों से बहुत दिनों से बहुत-बहुत सी बातें तुमसे चाह रहा था कहना और कि साथ यों साथ-साथ फिर बहना बहना बहना मेघों की आवाज़ों से कुहरे की भाषाओं से रंगों के उद्भासों से ज्यों नभ का कोना-कोन

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन

शहर के उस ओर खंडहर की तरफ़ परित्यक्त सूनी बावड़ी के भीतरी ठण्डे अंधेरे में बसी गहराइयाँ जल की... सीढ़ियाँ डूबी अनेकों उस पुराने घिरे पानी में... समझ में आ न सकता हो कि जैसे बात का आधार लेकिन

इतने प्राण, इतने हाथ, इनती बुद्धि इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद – जितना ढोंग, जितना भो

पता नहीं कब, कौन, कहाँ किस ओर मिले किस साँझ मिले, किस सुबह मिले!! यह राह ज़िन्दगी कीजिससे जिस जगह मिले है ठीक वही, बस वही अहाते मेंहदी के जिनके भीतर है कोई घर बाहर प्रसन्न पीली कनेर बरगद ऊँचा,

खगदल हैं ऐसे भी कि न जो आते हैं, लौट नहीं आते वह लिए ललाई नीलापन वह आसमान का पीलापन चुपचाप लीलता है जिनको वे गुँजन लौट नहीं आते वे बातें लौट नहीं आतीं बीते क्षण लौट नहीं आते बीती सुगन्ध की सौर

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा, तेरी प्रत्यंचा का कंपन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पंद हृदय के अंधकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाणों की नोकों पर जीवन-संचार करेगा ।

स्वप्न के भीतर स्वप्न, विचारधारा के भीतर और एक अन्य सघन विचारधारा प्रच्छन!! कथ्य के भीतर एक अनुरोधी विरुद्ध विपरीत, नेपथ्य संगीत!! मस्तिष्क के भीतर एक मस्तिष्क उसके भी अन्दर एक और कक्ष कक्ष क

जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज़ सूरज एक जॉबर-सा बराबर रौब अपना गाँठता-सा है कि रोज़ी छूटने का डर हमें फटकारता-सा काम दिन का बाँटता-सा है अचानक ही हमें बेखौफ़ करती तब हमारी भूख की मुस्तैद आँखें ही थक

मुझे नहीं मालूम मेरी प्रतिक्रियाएँ सही हैं या ग़लत हैं या और कुछ सच, हूँ मात्र मैं निवेदन-सौन्दर्य सुबह से शाम तक मन में ही आड़ी-टेढ़ी लकीरों से करता हूँ अपनी ही काटपीट ग़लत के ख़िलाफ़ नित स

घोर धनुर्धर, बाण तुम्हारा सब प्राणों को पार करेगा तेरी प्रत्यंचा का कम्पन सूनेपन का भार हरेगा हिमवत, जड़, निःस्पन्द हृदय के अन्धकार में जीवन-भय है तेरे तीक्ष्ण बाण की नोकों पर जीवन-सँचार करेगा।

सामाजिक महत्व की गिलौरियाँ खाते हुए, असत्य की कुर्सी पर आराम से बैठे हुए, मनुष्य की त्वचाओं का पहने हुए ओवरकोट, बंदरों व रीछों के सामने नई-नई अदाओं से नाच कर झुठाई की तालियाँ देने से, लेने से,

तुम्हारे पास, हमारे पास, सिर्फ़ एक चीज़ है – ईमान का डंडा है, बुद्धि का बल्लम है, अभय की गेती है हृदय की तगारी है – तसला है नए-नए बनाने के लिए भवन आत्मा के, मनुष्य के, हृदय की तगारी में ढोते

मुझको डर लगता है, मैं भी तो सफलता के चंद्र की छाया मे घुग्घू या सियार या भूत नहीं कहीं बन जाऊँ। उनको डर लगता है आशंका होती है कि हम भी जब हुए भूत घुग्घू या सियार बने तो अभी तक यही व्यक्ति ज़ि

कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं – 'सफल जीवन बिताने में हुए असमर्थ तुम! तरक़्क़ी के गोल-गोल घुमावदार चक्करदार ऊपर बढ़ते हुए ज़ीने पर चढ़ने की चढ़ते ही जाने की उन्नति के बारे में तुम्हारी ही ज़हरील

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में – 'वह है मानव परंपरा' चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह, 'सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह।' मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान किसी कारण अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्ट

सपने से जागकर पाता हूँ सामने वही बरगद के तने-सरीखी वह अत्यंत कठिन दृढ़ पीठ अग्रगायी माँ की युग-युग अनुभव का नेतृत्व आगे-आगे, मैं अनुगत हूँ। वह एक गिरस्तन आत्मा मेरी माँ मैं चिल्लाकर पूछता – क

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए