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मज़हब

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मज़हबगाह बदन मेरा, ख़ुदा ज़मीर है, ज़रूरत नहीं मुझे किसी मज़हबगाह की. कुछ लोग इस जहां में जिनमे ख़ुदा नहीं,तोड़ते और बनाते है मज़हबगाह बस यूँही.(आलिम)

अन्धकार से लड़ना और अंधकार में लड़ना दोनों में ज़मीन आसमान का फ़र्क है. आज लोग अँधेरे से नहीं बल्कि अँधेरे में लड़ रहे है. आफ़ताब की रोशनी और चाँद की चाँदनी भी इस अंधकार को खत्म

ना मैं परेशान तुझसे हूँ, ना तू परेशान मुझसे है, परेशान हम सब यूँ ही है अपने अपने मज़हब से. (आलिम)

कुछ तो जीते है मकसद के लिए, कुछ बिना मकसद जिए जा रहे है. कुछ नहीं कर पाए जो इस जिंदगी में, मज़हब के नाम पर लड़े जा रहे है. सत्ता की भूख ने छुड़ाया घर अपना, अब दुसरो के घर भी छुड़वा रहे है. जिन्हे फ़िक्र ना थी कभी अपने घर की, दुनिया

मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना हिंदी हैं हम वतन हैं हिन्दुस्तान हमारा.सभी को हिदुस्तान की आज़ादी की बहुत बहुत बधाई.( आलिम)

फक्र उनको है बता जात अपनी, शर्मिंदा हम है देख औकात उनकी.किया कीजियेगा अपनी इस जात का, मिलेगा तुम्हे भी कफ़न जो मिलेगा बे-जात को. (आलिम)

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