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सच

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सुनो! तुम सच बोल दिया करो.. हम मानते हैं कि सच सुनकर खफा होंगे, रूठेगे लेकिन विश्वास है ना हम दोनों के बीच। यह विश्वास सब समझा देगा ... तुम्हारे मैं को मेरे तुम को हम बना देगा। मन ही तो है, कभी उड़ता है, कभी डरता है। जैसे सूरज का तेज हर समय, हर दिन हर मौसम में एक जैसा नहीं होता है। जैसे चन्द

मंटूबड़ा खुश था । प्राइमरी में टीचर लगे उसेअभी साल भर भी नहीं हुआ था कि सरकार द्वारा प्रायोजित डी-एड पाठ्यक्रम के लिए उसकानामांकन हो गया । प्राइमरी स्तर के बालकों कोपढ़ाने के लिए डी-एडकी पढाई काफी महत्वपूर्ण है । समय परसमस्त शिक्षक सेंटर पहुँच गए । पाठ्यक्रमप

हर बार सच्चाई की सफाई देना जरुरी नहीं.कभी कभी सही वक्त सब कुछसाफ कर देता हैअपने आप ही.सूरज को ढकनेकी कोशिश करता हैबादल हर कभी, लेकिन उसे रोशनी देनेसे रोक सका हैक्या वो कभी.शिल्पा रोंघे

जब ज़मीर मर जाता है तो झूठ में सच दिखता है. सच और झूठ में कोई फ़र्क नहीं होता, फ़र्क बस इतना है कि सच ज़मीर के साथ बोला जाता है और झूठ बिना ज़मीर के. जिनका ज़मीर मर चुका हो उनसे सच बोलने की उम्मीद करना बेवकूफी है. जब पौधे में कीड़े लग जाते है तो उ

प्रकाश एक बेहतरीन लेखक था,पाठक उसकी रचनाओ की प्रतीक्षा करते थे। कहानी हो या उपन्यास या फिर कविता उसकी लेखनी कमाल की थी और पात्र-चयन तो और भी उत्तम।पिछले कुछ दिनों से वित्तीय समस्या के कारण वह तनाव में चल रहा था ,इससे उसका लेखन भी अछूता नहीं रहा था।वह एक कहानी लिख रहा

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झूठ और सच का खेल बड़ा ही निराला है। हैरानी होती है आदमी झूठ क्यों बोलता है और सच क्यों नहीं बोलता? आखिर कौन सी ऐसी मजबूरी है जिस से व्यक्ति झूठ बोलता है? आज झूठ को क्यों इतनी प्रतिष्ठा मिली है? सच बोलने से व्यक्ति घबराता -कतराता क्यों है? ऐसे तमाम प्रश्न हैं, जो बताते हैं कि इस के कई कारण हैं। मनोव

झूठ पलता हो पालनों में जहाँ, सच की उनसे क्या उम्मीद करे, खेलते होली जो नफ़रत घुले पानी से, रंगो की वहां क्या उम्मीद करे. दिखता है रंग अपना ही खूबसूरत, उनसे दूसरे रंगों की क्या तारीफ़ करे. मज़हब में भी जो ढूंढते नफ़रत, उनसे इश्क ओ म

सच बोलने से गर डर लगता है यारो, झूठ ऐसा बोलो कि सच सामने आये. सच को बताने की अक्सर ज़रूरत तो नहीं होती, हाकिम ही गर हो झूठा,तो सच बताना ही पडेगा. (आलिम).

 किसी भी घटना के कई पक्ष और पहलू होते हैं .हर घटना को अलग अलग चश्मों से गहरी या सतही पड़ताल के ज़रिये अलग अलग निष्कर्षों पर पहुंचा जा सकता है . निष्कर्ष वही होते हैं जो रायों में परिवर्तित हो जाते हैं और रायें पीढ़ी दर पीढ़ी , समाज की हर ईकाई के माध्यम से संस्थागत हो जाती हैं . और इस तरह वे अमूमन संस्कृ

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