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रस्सी

28 फरवरी 2024

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जब तक हाथ-पैर चलते थे तब तक अंशुमन बाबू को सभी पूछते थे। घर के बुजुर्ग थे, क्यों न पूछे। लंबा चौड़ा परिवार था उनका। नाती-पोतों से भरा-पूरा घर। अंशुमन बाबू उसी नाती-पोतों के बीच घिरे रहते। कोई चीज की कमी नहीं थी। किन्तु बीच-बीच में रह-रहकर उदास हो जाते। क्योंकि उनकी पत्नी कमला लंबी बीमारी की त्रासदी को झेलते हुए बीच मझधार में ही छोड़कर चली गई। कुछ दिनों के लिए एकाकीपन का साम्राज्य घर में पसरा तो था, पर अंशुमन बाबू सब्र कर लिए। उनके देख-रेख करने वाले चार-चार बहुएं व पोता-पोतियों से घर गुंजायमान रहता। कमला के जाने के बाद अंशुमन बाबू नए सिरे से अपनी दिनचर्या को संवारकर जीवन के अग्रपथ पर बढ़ चले। श्राद्ध के बाद तो एक-एक कर सब बच्चे परिवार सहित अपनी नौकरी के लिए कूच कर गए, मात्र छोटे बेटे राममूरत के। राममूरत सपरिवार घर पर ही रहता था। जीविकोपार्जन के लिए घर के अगले हिस्से में किराने की दुकान डाल ली थी।

राममूरत अपने बाबू जी का बहुत ध्यान रखता था। बहू निशा हमेशा सेवा-सुश्रूषा के लिए तत्पर रहती थी। बच्चे भी अपने दादा जी के साथ चिपके रहते थे। समय-समय पर बड़ा बेटा अरुण भी संचार माध्यम के द्वारा कुशल-क्षेम पूछता रहता था। मंझला रमेश व संझला अनूप भी समय-समय पर बाबूजी के साथ गपियाते रहते थे।

अंशुमन बाबू जीवन की गाड़ी को अकेलेपन की नाव पर सवार होकर निर्विघ्न पार करते जा रहे थे। 75 की उम्र में भी स्वस्थ थे। उनके सहकर्मी अंशुमन बाबू से मजाकिया ईर्ष्या करते-‘भाई मानना पड़ेगा बेटे-बहू की सेवा-सुश्रुषा ने रंग दिखाया है।’

अंशुमन बाबू सबका जवाब संक्षिप्त वाक्य के तहत हंसकर दे देते। किन्तु उस हंसी के बीच दर्द की एक लकीर खिंच जाती। उनके दोस्तों की फेरहिस्त लंबी थी। प्रतिदिन साथ दिखने वालों में-महिपाल, जगदयाल, नागा तथा और कई व्यक्ति थे, पर जिससे अधिक छनती थी वह रामनाथ थे। रामनाथ से अंशुमन बाबू कोई बात छिपाते नहीं थे।

‘अंशुमन? तुम्हारे चेहरे पर ये दर्द की रेखाएं। तबीयत तो ठीक है न?’

अंशुमन बाबू रामनाथ से मन की बातें कह बोझ हल्का कर लेते थे।

‘राम एक बात रह-रहकर मेरे मन को मथ रही है। क्या जमाना आ गया। एक मैं था। जहां-जहां नौकरी की, मां-बाबू जी को साथ में रखा। उनके दुख-दर्द में बराबर का सहभागी बना रहा। और आज वही मेरे बच्चे हैं-कितना परिवर्तन आ गया है? मेरा बड़का अरुण जब भी बात करता तो इतना जरूर कहता-‘बाबू जी आ जाइए मेरे पास। आपको तो बीच-बीच में समय निकालकर बेटों के पास घूमते रहना चाहिए। कम-से-कम आप जिंदगी का मजा तो लीजिए। अभी कुछ कहता तभी मेरा पोता फोन लेकर बोल पड़ा-‘दादाजी इस बार गर्मी की छुट्टी में आऊंगा तो आपको रस्सी से बांधकर लाऊंगा। ऐसे तो आप आएंगे नहीं।’

पोते की बात सुनकर मेरी छाती दुगुनी चौडी हो गई... पर रामनाथ...।’

‘पर क्या अंशु?’

‘ये बातें उस समय की हैं जब शरीर में दम था, जान थी। अब शनै-शनै शरीर शिथिल पड़ते जा रहा है। अब तो रस्सी से बांधकर ले जाने की बातें कोई कहता भी नहीं है। इस बार छुट्टी में सभी बेटे परिवार सहित आए, पर अब वैसी आत्मीयता नहीं दिखी।

पहले तो सभी एक सुर में ले जाने की बातें कहते थे। किन्तु इस बार ले जाने के लिए किसी ने कहा भी नहीं। शहर का दूषित वातावरण दिन-प्रतिदिन गांव की अच्छाइयों को निगलते जा रहा है। उनके लिए तो मैं अब अनावश्यक वस्तु के तरह हो गया हूं। वापस लौटते वक्त किसी ने इस विषय पर जिक्र करना भी उचित नहीं समझा। बड़ा बेटे अरुण ने कहा-‘बाबू जी पैसे के लिए चिंता मत कीजिएगा। राममूरत को दे दिया है।’

‘हां दादा जी।’ वही पोता जो हमेशा बांधकर ले जाने की बातें करता था।

‘नहीं बेटा। राममूरत के पास पैसे की कमी नहीं। फिर मेरी भी तो पेंशन आती है।’

मझले बेटे का लड़का तो दो कदम आगे चल रहा था। उसने तो सचमुच की रस्सी रख छोड़ी थी। वह भी कुछ नहीं बोला।’

‘सब वक्त-वक्त की बात है अंशु।’ रामनाथ ने कहा-‘पेड़ के सारे फल सडे़ तो नहीं होते न?’

रस्सी की जो बातें कर रहे हैं। वह मात्र दिखावे की है। असली रस्सी तो राममूरत के पास है, जो आजीवन बांध कर रखे रहेगा तुमको। जीवन के आखिरी पड़ाव तक।’

‘सही कह रहे हो।’

‘आ अब लौट चलें।’

‘फालतू की बातें छोड़ और बाकी का जीवन गांव में रहकर ही यादगार बना।’ अब तक निराशा के बादल अंशुमन बाबू के चेहरे पर जो चिपके हुए थे रामनाथ की बातों से पिघल चुके थे। वे दोनों मित्र अब तक गांव में प्रवेश कर अपने-अपने घरों की ओर बढ़ने लगे थे।

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बहुत ही सजीव और सुंदर लिखा है आपने सर 👌 आप मेरी कहानी प्रतिउतर और प्यार का प्रतिशोध पर अपनी समीक्षा जरूर दें 🙏🙏

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