आज इस संसार में जो भी कार्य धर्म समझकर हो रहे हैं उन सभी कार्य में धर्म का लेशमात्र भी नहीं है.. धर्म की परिभाषा से आज दुनिया कोसो दूर जा चुकी है ..
आइये जानते हैं कि ...
धर्म है क्या.. sanskrit के 'धृ' धातु में धारणे पूर्वक मनिन् प्रत्यय लगने से धर्म शब्द बनता है जिसका अर्थ है धारण करने योग्य अब हमें क्या धारण करना चाहिए इस विषय में महर्षि मनु का कहना है .. 'आचारच्शैव साधूनां' सज्जन पुरुषों का आचरण ही धर्म है मनुस्मृति में अन्यत्र कहा गया है - धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः। धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम्॥
अर्थात् - धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध ) वही महाभारत के वनपर्व में यक्ष को धर्म की परिभाषा बताते हुए युधिष्ठिर कहते हैं- दया ही श्रेष्ठ धर्म है भागवत पुराण में धर्म के ये तीस लक्षण बताये गये हैं - सत्य,दान,पवित्रता, कष्ट सहने की क्षमता, उचित और अनुचित विचार का निर्णय करना, मनोनिग्रह, अहिंसा,त्याग,ब्रह्मचर्य, स्वाध्याय,सरलता,संतोष,समभाव,मौन,आत्मचिंतन,धैर्य, अन्नदान,पूजा,यज्ञ, आदि .. गोस्वामी तुलसीदास जी धर्म के लिखते हैं- परहित सरिस धरम नहीं भाई पर पीड़ा सम नही अधमाई धर्म के विषय में पद्मपुराण में लिखा है-
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्। आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।। अर्थात् - धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो। जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो, वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये। याद रखिए कि जो परंपराएं, प्रथाएं या कार्य किसी को कष्ट दें, वे धर्म कदापि नहीं है.. बल्कि ऐसे झूठे धर्म तो त्यागने के लिए ही बने हैं- परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ। धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकनिकृष्टमेव च।। (मनुस्मृति) अर्थात- ऐसी संपत्ती तथा मन की अभिलाषा (कामना), जो धर्म के विपरित हो उसका त्याग करना चाहिए। इतना ही नहीं, उस धर्म का भी त्याग करना अनुचित नहीं होगा जो धर्म भविष्य में संकट उत्पन्न कर सकता है तथा जो किसी समाज के प्रतिकुल सिद्ध हो सकता है। आइये, धर्म और पंथ के अंतर को पहचाने और पंथ व मत मतांतर को छोड़कर धर्म की ओर चले ... #सनातन_संस्कृति_संघ