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मायने गणतंत्र के...

25 जनवरी 2017

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हमारी सकारात्मकता ही एक लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रासंगिक बनाती है... इसे अर्थ देती है... इसमें रंगों को भरती है। व्यवस्था को कोसना ही यदि लोकतंत्र के मायने हो जायें तो समझिए हम स्वतंत्र होने के भ्रम में जी रहे हैं और कहीं न कहीं हम पर नकारात्मकता भी हावी है। समाज और व्यवस्था में मौजूद कमियों को, विद्रूपताओं को अपनी विफलता के रूप स्वीकारने का नैतिक साहस नहीं जुटा पाना भी हमारी स्वतंत्रता के दायरे को सीमित करता है। और यह संकुचन इसलिए है क्योंकि हमने स्वतंत्रता के साथ आयी जिम्मेवारियों को नहीं समझा। बेशक, गणतंत्रके बाद दोपहरी का यह संक्रमणकाल है। देश अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अभी एक लिटमस टेस्ट से गुजर रहा है। वक़्त का तक़ाज़ा है कि हम समस्याओं का रोना रोने की बजाय, समाधान की दिशा में आगे बढ़ें। चुनौतियाँ हैं; लेकिन संभावनाओं की भी कमी नहीं है। ज़रूरत है एक ऐसे एहसास की; जिसमें संघर्ष और निर्माण के तत्व हों... अपने सपनों के कोलाज़ को बड़ा करने का सामर्थ्य हो... संवेदनाओं की ऊर्जा से सकारात्मकता को विकसित करने की ललक हो... शायद तभी गणतंत्र के अर्थों को पूर्णता मिलेगी। आशावादी होने में कोई बुराई नहीं क्योंकि सिर्फ़ यही तो शाश्वत है।

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हमारी सकारात्मकता ही एक लोकतांत्रिक और जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को प्रासंगिक बनाती है... इसे अर्थ देती है... इसमें रंगों को भरती है। व्यवस्था को कोसना ही यदि लोकतंत्र के मायने हो जायें तो समझिए हम स्वतंत्र होने के भ्रम में जी रहे हैं और कहीं न कहीं हम पर नकारात्मकता भी हावी है। समाज और व्यवस्था

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बहुत कुछ कह जाता है यह चुनाव परिणाम

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