पाखण्ड शब्द का इतिहास ....
ही पोल खोलता है । ब्राह्मणों के पाखण्डी की..
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जैन परम्पराओं में पाषण्ड शब्द को पासंडिय अथवा पासंडी रूप में उद्धृत किया गया है ।
जैसा कि निम्न प्राकृत भाषा की पक्तियाँ लिपिबद्ध हैं 👇
क्रमांक ३ "समयसार" की गाथा क्रमांक ४०८, ४१० एवं ४१३ में एक शब्द आया है :----👇
‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’।
देखें- ‘‘पासंडिय लिंगाणि य गिहिलिंगाणि य बहुप्प याराणि ।४०८।।
णवि एस मोॅक्खमग्गो पासंडिय
गिहिमयाणि लिंगाणि ४१०।।
पासंडिय लिंगेसु व गिहिलिंगेसु व बहुप्पयारेसु ४१३।।
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उपर्युक्त सन्दर्भों में आचार्य कुन्दकुन्द बताना चाहते हैं
कि ‘बहुत प्रकार के मुनि लिंग एवं गृहस्थलिंग हैं, मात्र इन बाह्य लिंगों (वेषों) को धारण करके अपने आपकों मोक्षमार्गी मानने वाले जीव-मूढ़ व अज्ञानी हैं,
क्योंकि बाह्यलिंग (बाह्य मुनि या श्रावक वेष) का मोक्षमार्ग से सीध कोई सम्बन्ध नहीं है।
इनमें प्रयुक्त ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द को मूल शौरसेनी प्राकृत भाषा के शब्द रूप में मान्य किया है।
इसकी व्याकरण, शाब्दिक प्रकृति एवं व्युत्पत्ति आदि समझे बिना प्राय: सभी आधुनिक सम्पादकों ने इसके स्थान पर ‘पाखडिय’ एवं ‘पाखंडी’ शब्द का प्रयोग कर दिया है।
जो इसका ही इतर रूप है ।
क्यों कि वैदिक भाषाओं में ही "ष" वर्ण का परिवर्तन "ख" वर्ण में देखा जा सकता है।
यद्यपि यह एक अविचारित प्रयोग है कि मूल शब्द पाखण्ड को मानकर पाषण्ड न मानना ।
जिसके लोकरूढ़ अर्थ के कारण इसका अर्थ-विपर्यय भी पर्याप्त मात्रा में हुआ है।
आज लोक में ‘पाखण्डी’ शब्द ‘ढोंगी’ (दम्भी) या ‘नकली’ साधु के अर्थ में रूढ़ हो चुका है।
विश्लेषक:– यादव योगेश कुमार "रोहि"
जिसका श्रेय पुष्य-मित्र सुंग ई० पू० 184 के समकालिक उनके आश्रित पुरोहितों को हैं ।
जो जैन और बौद्ध विचारों के कट्टर विरोधी थे ।
जबकि आज से दो हजार वर्ष पूर्व इसका अर्थ भी अलग था, तथा शौरसेनी प्राकृत में इसका शाब्दिक रूप भी ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ था-
‘पाखण्डी’ कदापि नहीं ।
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इसकी शब्द-परम्परा एवं अर्थ परम्परा का परिचय-निम्नानुसार है-:--👇
१ ‘‘देवानां पिये पियदरसि राजा सव पासंडानि’’ (समस्त मुनिलिंग)
(सम्राट् अशोक के गिरनार शिलालेख के अनुसार) 👇
‘‘तेसु-तेसु निगण्ठेसु नानापासंडेसु’’
(सम्राट् अशोक फिरोजशाह कोटला, दिल्ली में स्थित शिलालेख)
अर्थात् ‘उन-उन निर्ग्रन्थों के विभिन्न मुनिलिंगों में।
२. ‘‘गुणविसेस-कुसलो सब पासंड-पूजको’’
(सम्राट् ऐल खारबेल, खण्डगिरि शिलालेख)
(मैं) सभी (निर्ग्रन्थ-दिगम्बर) मुनिलिंगों की पूजा करता हूँ।
परन्तु कालान्तरण में पाषण्ड शब्द के अर्थ पतन हुए ।
३. ‘पासण्ड, पासण्डिक’- मिथ्यादृष्टि (पालि-हिन्दी कोश, पृ. २२२)
४. पासंड, पासंडत्थ - मिथ्यादर्शन, नास्तिक, दुष्टबुद्धि (अर्द्धमागधी कोश, पृ. ५७४)
५. पासंडि - अट्टविध-कम्मपासातो डीणों पासंडी, पाशाड्डीन: पाषण्डी (निरुक्तकोश, पृष्ठ संख्या २०)
जो अष्टविध कर्मपाश से दूर है, वह पासण्डी (मुनिलिंग) है। ‘पाश’ शब्द से ‘डीन’ प्रत्यय का विधान करके ‘पाषण्डी’ या ‘पासंडी’ शब्द निष्पन्न हुआ है।
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६. पापं खण्डयति-इति पाखण्डी-सत्साधु:।
जो पाप का खण्डन करे, वही ‘पाखण्डी’ है, जिसका अर्थ ‘सच्चा साधु’ है।
७. पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद् यस्यास्त्यमलं भुवि ।
स पाखण्डी वदन्ति एवं कर्मपाशाद् विनिर्गत: ।।
‘पाखण्ड’ नाम व्रत का है; वह निर्मल व्रत इस भूमण्डल पर जिसके है, उसे ही ‘पाखण्डी’ कहते हैं।
वह कर्मबन्धन से विनिर्गत है।
८. सग्रन्थारंभ-👇
हिंसानां, संसारावत्र्तवर्तिनाम् ।
पाखंडिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाखंडिमोहनम् ।।
(रत्नकरण्ड श्रावकाचार, २४)
परन्तु श्रवणों के व्यवहार गत दोषों के कारण इस शब्द का अर्थ पतन भी हुआ।
और खोटेगुरू क पाखण्डी कहा जाने लगा।👇
परिग्रह आरम्भ, हिंसा से युक्त संसार के चक्कर में पड़े हुए पाखंडियों (खोटे गुरुओं) की विनय/सम्मान करना गुरुमूढ़ता जानना चाहिए।👇
ब्राह्मण -वादी विद्वानों के अनुसार पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति नकारात्मक रूप से की गयी
क्यों कि सांसारिक मनुष्य जिससे द्वेष करता है 'वह उसमें गुणों का समावेश होने पर भी , केवल दोष ही देख का है । :----
अत: ब्राह्मणों ने पाखण्ड शब्द की गलत व्युत्पत्ति की👇
९. पातीति पा: (पा क्विप् प्रत्यय), पा: त्रयीधर्मस्तं खण्डयतीति पाखण्डी ।
यदुक्तम् - ‘‘पालनाच्च त्रयीधर्मा: ‘पा’ शब्देन निगद्यते ।
तं खण्डयन्ति ते यस्मात् पाखण्डास्तेन हेतुना ।। (शब्दकल्पद्रुम, भाग ३, पृष्ठ संख्या )
अर्थात् जो त्रयीधर्म (वेदत्रयी) का खण्डन करे, वह ‘पाखंडी’ है।
आपको पता है कि वेदों के हिंसावादी बलिपरक विधानों को महावीर स्वामी और महात्मा बुद्ध ने चुनोैती दी थी ।
अत: सभी ब्राह्मण वादी ग्रन्थों में पाखण्ड शब्द गलत अर्थ में ही प्रयुक्त हुआ है ।👇
१०. नानाव्रताधरा: नानावेशा: पाखण्डिनो मता:- पाषण्ड: - (अमरकोष टीका, भानुदीक्षित)--
अनेक प्रकार के व्रतों के धारक, नानावेशधारी ‘पाखण्डी’ माने गये हैं।
११. वेदादि-शास्त्रं खण्डयतीति पाखण्डी - (पद्मचन्द्रकोश, पृष्ठ-३०९)
श्रमण यतियों के अनेकों पर्यायवाची नामों में ‘पाखण्डी’ नाम भी है।
उक्त समस्त विश्लेषण का समग्रावलोकन करें तो निम्न निष्कर्ष निषेचित होते हैं-:- (क) प्राकृत शिलालेखों एवं ग्रन्थों में ‘पासंडिय’ एवं ‘पासंडी’ शब्द मिलते हैं, जबकि संस्कृत में ‘पाखंडी’ प्रयोग अधिक हुआ है।
(ख) ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ शब्द का मूल अभिप्राय निर्ग्रन्थ दिगम्बर वेशधारी समस्त महाव्रती जैन श्रमणों से है।
इन्हें वैदिकों ने ही प्रमुखत: इसका अर्थ मिथ्यादृष्टि या नास्तिक माना है, क्योंकि निर्ग्रन्थ दिगम्बर जैन साधु-परम्परा इन तीनों को कभी इष्ट नहीं रही।
तथा यह दुष्प्रचार इतना अधिक जोर पकड़ा कि ‘पाखण्डी’ शब्द ढोंगी, कुलिंगी, मिथ्यादृष्टि साधु के अर्थ में लोकजीवन में रूढ़िगत रूप से प्रचलित हो गया।
जैसे कि नग्न , लुञ्चित तथा निर्ग्रन्थ- शब्दों के साथ हुआ
---जो कालान्तरण में ‘नंगा-लुच्चा’ "नाखन्दा " रूप में परिवर्तित हुए ये शब्द प्रारम्भिक रूप में जैनियों के पवित्र विशेषण थे ।
विशेषत: ये
महावीर स्वामी के ही ये विशेषण थे ।
कालान्तरण में इनमें विकृतियाँ भी आयीं
परन्तु वैदिक कर्मकाण्ड के विधायक पुरोहितों ने इनका गलत अर्थ ही किया।
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इसी लिए आज ये शब्द सामाजिक गालीयाँ बन कर गये हैं ।
‘नग्न दिगम्बर, केशलोंच करने वाले’ लुञ्चित - ये कभी पवित्र अर्थों के वाहक शब्द थे ।
किन्तु लोकजीवन में ये अपमानसूचक बन गये हैं।
सायद ये मानवीय सभ्यता के भी विपरीत सिद्ध हुए।
इसलिए इन शब्दों का अर्थ पतन निश्चित था ।
प्राय: संस्कृत-साहित्य एवं कोश-ग्रन्थों में ‘पाखण्डी’ शब्द गलत अर्थों में प्रचलित/व्याख्यायित हो जाने से आचार्य समन्तभद्र ने भी लोकरूढ़ि के अर्थ के अनुसार ‘पाखंडी विनय’ को ‘गुरुमूढ़ता’ कहा है।👇
३. अर्थ चाहे सत्साधु हो या कुसाधु- किन्तु इतना निश्चित है कि कुन्दकुन्द ने "समयसार" ग्रन्थ में उक्त तीनों गाथाओं में इसे मुनियों का पर्याय माना है।
और शास्त्रों में मुनियों के जो अनेकों भेद किये गये हैं, उन्हें वे ‘पासंडिय लिंगाणि’ शब्द से सूचित करना चाहते हैं।
यहाँ ‘मात्र बाह्य नग्नवेष को मुक्तिमार्ग न मानने’ से उनका तात्पर्य मोक्षमार्ग में भावलिंग की प्रधानता सूचित करना है।
साथ ही उक्त विवेचन से यह भी स्पष्ट है ; कि "समयसार" नामक जैन ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत की रचना है;
और प्राकृत भाषाओं में ‘पासंडिय’ या ‘पासंडी’ का प्रयोग तो बनते हैं, किन्तु ‘पाखण्डी’ प्रयोग प्राकृत में कदापि नहीं हो सकता।
‘‘पापं खण्डयतीति पाषण्डी’’ - इस निरुक्ति के अनुसार भी मूल शब्द ‘पाषण्डी’ है; नकि पाखण्डी और चूंकि संस्कृत में मूर्धन्य ‘षकार’ को ‘खकार उच्चारण करने की वैदिकों की परम्परा रही हैं।
अत: संस्कृत में प्रचलित ‘पाखण्डी’ रूप भी मूलरूप नहीं है।
तथा प्राकृत भाषा में तो स,श,ष- इन तीनों के स्थान पर मात्र दन्त्य ‘सकार का ही प्रयोग होता है;
अत: मूलशब्द ‘पाषण्डी’ भी लें, तो उसका प्राकृत रूप ‘पासंडी’ बनेगा, ‘पाखण्डी’ नहीं।
पाषण्ड शब्द लगभग समग्र भारतीय पुराणों में मनु-स्मृति ,महाभारत तथा वाल्मीकि- रामायण में उद्धृत हुआ है ।
यह वैदिक शब्द नहीं है ।
इसलिए यह शब्द ही पुराणों महाभारत व वाल्मीकि रामायण के लेखन की समय-सीमा निर्धारित करता है ।
वह भी बौद्ध-परिव्राजक सम्प्रदाय के लिए पाषण्डः शब्द का प्रयोग ऐैतिहासिक लेखों में दर्ज है ।
अत: पाषण्ड शब्द को उद्धृत करने वाले इन सभी ग्रन्थों का लेखन कार्य पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी रूढ़िवादी ब्राह्मणों द्वारा नये सिरे से पूर्व-दुराग्रह से ग्रसित होकर अनेक परस्पर विरोधी कथाओं
का ध्यान किये विना , शीघ्रता से किया गया है ।
क्यों कि महाभारत पुराणों तथा वाल्मीकि रामायण आदि ग्रन्थ तत्कालीन समाज में प्रचलित मिथकों की किंवदन्तियों के आधार पर पुरोहितों ने अपने हितों को दृष्टि गत करके लिखे ।
इन ग्रन्थों में पाखण्ड शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है , कि ये ग्रन्थ पुष्यमित्र सुंग ई०पू ० 184 के समकालिक लिपिबद्ध रचनाऐं हैं ।
और बहुत सी रचनाऐं तो
ईस्वी सन् 6 वीं शताब्दी की हैं ।
प्राय: सभी की भाषा पाणिनीय व्याकरण संगत है।
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वस्तुत: पाषण्ड शब्द की व्युत्पत्ति- पाष षण्ड के योग से समाक्षर लोप (Haplology) के द्वारा हुई है ।
पाश षण्ड = पाषण्ड शब्द व्युत्पन्न हुआ है ।
महात्मा बुद्ध ने तत्कालीन ब्राह्मण समाज के द्वारा प्रचलित वैदिक- विधानों के उन पाशों का षण्डन (खण्डन) किया ।
जो ब्राह्मण समाज के कुछ तथाकथित चालाक, धूर्त
धर्म-अध्यक्षों द्वारा समाज के अशिक्षित जनता के ऊपर आरोपित कर दिये गये थे ।
पाषण्ड शब्द बुद्ध का प्रथम परिव्राजक सम्प्रदाय (मार्ग) है ।
जिसने समाज में साम्यवादी विचारों का प्रसारण किया, और सम्राट अशोक ने इस बौद्ध-परिव्राजक सम्प्रदाय के लिए संरक्षण के अतिरिक्त अतीव दान भी दिया था
सम्भवत: कालान्तरण में इस सम्प्रदाय में भी कुछ विकृतियाँ भी आयीं , तथा कुछ ब्राह्मण समाज के द्वारा द्वेष वश विरोध भी किया गया ।
अन्तोगत्वा यह शब्द आडम्बर का पर्याय बन गया ।
इतना ही नहीं बुद्ध शब्द को भी बुद्धू बना कर
बुद्ध को समाज में हेय दृष्टि से प्रचलित किया गया ।
बुद्ध शब्द ही बुद्ध - मूर्तीयों की अधिकता के कारण पारसी जगत् मे ब़ुत बन गया --
इस्लाम का आगाज़ ही इस ब़ुत -शिकन सम्प्रदाय के रूप में पश्चिमीय- एशिया में सातवीं सदी के लगभग हुआ..
इसी परिकल्पनाओं में कल्कि- पुराण की रचना हुई ।
क्योंकि मौहम्मद साहब को उनके सागिर्द उन्हें उनकी ख़ुशूसियत (बहुत से गुण) के कारण ख़लीक सलल्लाहु अलैहि वसल्लम के लकब से नवाजते थे ।
महाभारत में भी अन्य पुराणों की तरह कल्कि अवतार का वर्णन है
और वह भी पाखण्डीयों के वध करने वाले के रूप में -
--जो बौद्ध मतावलम्बी पाषण्ड मत के अनुयायीयों का वध करेंगे ।👇महाभारत सभापर्व- अर्घाभिहरण पर्व
कल्की विष्णु यशा नाम भूयश्चोत्पत्स्यते हरि :।
कलेर्युगान्ते सम्प्राप्ते धर्मे शिथिलतां गते।।
पाखण्डिनां गणानां हि वधार्थे भरतर्षभ:।
धर्मस्य च विवृद्धि अर्थ विप्राणां हितकाम्यया ।।
कलियुग के अन्त में जब धर्म शिथिल हो जाएगा ।उस समय भगवान् विष्णु पाखण्डीयों के वध और धर्म की वृद्धि के लिए ब्राह्मणों के हित की कामना से पुन: कल्कि अवतार लेंगे ।
कल्कि शब्द ख़लीक :---(बहुत से अख़लाक वाला )
शब्द के आधार पर व्युत्पन्न किया गया ।
पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मण ग्रन्थों में पाषण्ड शब्द की एक नहीं अपितु अनेक काल्पनिक व्युत्पत्तियाँ बौद्ध मत को लक्ष्य करके की गयी है 👇
जैसे पाषण्डः पुं० (पापं सनोति दर्शनसंसर्गादिना ददातीति ।
षणु ञ दाने ञमन्तात् डः ।
पृषोदरादित्वात् साधुः ।
यद्वा, पाति रक्षति दुष्कृतेभ्य इति ।
पा क्विप् = पा वेदधर्म्मस्तं षण्डयति खण्डयतीति पाषण्डः।
यदुक्तम् “पालनाच्च त्रयीधर्म्मः पाशब्देन निगद्यते ।
तं ष(ख)ण्डयन्ति ते यस्मात् पाषण्डास्तेन हेतुना ॥ नानाव्रतधरा नानावेशाः पाषण्डिनो मताः ”) वेदविरुद्धाचारवान् सर्व्ववर्णचिह्नधारी ।
बौद्ध क्षपणकादिः ।
इति भरतः ॥
तत्पर्य्यायः । सर्व्वलिङ्गी २ । इत्यमरःकोश । २ । ७ । ४५ ॥ कौलिकः ३ पाषण्डिकः ४ । इति शब्दत्नावली ॥
पाषण्डादिसम्भाषणे दोषो यथा, -- “तस्मात पाषण्डिभिः पापैरालापं स्पर्शनं त्यजेत् ।
विशेषतः क्रियाकाले यज्ञादौ चापि दीक्षितः ॥
क्रियाहानिर्गृहे यस्य मासमेकं प्रजायते ।
तस्यावलोकनात् सूर्य्यं पश्येत मतिमान् नरः ॥
किं पुनर्य्यैस्तु सन्त्यक्ता त्रयी सर्व्वात्मना द्विज !
पाषण्डभोजिभिः पापैर्व्वेदवादविरोधिभिः ॥
पाषण्डिनो विकर्म्मस्थान् वैडालव्रतिकान् शठान् ।
हैतुकान् वकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्च्चयेत् ॥
दूरापास्तस्तु संसर्गः सहास्या वापि पापिभिः ।
पाषण्डिभिर्दुराचारैस्तस्मात्तान् परिवर्ज्जयेत् ॥
एते नग्नास्तवाख्याता दृष्ट्या श्राद्धोपघातकाः ।
येषां सम्भाषणात् पुंसां दिनपुण्यं प्रणश्यति ॥
एते पाषण्डिनामानो ह्येतान्न आलपेद्बुधः ।
पुण्यं नश्यति सम्भाषादेतेषां तद्दिनोद्भवम् ॥
पुंसां जटाधरणमौण्ड्यवतां वृथैव
मोघाशिनामखिलशौचनिराकृतानाम् ।
तोयप्रदानपितृपिण्डबहिष्कृतानां सम्भाषणादपि नरा नरकं प्रयान्ति ॥
इति विष्णुपुराणे ३ अंशे १८ अध्यायः ॥
पाषण्डादीनां लक्षणं यथा, --
“भ्रष्टः स्वधर्म्मात् पाषण्डो विकर्म्मस्थो निषिद्धकृत् ।
यस्य धर्म्मध्वजो नित्यं सुरध्वज इवोत्थितः ॥
प्रच्छन्नानि च पापानि वैडालं नाम तद्व्रतम् ॥
तद्वान् वैडालव्रतिकः ॥
प्रियं व्यक्ति पुरोऽन्यत्र विप्रियं कुरुते भृशम् । व्यक्तापराधचेष्टश्च शठोऽयं कथितो बुधैः ॥ सन्देहकृद्धेतुभिर्यः सत्कर्म्मसु सहैतुकः । अर्व्वाग्दृष्टिर्नैकृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः ॥
शठो मिथ्याविनीतश्च वकवृत्तिरुदाहृतः ”
इति । एतट्टीकायां स्वामी ॥
अपि च ।
सदाशिव उवाच ।
“येऽन्यदेवं परत्वेन वदन्त्यज्ञानमोहिताः । नारायणाज्जगद्बन्द्यं ते वै पाषण्डिनस्तथा ॥
कपालभस्मास्थिधरा ये ह्यवैदिकलिङ्गिनः ।
ऋते वनस्थाश्रमाश्च जटावल्कलधारिणः ।
अवैदिकक्रियोपेतास्ते वै पाषण्डिनस्तथा ॥
शङ्खचक्रोर्द्ध्वपुण्ड्रादिचिह्नैः प्रियतमैर्हरेः ।
कामं क्रोधञ्च लोभञ्च मोहञ्च मदमत्सरौ ॥”
इति पाद्मे क्रियायोगसारे १६ अध्यायः ॥
तस्य राष्ट्राद्बहिष्कर्त्तव्यता यथा, --
“कितवान् कुशीलवान् क्रूरान् पाषण्डस्थांश्च मानवान् । विकर्म्मस्थान् शौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्व्वासयेत् पुरात् ॥
एते राष्ट्रे वर्त्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः ।
विकर्म्मक्रियया नित्यं वाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः”
इति मानवे ९ अध्यायः ॥ अपि च ।
“आक्रुद्धांश्च तथा लुब्धान् दृष्टार्थातत्त्वभाषिणः । पाषण्डिनस्तापसादीन् परराष्ट्रेषु योजयेत्”
इति युक्तिकल्पतरुः ॥
अमरकोशः
पाषण्ड प०ुं।
दुःशास्त्रवर्तिः
समानार्थक:पाषण्ड,सर्वलिङ्गिन्
2।7।45।1।4
पवित्रः प्रयतः पूतः पाषण्डाः सर्वलिङ्गिनः।
पालाशो दण्ड आषाढो व्रते राम्भस्तु वैणवः॥
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः
वाचस्पत्यम्
'''पाषण्ड त्रयी धर्मा: पाति रक्षति दुरितेभ्यः
पा- क्विप् पाः वेदधर्मस्तं षण्डयति निष्फलं करोति।
“पालनाच्च त्रयी-धर्मः पाशब्देन निगद्यते।
पा षण्डयन्ति तु तं यस्मात् पा-षण्डस्तेन कीर्त्तित”
इत्युक्ते वेदाचारत्यागिनि अमरःण्वुल्।
पाषण्डक तत्रार्थे त्रि॰।
शब्दसागरः
पाषण्ड m. (-ण्डः)
1. A heretic, an impostor, one who not conforming to the orthodox tenets of Hind4u faith, assumes the external characteristics of tribe or sect, a Jain, a Baudd'ha &c.
2. Any sect not Hind4u. E. पाप sin, षण् to give, ड aff., deriv. irr.
Apte
पाषण्ड [pāṣaṇḍa], a. Impious, heretical. -ण्डः A heretic, an unbeliver, a hypocrite; पाषण्डमाश्रितानां......... योषिताम् (निवर्तेतोदकक्रिया) Ms.5.9;9.225; पाषण्डसङ्घद्रव्यमश्रोत्रिय- भोग्यम्;......चिकित्सकवाग्जीवनपाषण्डछद्मभिर्वा...... Kau. A.1.15.-ण्डः, -ण्डम् Heresy; also पाषाण्ड्यम्.
Monier-Williams
पाषण्ड mf( ई)n. (wrongly spelt पाखण्ड)heretical , impious MBh. Pur.
पाषण्ड m. a heretic , hypocrite , impostor , any one who falsely assumes the characteristics of an orthodox Hindu , a जैन, Buddhist ib. etc.
पाषण्ड m. or n. false doctrine , heresy Mn. BhP.
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प्रस्तुति-कर्ता एवम् विचार-विश्लेषक :-----
यादव योगेश कुमार "रोहि"
ग्राम - आजा़दपुर पत्रालय -पहाड़ीपुर
जनपद- अलीगढ़---के सौजन्य से सम्पर्क-सूत्र -8077160219