पेंसिल सी होती जिंदगी...
बिना नोक के समतल सी ,
फिर नोक धीरे धीरे बनाई जाती...
जिंदगी में भी उसी तरह उम्मीद जगाई जाती ,
घिसते घिसते नोक फिर से अपनी धार खो देती...
उसी तरह जिंदगी में भी यही घिसर चलती रहती ,
जैसे ही नोक फिर से बनाई जाती लिखावट फिर से खूबसूरत हो आती...
वैसे ही जिंदगी में भी हर खुशी और प्यारा लम्हा जिंदगी फिर से निखार देता ,
धीरे धीरे पेंसिल का आकार हाथ मे न आताऔर उसका महत्व कम होता जाता...
वही हाल जिंदगी के आखिरी पल में साँसों के छूटने का डर बना रहता ,
एक दिन दोनो की पकड़ छूट जाती और पेन्सिल सी जिंदगी अलविदा कह जाती ।।
©नेहाभारद्वाज