स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलारन और सलोने आते हैं)
सलारन : अजी मैंने स्वयं बसन्त को जहाज पर जाते देखा; उन्हीं के साथ गिरीश भी गया है, पर मुझे विश्वास है कि उस जहाज में लवंग कदापि नहीं है।
सलोने : उस दुष्ट जैन ने वह आपत्ति मचायी कि महाराज को स्वयं बसन्त के जहाज की तलाशी लेने के लिये जाना पड़ा।
सलारन : हाँ, परन्तु वह देर करके पहुँचे, उस समय जहाज जा चुका था और वहाँ महाराज को समाचार मिला कि लवंग अपनी वल्लभा जसोदा के सहित एक छोटी सी नाव में जाता दृष्टि पड़ा था। इसके सिवाय अनन्त ने महाराज को अपने भरोसे पर इस बात का विश्वास कराया कि वह दोनों बसन्त के जहाज पर नहीं हैं।
सलोने : मैंने तो आज तक घबराहट और झँुझलाहट के ऐसे बेजोड़ और विचित्र वाक्य न सुने थे जैसे कि वह जैनी कुत्ता सड़क पर बक रहा था-मेरी बेटी!-हाय मेरी अशरफियाँ!-हाय मेरी बेटी!-हाय!-एक आर्य के साथ भाग गई!-हाय मेरी आर्य आशरफियाँ!-न्याय कानून! मेरी अशरफियाँ और मेरी बेटी! एक सरबमुहर तोड़ा, दो सरबमुहर तोड़े अशरफियों के, कलदार अशरफियों के, मेरी बेटी चुरा ले गई!-और रत्न; दो नगीने, दो अमूल्य, अलम्भ्य, नगीने, जिन्हें मेरी बेटी चुरा ले गई!-न्याय! लड़की का पता लगाओ! उसी के पास अशरफियाँ और पत्थर हैं।'
सलारन : अजी वंशनगर के सारे लड़के उसके पीछे दौड़ते हैं और हल्ला मचा कर चिढ़ाते हैं-इसके पत्थर, इसकी लड़की और इसकी अशरफियाँ।
सलोने : अनन्त महाशय को चाहिए कि उससे सावधान रहें और ठीक समय पर ऋण चुका दें नहीं तो पीछे से पछताना पड़ेगा।
सलारन : तुमने अच्छा स्मरण दिलाया, कल मैं एक फनेशवासी से बातचीत कर रहा था कि उसने वर्णन किया कि उस छोटे समुद्र में जो फनेश और अंगदेश को जुदा करता है तुम्हारे देश का एक अमूल्य धन से लदा हुआ जहाज डूब गया है। मुझे इस समाचार के सुनते ही अनन्त के जहाज का ध्यान आया और मन में ईश्वर से प्रार्थना करने लगा कि वह उनका जहाज न हो।
सलोने : पर तुमको यही उचित है कि जो कुछ सुनो अनन्त के कान तक पहुँचा दो, किन्तु अकस्मात् मत कह देना क्योंकि इसमें कदाचित उन्हें अधिक सोच हो।
सलारन : मुझे तो उनसे बढ़कर दयावन्त मनुष्य सारे संसार में दृष्टि नहीं आता। मैं बसन्त और अनन्त के जुदा होने के समय उपस्थित था। बसन्त ने उनसे कहा कि मैं जहाँ तक सम्भव होगा शीघ्र लौट आऊँगा जिस पर उन्होंने उत्तर दिया-"बसन्त मेरे लिये काम में कदापि शीघ्रता न करना वरंच उचित अवसर के अधीन रहना और उस दस्तावेज के विषय में जो मैंने जैन को लिख दी है कभी अपने जी में ध्यान न करना। प्रति क्षण प्रसन्न रहना और अपने चित्त का प्राणप्रिया की प्रसन्नता और प्रेम के सूचित करने में आसक्त रखना जो तुम्हारे मनोरथ के लिये उपयुक्त हों।" परन्तु अन्त को उनकी आँखों मे आसू ऐसे डबडबा आए कि और कुछ न कह सके औरं अपना मुँह फेर कर बसन्त की ओर हाथ बढ़ाया और एक अद्भुत अनुराग सहित जिससे सच्ची प्रीति टपकती थी उनसे हाथ मिला कर विदा हुए।
सलोने : मैं समझता हूँ कि वह संसार को वसन्त ही के लिये चाहते हैं। चलो उन्हें खोज करके मिलें और उनके जी की उदासी को किसी शुभ समाचार से दूर करें।
सलारन : चलो। (जाते हैं)