आदि प्रेम की मैं ज्वाला,
उतरी गाती यों प्रात-किरण,
जो प्रेमी हो, आगे बढ़,
मुझ अनल-विशिख का करे वरण ।
कहती गन्ध, साँस से जिसकी,
सुरभित हैं अग-जग, त्रिभुवन,
वृन्तहीन उस आदि पुष्प का,
मैं आई बन आमंत्रण ।
छायातरु कहते कि प्रेम की
हम आशा कहलाते हैं,
थके प्रेमियों पर हिल-डुल हम
शीतलता बरसाते हैं ।
चलना ही चलना केवल क्या,
सुन लो कुछ जब-तब रुक कर ।
निर्झरिणी कहती कि देख लो,
अपने को मुझमें झुककर ।
हम सवाक् आनन्द प्रेम के,
और अधिक हम क्या बोलें?
गीत-विहग कहते कि भेद,
इससे आगे कैसे खोलें?
(1949 ई.)