बहुत दूर चली गई थी तुम !
और मैं तुम्हें आवाज़ तक नहीं दे सका
इतनी अनजान भी न थीं और फिर भी
न तुम कुछ कह पाई न मैं कुछ बोल पाया !
बहुत दूर चली गई थी तुम !
पतझड़ का मौसम भी आ गया फिर से एकबार
तुम्हें याद होगा जब तुम छोड़कर गयी थी तब भी
पतझड़ का ही मौसम था और मैं अकेला सा ... !
बहुत दूर चली गई थी तुम !
कंपते हाथों से उसी पेड़ को छूकर खुरदुरे अहसास को
जिंदा रखने के लिए हथेलियों को घीस रहा था
तुम चली गयी और मैं वहीं का वहीं पत्थर सा पड़ा हुआ
बहुत दूर चली गई थी तुम !
तुम क्यूं चली गयी थी मुझे छोड़कर ये भी समझ न सका
अहल्या का रूप लेकर इंतज़ार करता रहा तुम्हारा !
और न जाने आज मिल भी गयी तो मौन के ताले जड़े है
बहुत दूर चली गई थी तुम !
धड़कनें भी रुक रुककर चल रही है जैसे थकी-हारी हुई
मेरे जिस्म का बोज उठा रही है, न ताल है न उमंग है
उदासी ने डेरा डाला है मगर आज तुम लौट आई हो यहाँ !
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पंकज त्रिवेदी
7 April 2017