निश्चिन्त चारुजल ताल-तीर
है खड़ा एक बरगद गम्भीर,
पत्ते-पत्ते में सघन, श्यामद्युति हरियाली ।
डोलता दिवस भर छवि बिखेर,
जब निश आती, झूमता पेड़,
गुंजित विहंग-कलकूजन से डाली-डाली ।
भीतर-भीतर मृत्तिका फोड़
वट फैल गया है सभी ओर
पाताल-लोक तक अपनी राह बनाकर ।
कर अध:ऊर्ध्व सम्यक् प्रसार
है तोल रहा तरु महाकार
फुनगी-तरंग पर सारा व्योम उठा कर ।
वल्लियों-बरोहों ने मिल कर
रच दिया स्निग्ध, शीतल, सुन्दर
ममता का घन छाया-वितान निर्जन में ।
आकर्षपूर्ण इंगित, छवि का,
कवि आए, जा पहुंची कविता,
बंध गए यहाँ दोनों परिणय-बंधन में ।
बजते अदृश्य शत वाद्य-यन्त्र,
गूँजता मन्द, मृदु मोह-मन्त्र
डोलता मुग्धमन वक्रश्रृंग मृग मद में ।
आता भुजंग होकर विभोर,
आनन्द-मग्न मणिकंठ मोर
नाचते ठुमक इस शीतल छाँह सुखद में ।
ऊपर से आती गंग-धार-
को शिव ने निज कुंतल पसार
था डाल दिया नीचे भू के प्रांगण में ।
पर, वट ने निज आदर्श पाल,
धरती की गंगा को उछाल
है चढ़ा रखा ऊपर हिमलोक, गगन में ।
उमड़ेगा महाप्रलय का जल,
डूबेगी जब यह सृष्टि सकल,
ऊपर-नीचे जल ही जल दीख पड़ेगा ।
तब भी अमग्न यह वट अक्षय,
योगीन्द्र-सदृश निष्कम्प, अभय ।
हो खड़ा प्रलय-वर्षण मेँ स्नान करेगा ।
(मूल गुजराती कवि: श्री बालकृष्ण दवे)