नीर भरे नयनों का प्याला, रुधी ज़बान, पैरों में छाला,
अपलक देख रही क्रासिंग पे,
कोई सेठ, कोई ठेठ, कोई बनता हुआ दिवाला,
क्या आज मिल सकेगा मुझे पेट भर निवाला?
एक आम आदमी का आम सच, सोच रही,
सुस्त सी, कुछ पस्त सी, सिसकी लिए सकुचा रही,
इक दबी आवाज़ में, अपनी दुआ का मोल मांग रही....
अनायास पड़ी जो दृष्टि मेरी, उस भाव-शून्य बाला पर,
पशोपेश में फूट पड़ा, मन में इक जलता लावा,
देकर उसे रुपैय्या, कहीं मैं,
दे तो नहीं रहा, भिक्षावृत्ति को बढ़ावा?
आखिर हैं हम पढ़े-लिखे, सम्भ्रान्त, सामाजिक, संस्कारी,
हर पाप-बुराई को दूर करने की, हम पर है नैतिक जिम्मेवारी.....
पर हार गई यह क्षणिक सोच, जीती मन की समझदारी,
सहसा बढ़ गया मेरा कर, लिए पांच रुपये की रेज़गारी.......
कुछ आत्मिक शांति से मुदित हुई, आपाधापी से मेरी काया,
मानों, सजल कातर दृग से मिल गया हो,
परमात्मा की अदृश्य छाया.....
हजारों बातें घूम रहीं, कुछ अपूर्ण कहानी बुन रहीं,
सहसा समक्ष आँखों के, अंधियारा गहराया,
दुर्घटना का ग्रास बना, लहू-स्रोत से सना,
किंकर्तव्यविमूढ सा पड़ा रहा,
देख परमात्मा की अबूझ माया....
अवचेतन खोया हुआ, जो मैंने अपना पाया,
तीन महीनों के लिए, स्वयं चिकित्सालय में समाया....
ठीक होने पर, जीवन-भर के लिए, अपना इक पैर गंवाया,
जान बची, जो हुआ-ठीक हुआ, इन बातों ने भरमाया.....
इक नया जीवन पुनः जीने को, मन को ढाढस बंधाया.....
फिर वही दुनिया, वही लोग, वही आपाधापी,
खुश रहने की जद्दोजहद में, बन गया औरों की कॉपी...
उधेड़बुन में ज्यों गुज़रा आज, उसी मुए क्रासिंग से,
आँखें फटीं, मन छितर गया,
मानों, किसी ने मार दिया हो, बॉक्सिंग से.....
चुस्त सी, कुछ लयबद्ध, आवाज़ लिए चिल्ला रही,
जोर-जबरदस्ती से दबंग की भांति,
सबसे पांच रुपैया मांग रही,
एक रुपैया मिला मिला अगर जो,
कुढ़-कुढ़ कर संभाल रही..........
चबर-चबर चबा रही, ज़बान में मसाला,
फटे गले से गा रही, पहन गालियों की माला,
अपलक देख रही क्रासिंग पे,
कोई सेठ, कोई ठेठ, कोई बनता हुआ दिवाला,
उसी ताम-झाम से बढ़ी, मेरी ओर,
रुपैये का बोल निकाला,
इस बार मैंने, मन के सैलाब को संभाला,
बैसाखी लिए, झिड़क, कुछ बिगड़ कर,
ज्यों आगे कदम बढ़ाया,
मान-अपमान का घूंट पिला,
कह कंगाल, लंगड़ा, साला,
भाग पड़ी, लिए डेग बड़ी,
वह,
क्रासिंग की परिचित बाला !!!