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दबे पाँव (अध्याय 11)

16 मई 2022

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं।

जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग में पहुँच जाते हैं तब रोज-गुरायँ तो इनके साथ हिल-मिलकर चरने लगते हैं। रोज-गुरायँ मनुष्य से, अन्य जानवरों की अपेक्षा, कम छड़कता है। वह जंगल के भीतर नहीं रहता। प्रायः जंगल के प्रवेश के निकट ही मिल जाता है। इनके झुंड के झुंड होते हैं। मैंने पचास-पचास तक के झुंड देखे हैं। इनका नर जब पूरा बढ़ जाता है तब उसका रंग नीला हो जाता है। गले में घंटियाँ सी और पूँछ छोटी। सींग भी बड़े नहीं होते। यह बड़ा मजबूत होता है और दौड़ाने में बहुत तेज। कोई-कोई इसके बच्चों को पालते हैं और सवारी का काम लेते हैं - गाड़ी में जोतकर।

परंतु नाले और खाई-खड्डों को देखते ही उसको अपने पुरखों की याद आ जाती है और फिर यह नाथ, डोर, रस्सी हाँकने वाले और गाड़ी सवारी किसी की परवाह नहीं करता। बेभाव छलाँग मारता है। चाहे गाड़ी में बैठनेवाला बचे या मरे, इसकी कोई चिंता इसको नहीं रहती।

झाँसी के एक गुसाईंजी ने रोज के बच्चों की जोड़ी पाली और बड़े होने पर उनको गाड़ी में जोता। जब तक वे सीधे रास्तों पर चलाए गए तब तक उन्होंने अपनी तेज दौड़ से सबको संतोष दिया; परंतु एक दिन जब देहाती मार्ग में एक नाला और बगल में खड्ड मिला तब उनको अपनेपन की याद आ गई। विकट छलाँग भरी। गाड़ी लौट गई। गाड़ीवान घायल हो गया और गुसाईंजी को प्राणों से ही हाथ धोने पड़े।

जब तक इसके जोड़, सिर या गरदन पर गोली नहीं पड़ती तब तक घायल होने पर भी यह हाथ नहीं आता।

इस पशु में एक विलक्षणता है। यह मौका पाकर दिन में भी खेतों में घुस आता है और रात तो इन सब जानवरों की है ही।

झुंड में नर होते हुए भी अग्रणी साधारण तौर पर मादा होती है। बहुत सावधान और बड़ी तेज।

रोज-गुरायँ के चमड़े को गाँववाले परहे बनाने के काम में लाते हैं।

साँभर खुरीवाले जंगली जानवरों में सबसे अधिक सावधान है। जरा सा खुटका पाते ही ठौर छोड़कर भागता है। यह प्रायः दस-दस पंद्रह-पद्रह के झुंड में रहता है; परंतु नर अकेला भी पाया जाता है। यह जंगल के अत्यंत बीहड़ और छिपे हुए स्थानों को ढूँढ़ता है। अधिकतर लंबी घासवाले नालों और घनी झोरों में रहता है।

सिर और गरदन को खुजलाने के लिए इसको जहाँ सलैया के पेड़ मिल जाते हैं, वहाँ अधिक ठहरता है। सलैया की गोंद की सुगंधि इसके लंब फंसोंवाले सींगों की रगड़ से आस पास के वातावरण को महका देती है।

साँभर खेतों पर आधी राते के पहले बहुत कम आता है। जब आता है, बहुत धीरे-धीरे बहुत चुपके-चुपके। यह बड़ी-बड़ी बिरवाइयों को कूद-फाँद जाता है। शरीर के लंबे बालों के कारण, सुअर की तरह, इसको भी काँटों की परवाह नहीं होती। प्रायः कँटीली बिरवाइयों में इसके टूटे हुए बाल चिपके मिलते हैं। इसके खुर लंबे होते हैं और पैर बहुत लचीले। सहज ही पहाड़ों पर चढ़ जाता है।

इसका अगला धड़ बड़ा, पिछला हलका, पूँछ छोटी और आवाज रेंक सी तीखी, मोटी और ठपदार होती है। कान घंटे की तरह गोल और बड़े। ये इतने बड़े तेज होते हैं कि ढुकाई का शिकार तो इनका बहुत ही श्रमसाध्य और कठिन है।

साँभर में सूँघने की शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह तीस-चालीस गज से असाधारण गंध को पाकर तुरंत मुरककर चला जाता है।

होली की छुट्टियों में भरतपुरा गया। दुर्जन ने संध्या के पहले ही नदी के एक टापू पर एक बड़े साँभर के चिह्नों का पता दिया। कठजामुन के काफी झुरमुट उन चिह्नों के पास थे। मैं दुर्जन के पास एक झुरमुट में सूर्यास्त के पहले जा बैठा। दिन में भरतपुरावाले मेरे मित्र ने जंगल में केसर-चंदन और इत्र-पान से होली मनाई थी। खस के इत्र का उनको बहुत शौक था। उन्होंने मेरे कपड़ों में पोत दिया। उन्हीं कपड़ों को पहने मैं कठजामुन के झुरमुट में दुर्जन के साथ बैठा था।

लगभग आठ बजे साँभर आहट लेता हुआ धीरे-धीरे मेरे स्थान की ओर आया। जब पच्चीस-तीस गज की दूरी पर आ गया होगा, उसने नथने फुफकारे। खस की गंध ने उसको अपने शत्रु की उपस्थिति बतला दी। उसने जोर के साथ अपनी बोली में आश्चर्य या भय प्रकट किया और भाग गया।

दुर्जन उस समय पैर लंबे किए बैठा-बैठा सो रहा था। जैसे ही साँभर ने आवाज लगाई, दुर्जन चौंक पड़ा। उसके पैर उठ गए और मेरी कनपटी से जा टकराए। मुझको बहुत हँसी आई। मैंने कहा, 'दुर्जन, तुम्हारी नींद के खुर्राट ने साँभर को भगा दिया।'

दुर्जन बहुत सहमा; परंतु थोड़ी ही देर में बोला, 'बाबू साब, काए खों लच्छिन लगाउत! तुमार अतर ने भगाओ साँभर खो।'

यह अगोट पर या हँकाई में सहज ही हाथ चढ़ जाता है। इसकी खाल पकाई जाने पर बहुत मुलायम और लोचदार होती है। जूते, टाँगों के टोकरे, दस्ताने, बास्कट इत्यादि बनाए जाते हैं। परंतु पानी में इसका चमड़ा लीचड़ हो जाता है। साँभर कठोर ठंड में भी रात को डुबकियाँ लगाता है; ठंडे कीचड़ में लोट लगाता है। यह जंगल से निकलकर नदी की पूरी धार को पार करके खेतों में पहुँच जात है। लौट आता है और जानवरों से दो घंटे पहले। चार बजे के बाद फिर यह खेतों में नहीं ठहरता।

जब सरूर पर होता है, तब एक नर दूसरे से बेतरह सींग खटखटाता है। यह लड़ाई मादा के पीछे या झुंड का अगुआ बनने की प्रतिद्वंदिवता में होती है। कभी कभी इतनी खटाखट होती है कि आस पास का जंगल गूँज उठता है।

साँभर पानी पीने के लिए सुनसान जंगल में दिन में ही बाहर निकल पड़ता है। वैसे इनका पानी पीने का समय संध्या के उपरांत जररा रात बीते है।

एक दिन गरमियों में मैं नदी के किनारे एक-दूसरे गड्ढे में दो-तीन घंटे दिन जा बैठा। 'गढ़ कुंडार' पूरा नहीं हो पाया था। झाँसी में बहुत कम समय मिलता था। छुट्टियों में शिकार के लिए जंगल की राह पकड़ लेता था; परंतु लिखने की सामाग्री साथ ले जाता था। उस दिन गड्ढे में पड़ा 'गढ़ कुंडार' लिख रहा था; क्योंकि सूर्यास्त के लिए काफी समय था। साथ में करामत था। मैंने उसको आहट लेते रहने के लिए कह दिया था।

सूर्यास्त होने को आ रहा था। मैं अपनी धुन में मस्त था। करामत आहट लेते-लेते और जानवरों की बाट जोहते-जोहते अलसा उठा था कि साँभरों का एक झुंड गड्ढे से पद्रंह-बीस डग की दूरी पर आया। करामत ने मुझको संकेत किया। मैंने उनको देखा। वे सब एक ही स्थान पर पानी पीने के लिए परस्पर कुश्तम-कुश्ता कर रहे थे। करामत ने बंदूक चलाने के लिए इशारा किया। साँभर मुझको इतने मोहक लग रहे थे कि मैं बंदूक न चला सका। इनकार कर दिया। जब साँभर पानी पीकर वहाँ से धीरे-धीरे चल दिए तब मैं अपनी निष्क्रियता पर थोड़ा पछताया।

साँभर जब जंगल के सुनसान को चीरता हुआ बोलता है तब जंगल की महिमा पर मुहर सी लगती है।

साँभर से बारहसिंगा छोटा होता है। उसके सींग साँभर के सींगों से भी अधिक सुंदर होते हैं। सिर पर सींगों का झाड़-सा जान पड़ता है। मंडला जिले के कान्हाकिसली नामक जंगल का मैंने थोड़ा सा भ्रमण किया है। कान्हाकिसली जंगल में शिकार खेलने की अनुमति नहीं मिलती। मुझको इस जंगल में शिकार नहीं खेलना था, खेल ही नहीं सकता था। परंतु उसकी बड़ाई बहुत सुनी थी, इसलिए कुछ मित्रों के साथ भ्रमण के लिए गया था।

हम लोगों के पहुँचने के पूर्व हॉलैंड की एक कंपनी जंगली जानवरों का चित्रपट बनाने के लिए अपनी मशीनों के साथ काफी समय तक ठहरी रही थी।

हम लोगों ने साज, सरही और सागौन के विशाल समूह तो उस जंगल में देखे ही, विंध्याचल-सतपुड़ा की विकट सम-विषम ऊँचाइयों को देखकर श्रद्धा में डूब जाना पड़ा था। और जिस मार्ग पर जाएँ उसी पर शेरों, जंगली भैसों इत्यादि के पदचिह्न दिखलाई पड़े।

उस जंगल में एक पथरीली ऊँचाई का नाम है श्रवण पहाड़ी। वही श्रवण, जिसकी कथा पुराण में प्रसिद्ध है, जिसको दशरथ ने भ्रमवश अपने बाण से वेध डाला था और इस अनजाने किए हुए पाप के बदले में भयंकर शाप पाया था। उस श्रवण पहाड़ी के नीचे एक पुराना तालाब था। लोगों ने एक लोक परंपरा बतलाई - उसी श्रवण की यह पहाड़ी है और इसी तालाब के किनारे राजा दशरथ ने अपने तीर से श्रवण का प्राण ले डाला था।

हम लोग तालाब के बंध पर चढ़े। उसमें पानी बिलकुल न था; पर पेडों की छाया में बारहसिंगों का बड़ा भारी झुंड बैठा था। उस जंगल में बंदूक न चलने के कारण और मनुष्यों के अल्प विचरण के कारण जानवर निर्बाध रहते तथा घूमते हैं। हम लोग तालाब के बंध पर कई क्षण खड़े रहे, परंतु बारहसिंगे विचलित नहीं हुए। हम लोगों ने आपस में बातचीत शुरू की तब वे दो-दो, चार-चार करके खड़े हुए। मैंने उनको गिनने की चेष्टा की- एक सौ अठ्ठारह से अधिक थे।

अब यह जानवर अन्य जंगलों में बहुत कम हो गया है।

होशंगाबदा के बाहर इटारसी सड़क पर एक पहाड़ी है। इसकी भीमकाय चट्टानों के भीतरी भाग पर कुछ प्राचीन चित्र हैं। उनमें एक जाति के जानवर का भी अंकन है, जो बारहसिंगा से कहीं बड़ा, परंतु मिलता-जुलता है। अब यह जानवर भारतवर्ष भर में कहीं भी नहीं है।

बारहसिंगा जंगल का सौंदर्य है। इसको बिलकुल न मारा जाए तो शायद कोई हानि नहीं; क्योंकि यह खेती के पासवाले जंगलों में नहीं पाया जाता।

दूसरे जानवर जो खेती को कम नुकसान पहुँचाते सुने गए हैं। चौसिंगा वन बेड़ और कोटरी है।

चौसिंगा कुछ बड़ा होता है और कोटरी एवं वन भेड़ लगभग एक ही डील-डौल के होते हैं। चौसिंगा के माथे के पिछले तथा अगले भाग पर दो-दो सींग होते हैं। पिछले भाग पर जरा लंबे और अगले भाग पर कुछ छोटे। रंग गहरा खरा। वन भेड़ इससे मिलती-जुलती है। इन दोनों की रक्षा इनकी फुरती और सावधानी में है। चिंकारे की तरह ये भी जरा से खुटके पर कूदते-फाँदते नजर आते हैं। जरा चूके कि गए।

कोटरी विलक्षण प्रकार का दबा हुआ कूका लगाती है। विंध्यखंड के जंगलों में काफी संख्या में पाई जाती है। जोड़ी के सिवाय इसके झुंड बहुत कम देखे गए हैं। घने-बेगरे दोनों प्रकार के जंगलों में पाई जाती है। कहते हैं, यह शेर के आगे-आगे चलती है। असल बात यह है कि शेर के निकल पड़ने पर जंगल में भगदड़ मच जाती है। जब कोटरी भयभीत होकर बोलती है तब लोग समझते हैं कि वह जंगल को शेर के आगमन की सूचना दे रही है।



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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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