एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर इसको जंगलों से निकला बाहर कर दिया है।
ग्वालियर नरेश महाराज माधवराव ने अफ्रीका की नस्ल के कुछ सिंह शावक शिवपुरी के पास के जंगलों में छुड़वाए थे। वे बढ़े और उनकी कुछ संतानें शिवपुरी के आस पास के जंगलों में अभी भी हैं।
सिंह का अगला भाग भारी होता है। मुँह चौड़ा-चकला और खोपड़ा बड़ा। गरदन पर अयाल होने के कारण यह विशाल और भयानक प्रतीत होता है; परंतु वास्तव में धारीदार नाहर के बराबर बलवान, प्रचंड या पाजी नहीं होता। इसका शिकार धारीदार नाहर के जैसा ही खेला जाता है; परंतु मुझको एक भी नहीं मिला, इसलिए मेरा निजी अनुभव इसके विषय में बिलकुल नहीं है।
ग्वालियर राज्य के जंगल झाँसी जिले से लगे हुए हैं, इसलिए जानवरों का वहाँ से आना-जाना यहाँ बना रहता है। लगभग बाईस साल हुए, जब ग्वालियर के जंगलों से एक मनुष्यभक्षी सिंह झाँसी के जंगलों में आ धमका पहले तो ललितपुर तहसील के बाँसी नामक ग्राम के आस पास तहलका मचाता रहा। दूर-दूर से कुछ अँगरेज शिकारी उसकी टोह में आए; परंतु वह इतना चालाक था कि किसी की भी अंटी पर न चढ़ा। मैंने उन शिकारियों की असफलता का वर्णन एक अँगरेजी पुस्तक में पढ़ा है। बाँसी से टलकर यह मनुष्यभक्षी सेर बेतवा के किनारे-किनारे ओरछा के जंगल में आया और फिर वहाँ भटकता घूमता मेरे अड्डों के निकट आ गया।
मुझको हर छुट्टी में उन जंगलों में विचरण करने का अभ्यास था, जिनके निकट यह मनुष्यभक्षी आ गया था।
जब मैं छुट्टी में अपने अड्डों पर जाता तो सुनता - वह मनुष्यभक्षी सिंह अमुक गाँव में एक आदमी को उठा ले गया, फलाने गाँव में एक औरत को उठाकर खा गया। हाथ किसी के पड़ता नहीं था, इसलिए जन-परंपरा ने एक प्रेत की सृष्टि की। कहा जाने लगा कि एक जादूगर धोबी मरने के बाद नाना रूप धारण करके मनुष्य-भक्षण करने लगा है। बे-हथियारवाली जनता को विश्वास करने में देर नहीं लगी।
मैं शिकार खेलने प्रायः अपने मित्र के साथ जाया करता था। एक बार अकेला गया। सुना कि मनुष्यभक्षी प्रेत बेतवा नदीवाले गड्ढे के निकट, जिसका उपयोग मैं सदा ही करता था, आ गया है। मैंने सोचा, यदि प्रेत है तो शिकारी किसी भी भूत प्रेत से कम नहीं होता है, इसलिए कोई डर नहीं और यदि मनुष्यभक्षी सिंह है, जैसा कि मुझको विश्वास था कि है, तो देखा जाएगा। रात भर अनिमेष जागने का मुझको अभ्यास था और यह भरोसा था कि जागते हुए में मनुष्यभक्षी पशु - चाहे वह सिंह, नाहर या तेंदुआ हो मुझको सहज ही नहीं दबा पाएगा। सुनता आया कि मनुष्य को परमात्मा ने सारी सृष्टि रचने के उपरांत बनाया था।
मैं साँझ के पहले ही अपने चिर-परिचित गड्ढे में जा बैठा। जब संध्या हो गई, बिस्तरों में टॉर्च को ढूँढ़ा। उसको गाँव में ही भूल आया था और रात निपट अँधेरी थी। टॉर्च के लिए गाँव को लौटकर जाने और गड्ढे में वापस आने का अर्थ था चार मील, और यदि मार्ग में ही किसी झाड़ी की बगल से मनुष्यभक्षी सिंह ऊपर आ कूदा तो सारा शिकार बेहद किरकिरा हुआ।
बिस्तर फैलाकर गड्ढे में बैठ गया। ठंड के दिन थे। ओवरकोट पहना और कंबल से पैर ढक लिए। राइफल भरकर उसी पर रख ली और बीस कारतूसों का डिब्बा सामने रख लिया मानो मनुष्यभक्षी सिंह उनके एक अंश को भी चला लेने की मुहलत देता।
पहले तो अँधेरा बहुत बुरा लगा, फिर वह मेरा मित्र बन गया। यदि मैं मनुष्यभक्षी को बिना बहुत निकट आए नहीं देख सकता था तो वह भी तो मुझको नहीं देख सकता था। सूँघ जरूर सकता था; परंतु सूँघने के लिए उसको नाक से फूँ-फाँ करनी पड़ती, मैं सुन लेता और 'धाँय' करने के लिए पहले ही सावधान हो जाता। मैं सामने देखता अगल-बगल बैठे-बैठे और उझक-उझककर भी। मैंने अपने जीवन भर में इतनी चौकसी कभी नहीं की।
चौकसी करते-करते आधी रात हो गई। भय के अत्यंत निकट संसर्ग में आने के कारण मन में धुक-धुक बिलकुल न रही। राइफल हटाकर बगल में रख दी और अकड़े-सिकुड़े हए पैरों को सीधा करने के लिए लेट गया। तारों पर टकटकी जमाई।
बेतवा की धार चल रही थी। थी पतली ही। कंकड़ों से टकराकर धार एक बँधा हुआ शब्द कर रही थी। टिटिहरी बीच-बीच में बोल जाती थी। किनारे के ऊपरवाले पेड़ों पर बसेरा लिए हुए डोंके ठहर-ठहरकर टुहुक लगा जाते थे। झींगुर झनकार रहे थे। दूर जंगल से कभी चीतल का कूका और कभी साँभर की रेंक सुनाई पड़ जाती थी। कभी-कभी उल्लू और कभी चमगादड़ अपने पंख फड़फड़ाते इधर से उधर निकल जाते थे।
मुझे नींद का नाम न था।
रात का तीसरा पहर समाप्त होने को आ रहा था। मैं इस बीच में कई बार बैठ और लेट चुका था। मैं लेटा हुआ था जब पास ही छप-छप का शब्द सुनाई पड़ा। मैं तुरंत सावधानी के साथ बैठ गया। राइफल साधी और लिबलिबी पर उँगली रख दी। पानी की धार, जहाँ से छप-छप का शब्द सुनाई दिया था, मेरे गड्ढे से साठ-सत्तर फीट की दूर पर होगी। साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा।
गड्ढे के सामने एक आकार आया और रुका। आकार उतना लंबा और चौड़ा न था जितना मेरे अनुमान ने बना दिया था। अँधेरे में बिना निशाना लिए हुए मुझको राइफल चलाने का अभ्यास था, इसलिए मन में बहुत शंका न हुई। आकार ने फूँ-फाँ की। मुझको साफ सुनाई पड़ा। लिबलिबी का पर तुरंत उँगली दबी और जोर का 'धाँय' शब्द हुआ। जब तक 'धाँय' की गूँज दुगुन और तिगुन हुई, मैंने चटपट दूसरा कारतूस नाल में पहुँचा दिया। मैं दूसरा कारतूस भी फोड़ता, परंतु वह आकार धराशायी हो गया था, उसकी साँस जोर-जोर से चल रही थी। मुझको विश्वास हो गया कि साँसें कुछ पल की हैं। कुछ पल के बाद उसकी साँस बंद हो गई। वह समाप्त हो गया। परंतु इतना अँधेरा था कि अनुमान भी नहीं कर सकता था कि किस जानवर पर गोली चलाई है। इतना साहस नहीं कर सकता था कि गड्ढे को छोड़कर उसके पास जाता और अनुसंधान करता।
प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगा।
प्रातःकाल के पहले पतले से चंद्रमा का उदय हुआ। परंतु उसके प्रकाश से कोई सहायता नहीं मिली। उसके धुँधले प्रकाश में गड्ढे के सामने पड़े हुए मृत पशु का आकार अनुमान से कुछ लंबा ही दिखता रहा।
ज्यों-ज्यों करके पौ फटी। उजाला हुआ। देखूँ तो मृत पशु लकड़बग्घा है। कारतूस को खराब करने का पछतावा नहीं हुआ। यदि वह मनुष्यभक्षी सिंह ही होता तो गोली तो ठिकाने से पड़ती लकड़बग्घे के गले से जरा हटकर जोड़ पर निशाना लगा था।
बिस्तर उठानेवाला सूर्योदय के बाद आ गया। लकड़बग्घे को देखकर वह हँसा। बोला, 'मैं खेत पर जाग रहा था, जब बंदूक का अर्राटा हुआ। सोचा था, कोई खाने लायक जानवर मरा होगा। यह तो कुछ भी न निकला।'
मैं कुछ और सोच रहा था। मेरे साथ लगभग अनिवार्य रूप से घूमनेवाले इस शिकारी का नाम दुर्जन कुम्हार था। बहादुर, कष्टसहिष्णु और बहुत हँसोड़।
बेतवा के भरकों में घूमते हुए एक दिन हम दोनों ने एक टीले के चौरस पर कुछ विलक्षण सी गठरियाँ लुढ़कती-पुढ़कती देखीं। छिपते-छिपते हम दोनों बहुत निकट पहुँच गए। देखें तो तीन-चार लकड़बग्घे किसी जानवर का भोजन कर रहे हैं। शायद गाँव के किसी आवारा कुत्ते को मार लाए थे। मेरे गाँठ में कुल पाँच कारतूस थे। तीन हिरनमार छर्रे के और दो चार नंबर के सरसों के दानों से भी छोटे छर्रेवाले। हिरनमार छर्रे से मैंने एक लकड़बग्घे को गिरा दिया। उसके गिरते ही बाकी वहाँ से भागे नहीं, बल्कि गिरे हुए लकड़बग्घे का रक्तपान करे लगे और उसको चीर-फाड़ भी डाला। मैने एक और गिराया। तीसरा लकड़बग्घा उस गिरे हुए पर चिपट गया और अपने बीभत्स कर्म में निरत हो गया। मैंने उस पर भी बंदूक चलाई और ओट छोड़ दी। वह गिर नहीं सका, घायल होकर भागा। तब एक कोने में चौथा लकड़बग्घा दिखलाई पड़ा। वह तुरंत भागकर एक माँद में जा घुसा। घायल लकड़बग्घा भरकों के बीच के एक छोटे से नाले में जा पड़ा। मैंने उसपर चार नंबर का बारीक छर्रा चलाया। उसका कोई घातक प्रभाव नहीं पड़ा; परंतु वह नाले में दुबक गया।
दुर्जन दौड़ता हुआ उसके पास पहुँचा। उसके पास पहुँचते ही घायल जानवर ने एक उचाट ली और दर्जन की ओर बढ़ा। दुर्जन ने चक्कर काटकर नाले को फाँदना चाहा। फाँदने में दुर्जन की कमर लचक गई और रीढ़ का एक गुरिया धमक खा गया।
'ओ मताई, खा लओ!' चिल्लाकर दुर्जन गिर पड़ा।
मैं जिस टीले पर खड़ा था, उसके नीचे एक छोटा टीला और था। उस टीले के नीचे नाला था। दुर्जन को गिरा देखकर लकड़बग्घा डरा और मेरी ओर आया। मेरे पास सिवाय चार नंबर के एक कारतूस के और कुछ न था। जैसे ही क्रुद्ध लकड़बग्घा आठ-दस फीट रह गया, मैंने उस पर चार नंबर का कारतूस चला दिया। वह खत्म हो गया। मैं दुर्जन को उठाकर गाँव ले आया। लकड़बग्घा जरूर बहुत डरपोक होता है; परंतु घायल होने पर दबे पाँव प्राण बचाने के लिए आक्रमण कर देता है।