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दबे पाँव (अध्याय 12)

16 मई 2022

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर इसको जंगलों से निकला बाहर कर दिया है।

ग्वालियर नरेश महाराज माधवराव ने अफ्रीका की नस्ल के कुछ सिंह शावक शिवपुरी के पास के जंगलों में छुड़वाए थे। वे बढ़े और उनकी कुछ संतानें शिवपुरी के आस पास के जंगलों में अभी भी हैं।

सिंह का अगला भाग भारी होता है। मुँह चौड़ा-चकला और खोपड़ा बड़ा। गरदन पर अयाल होने के कारण यह विशाल और भयानक प्रतीत होता है; परंतु वास्तव में धारीदार नाहर के बराबर बलवान, प्रचंड या पाजी नहीं होता। इसका शिकार धारीदार नाहर के जैसा ही खेला जाता है; परंतु मुझको एक भी नहीं मिला, इसलिए मेरा निजी अनुभव इसके विषय में बिलकुल नहीं है।

ग्वालियर राज्य के जंगल झाँसी जिले से लगे हुए हैं, इसलिए जानवरों का वहाँ से आना-जाना यहाँ बना रहता है। लगभग बाईस साल हुए, जब ग्वालियर के जंगलों से एक मनुष्यभक्षी सिंह झाँसी के जंगलों में आ धमका पहले तो ललितपुर तहसील के बाँसी नामक ग्राम के आस पास तहलका मचाता रहा। दूर-दूर से कुछ अँगरेज शिकारी उसकी टोह में आए; परंतु वह इतना चालाक था कि किसी की भी अंटी पर न चढ़ा। मैंने उन शिकारियों की असफलता का वर्णन एक अँगरेजी पुस्तक में पढ़ा है। बाँसी से टलकर यह मनुष्यभक्षी सेर बेतवा के किनारे-किनारे ओरछा के जंगल में आया और फिर वहाँ भटकता घूमता मेरे अड्डों के निकट आ गया।

मुझको हर छुट्टी में उन जंगलों में विचरण करने का अभ्यास था, जिनके निकट यह मनुष्यभक्षी आ गया था।

जब मैं छुट्टी में अपने अड्डों पर जाता तो सुनता - वह मनुष्यभक्षी सिंह अमुक गाँव में एक आदमी को उठा ले गया, फलाने गाँव में एक औरत को उठाकर खा गया। हाथ किसी के पड़ता नहीं था, इसलिए जन-परंपरा ने एक प्रेत की सृष्टि की। कहा जाने लगा कि एक जादूगर धोबी मरने के बाद नाना रूप धारण करके मनुष्य-भक्षण करने लगा है। बे-हथियारवाली जनता को विश्वास करने में देर नहीं लगी।

मैं शिकार खेलने प्रायः अपने मित्र के साथ जाया करता था। एक बार अकेला गया। सुना कि मनुष्यभक्षी प्रेत बेतवा नदीवाले गड्ढे के निकट, जिसका उपयोग मैं सदा ही करता था, आ गया है। मैंने सोचा, यदि प्रेत है तो शिकारी किसी भी भूत प्रेत से कम नहीं होता है, इसलिए कोई डर नहीं और यदि मनुष्यभक्षी सिंह है, जैसा कि मुझको विश्वास था कि है, तो देखा जाएगा। रात भर अनिमेष जागने का मुझको अभ्यास था और यह भरोसा था कि जागते हुए में मनुष्यभक्षी पशु - चाहे वह सिंह, नाहर या तेंदुआ हो मुझको सहज ही नहीं दबा पाएगा। सुनता आया कि मनुष्य को परमात्मा ने सारी सृष्टि रचने के उपरांत बनाया था।

मैं साँझ के पहले ही अपने चिर-परिचित गड्ढे में जा बैठा। जब संध्या हो गई, बिस्तरों में टॉर्च को ढूँढ़ा। उसको गाँव में ही भूल आया था और रात निपट अँधेरी थी। टॉर्च के लिए गाँव को लौटकर जाने और गड्ढे में वापस आने का अर्थ था चार मील, और यदि मार्ग में ही किसी झाड़ी की बगल से मनुष्यभक्षी सिंह ऊपर आ कूदा तो सारा शिकार बेहद किरकिरा हुआ।

बिस्तर फैलाकर गड्ढे में बैठ गया। ठंड के दिन थे। ओवरकोट पहना और कंबल से पैर ढक लिए। राइफल भरकर उसी पर रख ली और बीस कारतूसों का डिब्बा सामने रख लिया मानो मनुष्यभक्षी सिंह उनके एक अंश को भी चला लेने की मुहलत देता।

पहले तो अँधेरा बहुत बुरा लगा, फिर वह मेरा मित्र बन गया। यदि मैं मनुष्यभक्षी को बिना बहुत निकट आए नहीं देख सकता था तो वह भी तो मुझको नहीं देख सकता था। सूँघ जरूर सकता था; परंतु सूँघने के लिए उसको नाक से फूँ-फाँ करनी पड़ती, मैं सुन लेता और 'धाँय' करने के लिए पहले ही सावधान हो जाता। मैं सामने देखता अगल-बगल बैठे-बैठे और उझक-उझककर भी। मैंने अपने जीवन भर में इतनी चौकसी कभी नहीं की।

चौकसी करते-करते आधी रात हो गई। भय के अत्यंत निकट संसर्ग में आने के कारण मन में धुक-धुक बिलकुल न रही। राइफल हटाकर बगल में रख दी और अकड़े-सिकुड़े हए पैरों को सीधा करने के लिए लेट गया। तारों पर टकटकी जमाई।

बेतवा की धार चल रही थी। थी पतली ही। कंकड़ों से टकराकर धार एक बँधा हुआ शब्द कर रही थी। टिटिहरी बीच-बीच में बोल जाती थी। किनारे के ऊपरवाले पेड़ों पर बसेरा लिए हुए डोंके ठहर-ठहरकर टुहुक लगा जाते थे। झींगुर झनकार रहे थे। दूर जंगल से कभी चीतल का कूका और कभी साँभर की रेंक सुनाई पड़ जाती थी। कभी-कभी उल्लू और कभी चमगादड़ अपने पंख फड़फड़ाते इधर से उधर निकल जाते थे।

मुझे नींद का नाम न था।

रात का तीसरा पहर समाप्त होने को आ रहा था। मैं इस बीच में कई बार बैठ और लेट चुका था। मैं लेटा हुआ था जब पास ही छप-छप का शब्द सुनाई पड़ा। मैं तुरंत सावधानी के साथ बैठ गया। राइफल साधी और लिबलिबी पर उँगली रख दी। पानी की धार, जहाँ से छप-छप का शब्द सुनाई दिया था, मेरे गड्ढे से साठ-सत्तर फीट की दूर पर होगी। साँस रोककर प्रतीक्षा करने लगा।

गड्ढे के सामने एक आकार आया और रुका। आकार उतना लंबा और चौड़ा न था जितना मेरे अनुमान ने बना दिया था। अँधेरे में बिना निशाना लिए हुए मुझको राइफल चलाने का अभ्यास था, इसलिए मन में बहुत शंका न हुई। आकार ने फूँ-फाँ की। मुझको साफ सुनाई पड़ा। लिबलिबी का पर तुरंत उँगली दबी और जोर का 'धाँय' शब्द हुआ। जब तक 'धाँय' की गूँज दुगुन और तिगुन हुई, मैंने चटपट दूसरा कारतूस नाल में पहुँचा दिया। मैं दूसरा कारतूस भी फोड़ता, परंतु वह आकार धराशायी हो गया था, उसकी साँस जोर-जोर से चल रही थी। मुझको विश्वास हो गया कि साँसें कुछ पल की हैं। कुछ पल के बाद उसकी साँस बंद हो गई। वह समाप्त हो गया। परंतु इतना अँधेरा था कि अनुमान भी नहीं कर सकता था कि किस जानवर पर गोली चलाई है। इतना साहस नहीं कर सकता था कि गड्ढे को छोड़कर उसके पास जाता और अनुसंधान करता।

प्रातःकाल की प्रतीक्षा करने लगा।

प्रातःकाल के पहले पतले से चंद्रमा का उदय हुआ। परंतु उसके प्रकाश से कोई सहायता नहीं मिली। उसके धुँधले प्रकाश में गड्ढे के सामने पड़े हुए मृत पशु का आकार अनुमान से कुछ लंबा ही दिखता रहा।

ज्यों-ज्यों करके पौ फटी। उजाला हुआ। देखूँ तो मृत पशु लकड़बग्घा है। कारतूस को खराब करने का पछतावा नहीं हुआ। यदि वह मनुष्यभक्षी सिंह ही होता तो गोली तो ठिकाने से पड़ती लकड़बग्घे के गले से जरा हटकर जोड़ पर निशाना लगा था।

बिस्तर उठानेवाला सूर्योदय के बाद आ गया। लकड़बग्घे को देखकर वह हँसा। बोला, 'मैं खेत पर जाग रहा था, जब बंदूक का अर्राटा हुआ। सोचा था, कोई खाने लायक जानवर मरा होगा। यह तो कुछ भी न निकला।'

मैं कुछ और सोच रहा था। मेरे साथ लगभग अनिवार्य रूप से घूमनेवाले इस शिकारी का नाम दुर्जन कुम्हार था। बहादुर, कष्टसहिष्णु और बहुत हँसोड़।

बेतवा के भरकों में घूमते हुए एक दिन हम दोनों ने एक टीले के चौरस पर कुछ विलक्षण सी गठरियाँ लुढ़कती-पुढ़कती देखीं। छिपते-छिपते हम दोनों बहुत निकट पहुँच गए। देखें तो तीन-चार लकड़बग्घे किसी जानवर का भोजन कर रहे हैं। शायद गाँव के किसी आवारा कुत्ते को मार लाए थे। मेरे गाँठ में कुल पाँच कारतूस थे। तीन हिरनमार छर्रे के और दो चार नंबर के सरसों के दानों से भी छोटे छर्रेवाले। हिरनमार छर्रे से मैंने एक लकड़बग्घे को गिरा दिया। उसके गिरते ही बाकी वहाँ से भागे नहीं, बल्कि गिरे हुए लकड़बग्घे का रक्तपान करे लगे और उसको चीर-फाड़ भी डाला। मैने एक और गिराया। तीसरा लकड़बग्घा उस गिरे हुए पर चिपट गया और अपने बीभत्स कर्म में निरत हो गया। मैंने उस पर भी बंदूक चलाई और ओट छोड़ दी। वह गिर नहीं सका, घायल होकर भागा। तब एक कोने में चौथा लकड़बग्घा दिखलाई पड़ा। वह तुरंत भागकर एक माँद में जा घुसा। घायल लकड़बग्घा भरकों के बीच के एक छोटे से नाले में जा पड़ा। मैंने उसपर चार नंबर का बारीक छर्रा चलाया। उसका कोई घातक प्रभाव नहीं पड़ा; परंतु वह नाले में दुबक गया।

दुर्जन दौड़ता हुआ उसके पास पहुँचा। उसके पास पहुँचते ही घायल जानवर ने एक उचाट ली और दर्जन की ओर बढ़ा। दुर्जन ने चक्कर काटकर नाले को फाँदना चाहा। फाँदने में दुर्जन की कमर लचक गई और रीढ़ का एक गुरिया धमक खा गया।

'ओ मताई, खा लओ!' चिल्लाकर दुर्जन गिर पड़ा।

मैं जिस टीले पर खड़ा था, उसके नीचे एक छोटा टीला और था। उस टीले के नीचे नाला था। दुर्जन को गिरा देखकर लकड़बग्घा डरा और मेरी ओर आया। मेरे पास सिवाय चार नंबर के एक कारतूस के और कुछ न था। जैसे ही क्रुद्ध लकड़बग्घा आठ-दस फीट रह गया, मैंने उस पर चार नंबर का कारतूस चला दिया। वह खत्म हो गया। मैं दुर्जन को उठाकर गाँव ले आया। लकड़बग्घा जरूर बहुत डरपोक होता है; परंतु घायल होने पर दबे पाँव प्राण बचाने के लिए आक्रमण कर देता है।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

16 मई 2022
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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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