मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर से निकल जाती हैं। प्रकृति में उल्लास भर जाता है। नीलकंठ और बगुले का मारना कानून में निषिद्ध है। मोर गाँव के निकट नहीं मारा जा सकता; चंडूल और लालमुनैया को कोई नहीं मारता; परंतु तीतर, वनमुरगी और हरियल के लिए तो खानेवाले ललकते से रहते हैं।
इनमें से केवल मोर खेती को हानि पहुँचाता है। ऐसा सुंदर पक्षी और गंहूँ चने इत्यादि को किस बुरी तरह खानेवाला। चना का पौधा उगा नहीं कि इसने उखाड़-उखाड़कर उसका सफाया किया। किसान जब इन सबकी मार से थक जाता है तब परिस्थितिजन्य संतोष के साथ कहता है - 'यदि इन सबसे पूरा अन्न बच जाय तो घर में रखने को जगह ही न रहे।'
सचमुच जगह न रहे, परंतु बच नहीं पाता। अधिक अन्न उत्पन्न हो जाय तो क्या किसान उसको फेंक देगा?
हरियल, पीपल, बरगद और ऊमर के पेड़ों पर अधिकतर दिखलाई पड़ता है। इसकी बारीक सीटी कभी-कभी मनुष्य की सीटी के भ्रम में डाल देती है; परंतु मनुष्य की बजाई हुई सीटी में विषमता होती है, इसकी सीटी लगातार एक सी बजती है। इसकी भूमि पर बैठा हुआ शायद ही किसी ने देखा हो; परंतु यह बैठता है - पानी पीने के लिए और दाने-चारे के लिए ही। इतना हरा-पीला होता है कि पेड़ों के हरे-हरे पत्तों में छिप जाता है। अधिकतर इसकी सीटी ही इसकी उपस्थिति का पता देती है।
तीतर सवेरे-शाम मार्गों, पकडंडियों और खुले मैदानों में, जहाँ ढोर गोबर छोड़ जाते हैं, पाया जाता है। यह ज्यादा नहीं उड़ सकता है। थोड़ी दूर उड़कर फिर तेजी के साथ पंजों के बल भागता है। तीतर दिन चढ़ते ही झाड़ी-झकूटों में जा छिपता है और संध्या के पहले लगभग चार बजे फिर अपने प्रवास से बाहर निकल पड़ता है।
इससे मिलती-जुलती एक चिड़िया भटतीतर होती है। इसका रंग मटमैला होता है। कटी हुई तिली के खेतों में बहुधा पाया जाता है। आहट पाकर खेत के कूँड़ों में यह ऐसा दबकर बैठ जाता है कि पास से भी नजर में नहीं आता। बहुत पास पहुँच जाने पर यह फड़फड़ाकर उड़ जाता है। भटतीतर बहुत ऊँची और लंबी उड़ान ले सकता है। स्वर इसका इतना तीक्ष्ण होता है कि ऊँची उड़ान पर से भी सुनाई पड़ जाता है।
वनमुरगी और पालतू मुरगी में ज्यादा अंतर नहीं है। बोली भी दोनों की लगभग एक सी होती है। पालतू मुरगी की बाँग कुछ लंबी खिंच जाती है, वनमुरगी की बाँग अधकटी सी होती है।
नीलकंठ शिकारी पक्षी है। इसका नीला रंग इतना सुंदर, इतना मोहक होता है कि वह शकुन का विषय बन गया है। पर इसकी बोली लटीफटी सी लगती है। कीड़ों-मकोड़ों का शिकार अधिकतर करता है; परंतु छोटी चिड़ियों से भी इसको कोई परहेज नहीं है - पंजे में पड़ जाय तो। चंडूल, लालमुनैया देखने में अच्छे और सुनने में तो कहना ही क्या है।
रात को तीसरे पहल जब ये पक्षी अपने मिठास भरे स्वरों का प्रवाह बहाते हैं, तब किसी भी बाजे से इनकी मोहकता की तौल नहीं की जा सकती। मैंने तो गड्ढों में बैठे-बैठे इनकी मनोहर तानों को सुनते-सुनते घंटों बिता दिए। बंदूक एक तरफ रख दी और इनके सुरीले बोलों पर ध्यान को अटका दिया। जानवर पास से निकल गए, परंतु मैंने बंदूक नहीं उठाई। ऐसा जादू पड़ गया कि मैंने कभी-कभी सोचा, खेतों की रखवाली का सारा ठेका क्या मैंने ही ले रखा है?