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दबे पाँव (अध्याय 16)

16 मई 2022

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया।

मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होकर रेल घूमती, कतराती गई थी। गहरे-गहरे खड्ड, गरमियों में भी जल भरे नदी-नाले और कौतुकों से भरी हुई नर्मदा। मंडला जिले में ही तो कान्हाकिसली का विशाल, किंतु वर्जित जंगल है। मंडला जिले में ही छोटे से सुंदर नाम और बड़े दर्शनवाला - मोती नाला है। नाम 'मोती नाला' ही है, परंतु इस नाम का जंगल बड़ा और विस्तृत, विहंगम और बीहड़ है। मोती नाला के जंगल में शेर बहुतायत से पाए जाते हैं। मार्ग में 'जगमंडल' नाम का बड़ा वन मिलता है। सरही और सागौन के भीमकाय वृक्ष भरे पड़े हैं। जल भरे नदी नालों की कोई कमी नहीं।

जगमंडल नाम के जंगल में भी शेरों की काफी संख्या है। साँभर, चीतल, वाइसन और भैंसे भी मिलते हैं।

एक दिन तो हम लोग टोह-टाप में लगे रहे। जिस नाले में निकल जाएँ उसी में शेरों के पदचिह्न। एक नाले में दोनों किनारों से आड़ी पगडंडियाँ पड़ गई थीं। वहाँ पर रेत में शेरों के इतने निशान मिले कि हम लोग अचरज में डूब गए। झाँसी जिले के नालों में जैसे ढोरों के निशान मिलते हैं वैसे शेरों के मिले। कुशल यही रही कि नालों की घास में कोई शेर पड़ा हुआ नहीं मिला।

हम लोगों को ठहरने के लिए जंगल विभाग की एक चौकी मिल गई थी। साधन संपन्न जंगलों में डेरे तंबू लगाते हैं; परंतु इनकी टीमटाम देखकर अल्प साधनवाले मनचले शिकारी हतोत्साहित हो जाते हैं। वे सोचते हैं, न इतना साज सामान होगा, न बड़े जंगलों का भ्रमण और जंगलों का शिकार उपलब्ध होगा। मैं भी नहीं जा सकता था; परंतु मेरे एक निकट संबंधी इन जिलों में बड़े पद पर थे, इसलिए एक दरी और एक चादर लेकर झाँसी से बाहर निकल पड़ता था। उनका निषेध है, इसलिए नाम लेकर कृतज्ञतापन तक से विवश हूँ।

दूसरे दिन दुपहरी में भटक-भटककर हम लोग डेरे पर आ गए। साथ में मंडला से आटा ले आए थे; क्योंकि इस ओर गाँव में दाल-चावल और मिर्च-मसाला तो मिल जाता है, परंतु आटा दुर्लभ है। भोजन शुरू ही किया था कि एक गोंड ने आकर समाचार दिया - नाहर ने गायरा किया है। उसकी बोली में - 'नाहर गायरा किहिस।'

पत्तल छोड़कर हम लोग उठ बैठे। उस समय तीन बजे होंगे। मचान बाँधने का सामान, रस्से, पानी का घड़ा और बिस्तर इत्यादि साथ लिए और चल दिए।

एक नाले में झाँस के नीचे एक बड़ा बैल दबा पड़ा था। उस बैल की कहानी कष्टपूर्ण थी। उस जंगल में रेलवे लाइन पर बिछाए जानेवाले शहतीर स्लीपर काटे जा रहे थे और जबलपुर के लिए ढोए जा रहे थे। जबलपुर से एक गाड़ीवाला शहतीरों को ढोने के लिए अपनी गाड़ी लाया। शहतीरों तक नहीं जा पाया था, मार्ग में एक पानीवाला नाला मिला। गाड़ीवाला ने बैल ढील दिए और पुल के नीचे एक चट्टान पर खाना बनाने लगा। बैल जरा भटककर डाँग में चले गए। उनमें से एक को सेर ने मार डाला। उसको सेर उठाकर लगभग तीन फलाँग की दूरी पर ले गया और झाँस के नीचे एक छोटे से नाले में दाब दिया। उस समय उसने बैल को बिलकुल नहीं खाया। सोचा होगा, रात आने पर सुभीते में खाएँगे।

बैल को नाले में से निकलवाया। छह आदमी उसको बाहर निकाल सके। लगभग साठ डग पर एक ऊँचा बरगद का पेड़ था। नीचे जरा हटकर आम और तेंदू के छोटे-छोटे गुल्ले थे। इनको साफ करवाकर एक पेड़ के ठूँठ की खूँटी का रूप दिया गया। बाँस के खपचे निकालकर उनसे बैल को पेड़ के ठूँठ से जकड़कर बाँध दिया गया।

मैंने बाँधनेवालों से पूछा, 'इन खपचों को तोड़कर सेर बैल को उठा तो नहीं ले जाएगा?'

उन लोगों तान-तानकर खपचों को खींचा और आश्वासन दिया- 'शेर इन खपचों को कैसे भी झटके से नहीं तोड़ सकेगा।'

मेरे सामने से एक बार तेंदुआ रस्सी तोड़कर बकरे को उठा ले गया था। मैं उस जगह उस अनुभव को दुहराना नहीं चाहता था।

गोंडों और कोलों के आश्वासन को मैंने मान लिया। उसका तद्विषयक अनुभव काफी था। हम लोगों को उनकी बात पर संदेह करने के लिए कोई कारण न था।

उस रात चैत की पूर्णिमा थी। दिन में गरमी रही, परंतु रात का सलोना सुहावनापन तो अनुभव के ही योग्य था। चारों ओर से महक भरे मंद झकोरे आ रहे थे। कहीं से चीतल की कूक और कहीं से साँभर की रेंक सुनाई पड़ रही थी। सियार भी कभी 'फे' कर जाता था।

हमारी मचान भूमि से लगभग पच्चीस फीट की ऊँचाई पर थी। मचान लंबी-चौड़ी थी, सीधे डंडों से पूरी हुई। ऊपर गद्दा और दरी। एक ओर डालों के तिफंसे में जल भरा घड़ा और कटोरा रखा था। मचान एक ओर से खुली हुई थी और तीन ओर से पत्तों से आच्छादित। उस पर केवल रीछ चढ़कर आ सकता था; शायद तेंदुआ भी - क्योंकि मैंने तेंदुए को अपनी आँखों पेड़ पर सहज गति से चढ़ते देखा है परंतु शेर चढ़कर नहीं आ सकता था। मचान के सिरहाने की तरफ मैं बैठा था, दूसरी ओर मेरे मित्र शर्माजी। मेरे सामने का भाग ज्यादा खुला था, शर्मा जी के सामने का कम।

मेरे अन्य मित्र काफी दूर अन्य मचानों पर थे।

आठ बज गए। चाँदनी खूब छिटक आई। मेरे सामने सौ गज तक खुला हुआ मैदान था, फिर घनी झाड़ी शुरू हुई थी।

आठ बजे के उपरांत इस खुले हुए मैदान में लगभग अस्सी गज की दूरी पर एक सफेद सफेद सा ढेर दिखलाई पड़ा। मैंने आँखों को गड़ाया। वह ढेर स्थित था। सोचा, आँखों का भ्रम है। कुछ मिनट बाद वह ढेर हिला और मचान की ओर थोड़ा सा बढ़ा। विश्वास हो गया कि शेर है और बंदूक की अनी पर आ रहा है। मैंने शर्मा जी को इशारा किया। उन्होंने ने भी अपने झाँके में होकर देखा। वह लगभग आधे घंटे तक ठिठकता-ठिठकता सा चला। फिर उसने उस नाले पर छलाँग भरी, जिसमें वह दिन में मारे हुए बैल को ठूँस आया था। इसके उपरांत वह दृष्टि से लोप हो गया। बाट जोहते-जोहते ग्यारह बज गए। चाँदनी निखरकर छिटक गई थी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। शर्मा जी ने सिर और आँखों पर हाथ फेरकर नींद की विवशता प्रकट की। मेरे भी सिर में दर्द था। हम दोनों लेट गए। मैंने सोचा, गायरा प्रबल खपचों से बँधा हुआ है। शेर आकर जब बैल के उठाने का उत्कट प्रयत्न करेगा, हम लोग सोते ही न पड़े रहेंगे। लेटते ही सो गए, क्योंकि मचान पर किसी विशेष संकट की आशंका न थी।

चाँदनी ठीक ऊपर चढ़कर थोड़ी सी वक्र हो गई थी। एक बजा था, जब मुझको पेड़ के नीचे कुछ आहट मालूम पड़ी। मैं यकायक उठकर नहीं बैठा। मचान पर का जरा सा भी शब्द सुनकर यदि शेर होगा तो फिर नहीं आएगा- शायद महीने-पंद्रह दिन तक न आवे; क्योंकि शेर तेंदुए की तरह ढीठ नहीं होता। मैं बहुत धीरे-धीरे उठा। आँखें मलकर मचान के नीचे झाँका। कोई दो छोटे जानवर बरगद की सूखी पत्तियों को रौंद-रौंदकर बैल की घात लगा रहे थे। बैल को भी देखा संदेह था, कहीं उस समय शेर उसको न घसीट ले गया हो, जब सो रहे थे। बैल समूचा पड़ा था। शेर उसके पास नहीं आया था।

मैं कुछ क्षण ही इस तरह बैठा था कि सामने से शेर आता दिखलाई पड़ा। शेर के आने के पहले ही वे दोनों जानवर भाग गए। मैं जब लेटा था, मैंने अपनी राइफल का तकिया बनाया था। शर्मा जी दुनाली बंदूक छाती पर रखे हुए सो रहे थे। मैं राइफल को उठाने के लिए मुड़ नहीं सकता था। मुड़ते ही मेरी गति को शेर देख लेता और भाग जाता, सारी कमी कमाई मेहनत और लालसा व्यर्थ जाती। मैंने शर्मा जी की छाती पर से धीरे से दुनाली उठा ली। उनको जगाने का समय तो था ही नहीं। बंदूक के घोड़े चढ़े हुए थे और नालों में गोलियों के कारतूस पड़े थे। परंतु मुझे अपनी राइफल का अधिक भरोसा रहा है; लेकिन उस मौके पर राइफल उठाना मेरे लिए संभव न था। दुनाली लेकर मैंने बैल पर सीधी कर ली। झुक गया और एकाग्र दृष्टि से अपनी ओर आते हुए शेर को देखने लगा।

शेर बड़ी मस्त चाल से आ रहा था। बगल की पहाड़ी पर पतोखी बोली। अलसाते-अलसाते उठाते हुए अपने भारी पैरों को शेर ने एकदम सिकोड़ा, बिजली की तरह गरदन मरोड़ी, पीछे के पैरों को सधा और जिस पतोखी बोली थी उस ओर एकटक देखने लगा। जब वह उस ओर से निश्चिंत हो गया तब मचान की ओर बढ़ा।

खरी चाँदनी में उसकी छोहें स्पष्ट दिख रही थीं। सफेद भाल और छपके चमक रहे थे। भारी भरकम सिर की बगलों में छोटे-छोटे कान विलक्षण जान पड़ते थे। शेर जरा सा मुड़ा, तब उसके भयंकर पंजे और भयानक बाहु और कंधे दिखलाई पड़े। गरदन जबरदस्त मोटी और सिर से पीठ तक ढालू। उसके पुट्ठों को देखकर मन पर आतंक सा छा गया। सोचा, यदि बड़े-से-बड़ा खिसारा सुअर इससे भिड़ जाय तो कितनी देर ठहरेगा? परंतु सुअर इससे भिड़ जाता है और देर तक सामना भी करता है।

शेर फिर मचान के सामने सीधा हुआ। उसने मेरी ओर गरदन उठाई। चद्रंमा के प्रकाश में उसकी आँखें जल रही थीं। वह टकटकी लगाकर मेरी ओर देखने लगा और मैं तो आँख गड़ाकर उसकी ओर पहले से ही देख रहा था। एक क्षण के लिए मन चाहा कि गोली छोड़ दूँ; परंतु जंगल का शेर और इतना बड़ा जीवन में पहली बार देखा था, इसलिए मन में उसको देखते रहने का लालच उमड़ा। कभी उसके सिर और कभी उसकी छाती तो देखता था। ऐसी चौड़ी छाती जैसी किसी भी जानवर की न होती होगी।

शेर कई पल मेरी ओर देखता रहा। उसको संदेह था। वह जानना चाहता था कि मैं हूँ कौन? पर मैं अडिग और अटल था। उसको बाल बराबर भी हिलता नहीं देखा। जब शेर मेरा निरीक्षण कर चुका तब बैल के पास गया। उसने अपना भारी जबड़ा बैल के ऊपर रखा और दाढ़े गड़ाकर एक झटका दिया। एक ही झटके में कई आदमियों के बाँधे हुए बाँस के खपचे तड़ाक से टूट गए। दूसरी बार मुँह हाल कर जो उसने झटका दिया तो बैल तीन-चार हाथ की दूरी पर जा गिरा। इस समय उसकी पीठ मेरी ओर थी। उसने बैल को एक और झटका दिया। बैल चार-पाँच डग पर जाकर गिरा। मुझको लगा, अब यह चला। सवेरे जब मित्रगण इकट्ठे होंगे तब मेरी इस बात को कोई न सुनेगा कि मैं शेर की लोचों का अध्ययन कर रहा था सब कहेंगे कि मैं डर गया था। मैं मनाने लगा कि किसी तरह यह मेरे सामने अपनी छाती फेरे।

सेर ने कुछ क्षण के लिए मेरे सामने अपनी छाती की। बंदूक तो मिली हुई हाथ में थी ही। मैंने गोली छोड़ी। शेर ने काफी ऊँची उछाल लेकर गर्जन किया। शर्मा जी जाग उठे। उन्होंने भी सुना और देखा।

शेर ने नीचे गिरकर तुरंत एक तिरछी उचाट ली और आँखों से ओझल हो गया।

उसी समय मचान से उतरकर अनुसंधान करने का सवाल ही न था; क्योंकि कुछ पहले इसी प्रकार का प्रयत्न करते हुए इलाहाबाद के एक अँगरेज वकील श्री डिलन फाड़ डाले गए थे; और जैसा कि दो दिन बाद मंडला पहुँचकर हम लोगों ने सुना, कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री चौधरी के भाई जो वकील थे इसी जंगल से कुछ मील दूर इसी रात इसी प्रकार के प्रयत्न में मार डाले गए थे।

हम लोग मचान से नहीं उतरे। बातें करते-करते सवेरा हो गया। हम लोगों के मचान से उतरने के पहले ही मित्र लोग वहाँ आ गए। आते ही उन्होंने भूमि का निरीक्षण किया। जहाँ गोली चली थी वहाँ खून की एक बूँद भी न थी।

एक साहब बोले, 'गोली चूक गई।'

मैंने कहा, 'असंभव।'

नीचे उतरकर देखा, शेर के खून की बूँदें मिलीं। जरा आगे बढ़े कि हड्डी के टुकड़े, और आगे बढ़े तो खून की धार। परंतु हड्डियों के टुकड़े और रक्त की धार लगभग आधा मील तक मिली। एक नाले में उसने पानी पिया और नाले के उस पार के जंगल की लंबी घनी घास में विलीन हो गया। कई दिन बाद उसकी लाश सड़ी हुई मिली। गोली हँसुली की हड्डी पर पड़ी थी। चोट करारी थी, परंतु फिर भी वह इतनी दूर निकल गया।

दूसरे दिन उसी मरे बैल के गायरे को बाँधकर शर्मा जी और मैं बरगद के मचान पर जा बैठे। रात भर जागते रहे, लेकिन मचान तले कोई भी नहीं आया। परंतु अन्य मित्रों को विचित्र अनुभव प्राप्त हुए।

कई मित्र मचान बाँधकर पानी के पोखरे के पास बैठे थे। शुद्ध चाँदनी रात थी। खूब दिखलाई पड़ता था। पोखरे पर पहले दो बाइसन आए। बाइसन के मारने की मनाही थी, इसलिए गोली नहीं चलाई गई। उनके उपरांत एक शेर आया। मित्र को सिगरेट पीने की थी आदत। इधर सिगरेट ने खाँसी पैदा की, उधर शेर छलाँग भरकर ओझल हो गया।

दूसरे मित्र भी एक सज्जन के साथ मचान पर बैठे थे, और यह मचान मैंने ही बँधवाई थी। मचान एक गहरे और चौड़े नाले के किनारे के एक पेड़ पर थी। नाले में पानी न था, परंतु जानवरों के निकलने का उधर होकर मार्ग था।

जब मैं नाले में खड़ा हुआ तब वह पेड़ काफी ऊँचा दिखलाई दिया। मैंने सोचा, इस पर का मचान बिलकुल सुरक्षित रहेगा। पर वह पेड़ किनारे के धरातल से केवल दस-ग्यारह फीट ही ऊँचा था।

दिन में मचान बाँधे जाने के बाद हम लोग सब अपनी-अपनी जगह जा बैठे। जब सवेरे सब लोग मिले, नाले की ढीवाले मचान के शिकारियों का अनुभव सुनकर हम सबको दंग रह जाना पड़ा। उन्होंने बतलाया -

'नौ बजे के लगभग मचान के पास गुरगुराने की आहट मिली। हम लोग सावधान होकर उस दिशा की ओर देखने लगे, जहाँ से गुरगुराहट सुनाई पड़ी थी। कुछ ही क्षण बाद एक बड़ी शेरनी अपने दो बच्चों के साथ धीरे-धीरे झूमती-झूमती मचान के नीचे आई। बच्चे कलोल में थे और गुरगुरा रहे थे। शेरनी मचान के नीचे बैठ गई। वह जरा सी उठाल लेकर मचान पर बैठे हुए शिकारियों के नीचे पटक ला सकती थी। शेरनी के बच्चे कभी आपस में उलझते और लिपटते, तो कभी शेरनी के भारी शरीर को अपने खेल-कूद का अखाड़ा बनाते। जब दूरी से चीतल या साँभर की आवाज आती तो शेरनी अपने पंजे की मुलायम गद्दी से बच्चों को चुपका कर देती और जबड़े को जमीन से सटाकर ध्यान के साथ कुछ सुनती और देखती। चंचल बच्चे जब उसकी गहरी बगलों में से, उतावले होकर, जंगल के जगत का कारबार समझने के लिए सिर उठाते, वह पंजे की गद्दीदार ठोकर से उनको बुद्धि देने का प्रयास करती। एक बार एक बच्चा कूदने-फाँदने के लिए विकल हो गया तो शेरनी ने हलकी सी चपत जमा दी। चपत ने उस बच्चे को कुछ समझदारी दी और कुनमुनाकर अपनी माँ की बगल में सट गया। थोड़ी देर में नाले के उस पार पेड़ों की छाया में एक बड़ा आकार आया। समझ में नहीं आया, क्या था। शेरनी उस आकार को देखकर फरफराकर खड़ी हो गई और उसने अपने गले में जिस स्वर को दबाकर नाक से निकला, वह बहुत दूर से सुनाई पड़नेवाली भूकंप की सी आवाज थी। मचान पर बैठे एक शिकारी ने बंदूक पर उँगली पसारी। दूसरे शिकारी ने हाथ पकड़ लिया। बिलकुल संभव यह था कि शेरनी केवल घायल होती और निश्चित यह था कि वह घायल होकर मचानवाले किसी भी शिकारी को न छोड़ती।'

मचान बँधवाने के समय मेरे मन में, पेड़ की ऊँचाई के विषय में, नाले की गहराई में खड़े रहने के कारण भ्रम हो गया था। वैसे वह मचान तो तेंदुए के भी शिकार के योग्य न थी।

बाहर फीट की ऊँचाईवाली मचान से तो एक बार नयागाँव छावनी के पास तिंदरी पहाड़ी के नीचे एक पेड़ पर मचान बाँधकर बैठे हुए शिकारी को घायल होते ही तेंदुए ने उछलकर नीचे पटक लिया था और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे। फिर शेर के लिए यह मचान केवल दस-ग्यारह फीट की ही ऊँचाई पर थी। बंदूक चल जाती तो गजब हो जाता।

एक चौथी मचान और थी। उस मचान को एक बिलकुल बेढंगी सुनसान जगह में बाँधने की सूझ शिकारी को उसकी झक ने दी थी। शिकारी बिलकुल अकेले, बहुत दूर और बिलकुल बीहड़ झाड़ी में बैठना चाहते थे - शेर वहाँ आए, चाहे न आए।

शेर तो क्या, उनके मचान के पास एक चूहा भी नहीं आया। लाल आँखों सवेरा हुआ।

इसके बाद मैं अनेक बार अमरकंटक पहाड़ पर शेर के लिए गया। अमरकंटक पहाड़ के पठार के समतल पर एक छोटा सा खेत है। उसकी पश्चिमी दरार आगे चलकर नर्मदा बनी है और पूर्ववाली सोन। मजे में अपने दोनों पैर दोनों दरारों पर रखे जा सकते हैं; परंतु कुछ मील जाकर उस पठार पर से दोनों के भयंकर प्रपात हैं। अमरकंटक पर कुछ पेड़ ऐसे मिले, जिनके पत्तों से जून के महीने में रात्रि के समय बारीक फुहार झरती थी। वहीं मलिनियाँ नाम की एक बेल देखी, जिसमें लाल-लाल छोटे-छोटे फल लगे थे। हम लोगों ने फल चखे, स्वादिष्ट लगे। ग्रीष्म ऋतु में बघेलखंड के अनेक किसान अपने ढोर अमरकंटक के पठार पर चराने के लिए ले आते हैं।

पठार प्रकृत्ति के सौंदर्य का कोष है। उन दिनों जंगल में फूलों से लदे जूही के पेड़ मैंने विंध्यखंड के इसी स्थान में देखे। घूमते-घूमते एक स्थल पर पहुँचे, जिसको 'सूमपानी' कहते थे। सूमपानी शायद इसलिए कि पानी पहाड़ में से थोड़ा-थोड़ा करके रिसता था। इस पानी के आगे पहाड़ की एक घूम थी और मार्ग सँकरा। नीचे बड़ा भारी खड्ड। हम लोग घूम के इस सिरे पर थे, दूसरे सिरे पर कोमल कंठ निःसृत एक सामूहिक गान सुनाई पड़ा। ऐसे घने बीहड़ जंगल में यह सुरीला गान कहाँ से आया? थोड़ा आगे बढ़े तो जंगल की कुछ स्त्रियाँ और कन्याएँ रंग-बिरंगे फूलों से अपने केश सजाए, डलियाँ बगल में दाबे, फटे कपडे पहने आ रही थीं। हम लोगों को देखकर वे संकोच में मुसकाईं और गाना बंद कर दिया। हम लोग आगे बढ़ गए। मेरे मन में एक टीस उठी- हमारे देश की सुंदरता और संस्कृति ऐसी दरिद्रता में सनी हुई है।

जब पठार पर पहुँचकर नर्मदा के प्रपात को देखने गए, ऊपर की ओर बगल में एक छोटा सा बंगला देखा। उसमें शायद कोई संन्यासी या प्रवासी रहते थे। संन्यासी का अनुमान इसलिए करता हूँ कि उसमें से वनकन्या या देवकन्या के समान सौंदर्यवाली एक युवती निकली, जो गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थी और चौड़े मस्तक पर भस्म का त्रिपुंड लगाए हुए थी। यदि जीवन रोमांस है - मुझे तो बहुलता के साथ मिला है तो उस कुटी में अवश्य था।

प्रपात के नीचे हम लोग नहाने को उतरे। स्नान से निवृत्त हुए थे कि समाचार देनेवाले ने सूचना दी 'नायरा ने गायरा किया है।' जेबों में गुड़ और भुने हुए चने डाले और रास्ते में खाते-पीते, पहाड़ के उतार-चढ़ाव को नापते हुए सूर्यास्त के पहले पाँच मील की दूरी तय करके गायरे के पास पहुँच गए। एक खड्ड के ऊपर बड़ा पेड़ था। उसपर कलमुँहे बंदर बहुत चीं-चिख कर रहे थे। जरूर शेर वहीं कहीं छिपा होगा, हम लोगों ने निष्कर्ष निकाला। पास ही एक मारे गए भैंसे का गायरा पड़ा था।

शेर जानवर की गरदन ऊपर से पकड़ता है और तेंदुआ नीचे से। भैंसे की गरदन पर ऊपर से दाढ़ों की फाँस पड़ी थी। निश्चय ही उसको शेर ने मारा था।

परंतु मचान बनाने में इतना हो हल्ला हुआ की शेर नहीं आया। रात भर आँखें गड़ाए रहे, लेकिन सिवाय एक रीछ के और मचान के पास कोई जानवर नहीं निकला।

शेर के लिए मैंने होशंगाबाद के भी कुछ जंगलों को छाना है। जंगलों की विशालता और महानता तो देखने को मिली, परंतु शेर नहीं मिला। एक स्थान पर गायरे की खबर पाकर गए। शेर ने गाय मार डाली थी। एक ऊँची मचान बनाई। चारों ओर से उसको ढाँका। सूर्यास्त के पहले ही मचान पर आसन जमा लिया। परंतु ठीक समय न जाने कहीं से असंख्य चींटे आ गए। आफत हो गई। बड़ी कठिनाई के साथ उनसे पार पा रहे थे कि पगडंडी पर शेरनी आती हुई दिखलाई दी। मंडला जिले में जो शेर देखा था उससे छोटी थी; परंतु उससे कहीं अधिक लचीली और फुरतीली। मैं चींटा युद्ध में व्यस्त था। मचान थोड़ी-थोड़ी हिल रही थी। शेरनी ने देख लिया, वह तुरंत चल दी। एक बार अपने जिले की हद से जरा हटकर हम लोग शिकार खेलने के लिए गए। संध्या के समय ठीहे के लिए जा रहे थे कि बगल की छोटी सी झाड़ी में शेर दिखलाई पड़ा। गोल बाँधकर हम लोग उसके पीछे पड़ गए। भाग्य की बात कि वह हम लोगों से अधिक बुद्धिमान था, वह भाग गया और हम लोग अपने सिर चिथवाने से बच गए।

ठीहे के लिए आगे बढ़े। बादल घिर आए और इतनी जोर का पानी बरसा कि शिकार-विकार सब भूल गए। कपड़े, बिस्तर, हथियार - सब बिलकुल जलमग्न हो गए। जब ठौर पर पहुँचे, घंटों कपड़ों के सुखाने में लग गए। दो बजे रात को कुछ भोजन मिला और तीन बजे थोड़ी सी नींद। सवेरे एक गप्पी ने शिकार के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखलाए। कमबख्ती के मारे ऊँट चढ़े कुत्ते काटते हैं। दो दिन पहाड़ों में मारे-मारे फिरे, भूखे-प्यासे, कुछ भी न मिला। मिला क्या, दिखा तक नहीं। परंतु मसखरे साथी संग में थे, इसलिए भूख-प्यास, भटक और वह कठोर वर्षा के भी नहीं अखरी। जब लौटकर झाँसी आया तब मालूम हुआ श्री बद्रीनाथ भट्ट आए हुए हैं। भट्ट जी पुराने मित्र थे। उन दिनों अस्वस्थ थे। जलवायु परिवर्तन के लिए आए थे। झाँसी से दो मील दूर मैंने एक कृषि फॉर्म बनाया था और एक मकान खड़ा कर लिया था। एकांत स्थान और जलवायु अच्छा। भट्ट जी वहीं ठहर गए।

मुझसे बोले, 'लोग कहते हैं कि हिंदी के लेखक होकर आप शिकार खेलते हैं।'

मैंने कहा, 'लोगों का आरोप ठीक ही होगा, क्योंकि हिंदी के लेखक सिवाय धर्म और नीति के और किसी विषय पर लिखते ही कहाँ हैं!'

भट्ट जी विकट दुःख दर्द में भी हँसने हँसान में सचेष्ट रहते थे।

उन्होंने कहा, 'देखिए, हिंदी का लेखक उनको कहना चाहिए, जो सदा सिर झुकाकर चले, इधर-उधर कुछ न देखे। और बाजार में जब कोई सौदा लेने जाय तब चार पैसे की चीज के चार आने देकर घर आवे।'

मैंने भट्ट जी को इस बार की अपनी शिकार यात्रा का विवरण सुनाया। उसमें मनोरंजन के लिए कोई सामाग्री न थी, केवल पैर तोड़नेवाली यात्रा के क्रम थए।

उस दिन की कठोर वर्षा के दुःख को तो मैं जल्दी भूल गया, परंतु उससे लड़ने में जो प्रयत्न किया था, वह सदा याद रहा।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

16 मई 2022
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उन ज़िलों में त्राहि-त्राहि मच रही थी। आषाढ़ चला गया, सावन निकलने को हुआ, परन्तु पानी की बूँद नहीं। आकाश में बादल कभी-कभी छिटपुट होकर इधर-उधर बह जाते। आशा थी कि पानी बरसेगा, क्योंकि गाँववालों ने कुछ पत

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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जहाँगीर की सनक

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'इंशा! इंशा!!' बादशाह जहाँगीर ने इधर-उधर देखकर भरे दरबार में जरा ऊँचे स्वर में अपने भतीजे को पुकारा। अलमबरदार ने बड़े अदब के साथ बतलाया कि शाहजादा शिकार खेलने चले गए हैं। 'शाहजादा - इंशा के लिए! जहाँग

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शरणागत

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रज्जब कसाई अपना रोजगार करके ललितपुर लौट रहा था। साथ में स्त्री थी, और गाँठ में दो सौ-तीन सौ की बड़ी रकम। मार्ग बीहड़ था, और सुनसान। ललितपुर काफी दूर था, बसेरा कहीं न कहीं लेना ही था; इसलिए उसने मड़पुर

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थोड़ी दूर और

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जब महमूद गजनवी (सन 1025-26 में) सोमनाथ का मंदिर नष्ट-भ्रष्ट करके लौटा तब उसे कच्छ से होकर जाना पड़ा। गुजरात का राजा भीमदेव उसका पीछा किए चल रहा था। ज्यों-ज्यों करके महमूद गजनवी कच्छ के पार हुआ। वह सिं

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रक्षा

16 मई 2022
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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

16 मई 2022
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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

16 मई 2022
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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

16 मई 2022
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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

16 मई 2022
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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

16 मई 2022
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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

16 मई 2022
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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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दबे पाँव (अध्याय 7)

16 मई 2022
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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

16 मई 2022
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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

16 मई 2022
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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

16 मई 2022
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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

16 मई 2022
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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

16 मई 2022
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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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