एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया।
मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होकर रेल घूमती, कतराती गई थी। गहरे-गहरे खड्ड, गरमियों में भी जल भरे नदी-नाले और कौतुकों से भरी हुई नर्मदा। मंडला जिले में ही तो कान्हाकिसली का विशाल, किंतु वर्जित जंगल है। मंडला जिले में ही छोटे से सुंदर नाम और बड़े दर्शनवाला - मोती नाला है। नाम 'मोती नाला' ही है, परंतु इस नाम का जंगल बड़ा और विस्तृत, विहंगम और बीहड़ है। मोती नाला के जंगल में शेर बहुतायत से पाए जाते हैं। मार्ग में 'जगमंडल' नाम का बड़ा वन मिलता है। सरही और सागौन के भीमकाय वृक्ष भरे पड़े हैं। जल भरे नदी नालों की कोई कमी नहीं।
जगमंडल नाम के जंगल में भी शेरों की काफी संख्या है। साँभर, चीतल, वाइसन और भैंसे भी मिलते हैं।
एक दिन तो हम लोग टोह-टाप में लगे रहे। जिस नाले में निकल जाएँ उसी में शेरों के पदचिह्न। एक नाले में दोनों किनारों से आड़ी पगडंडियाँ पड़ गई थीं। वहाँ पर रेत में शेरों के इतने निशान मिले कि हम लोग अचरज में डूब गए। झाँसी जिले के नालों में जैसे ढोरों के निशान मिलते हैं वैसे शेरों के मिले। कुशल यही रही कि नालों की घास में कोई शेर पड़ा हुआ नहीं मिला।
हम लोगों को ठहरने के लिए जंगल विभाग की एक चौकी मिल गई थी। साधन संपन्न जंगलों में डेरे तंबू लगाते हैं; परंतु इनकी टीमटाम देखकर अल्प साधनवाले मनचले शिकारी हतोत्साहित हो जाते हैं। वे सोचते हैं, न इतना साज सामान होगा, न बड़े जंगलों का भ्रमण और जंगलों का शिकार उपलब्ध होगा। मैं भी नहीं जा सकता था; परंतु मेरे एक निकट संबंधी इन जिलों में बड़े पद पर थे, इसलिए एक दरी और एक चादर लेकर झाँसी से बाहर निकल पड़ता था। उनका निषेध है, इसलिए नाम लेकर कृतज्ञतापन तक से विवश हूँ।
दूसरे दिन दुपहरी में भटक-भटककर हम लोग डेरे पर आ गए। साथ में मंडला से आटा ले आए थे; क्योंकि इस ओर गाँव में दाल-चावल और मिर्च-मसाला तो मिल जाता है, परंतु आटा दुर्लभ है। भोजन शुरू ही किया था कि एक गोंड ने आकर समाचार दिया - नाहर ने गायरा किया है। उसकी बोली में - 'नाहर गायरा किहिस।'
पत्तल छोड़कर हम लोग उठ बैठे। उस समय तीन बजे होंगे। मचान बाँधने का सामान, रस्से, पानी का घड़ा और बिस्तर इत्यादि साथ लिए और चल दिए।
एक नाले में झाँस के नीचे एक बड़ा बैल दबा पड़ा था। उस बैल की कहानी कष्टपूर्ण थी। उस जंगल में रेलवे लाइन पर बिछाए जानेवाले शहतीर स्लीपर काटे जा रहे थे और जबलपुर के लिए ढोए जा रहे थे। जबलपुर से एक गाड़ीवाला शहतीरों को ढोने के लिए अपनी गाड़ी लाया। शहतीरों तक नहीं जा पाया था, मार्ग में एक पानीवाला नाला मिला। गाड़ीवाला ने बैल ढील दिए और पुल के नीचे एक चट्टान पर खाना बनाने लगा। बैल जरा भटककर डाँग में चले गए। उनमें से एक को सेर ने मार डाला। उसको सेर उठाकर लगभग तीन फलाँग की दूरी पर ले गया और झाँस के नीचे एक छोटे से नाले में दाब दिया। उस समय उसने बैल को बिलकुल नहीं खाया। सोचा होगा, रात आने पर सुभीते में खाएँगे।
बैल को नाले में से निकलवाया। छह आदमी उसको बाहर निकाल सके। लगभग साठ डग पर एक ऊँचा बरगद का पेड़ था। नीचे जरा हटकर आम और तेंदू के छोटे-छोटे गुल्ले थे। इनको साफ करवाकर एक पेड़ के ठूँठ की खूँटी का रूप दिया गया। बाँस के खपचे निकालकर उनसे बैल को पेड़ के ठूँठ से जकड़कर बाँध दिया गया।
मैंने बाँधनेवालों से पूछा, 'इन खपचों को तोड़कर सेर बैल को उठा तो नहीं ले जाएगा?'
उन लोगों तान-तानकर खपचों को खींचा और आश्वासन दिया- 'शेर इन खपचों को कैसे भी झटके से नहीं तोड़ सकेगा।'
मेरे सामने से एक बार तेंदुआ रस्सी तोड़कर बकरे को उठा ले गया था। मैं उस जगह उस अनुभव को दुहराना नहीं चाहता था।
गोंडों और कोलों के आश्वासन को मैंने मान लिया। उसका तद्विषयक अनुभव काफी था। हम लोगों को उनकी बात पर संदेह करने के लिए कोई कारण न था।
उस रात चैत की पूर्णिमा थी। दिन में गरमी रही, परंतु रात का सलोना सुहावनापन तो अनुभव के ही योग्य था। चारों ओर से महक भरे मंद झकोरे आ रहे थे। कहीं से चीतल की कूक और कहीं से साँभर की रेंक सुनाई पड़ रही थी। सियार भी कभी 'फे' कर जाता था।
हमारी मचान भूमि से लगभग पच्चीस फीट की ऊँचाई पर थी। मचान लंबी-चौड़ी थी, सीधे डंडों से पूरी हुई। ऊपर गद्दा और दरी। एक ओर डालों के तिफंसे में जल भरा घड़ा और कटोरा रखा था। मचान एक ओर से खुली हुई थी और तीन ओर से पत्तों से आच्छादित। उस पर केवल रीछ चढ़कर आ सकता था; शायद तेंदुआ भी - क्योंकि मैंने तेंदुए को अपनी आँखों पेड़ पर सहज गति से चढ़ते देखा है परंतु शेर चढ़कर नहीं आ सकता था। मचान के सिरहाने की तरफ मैं बैठा था, दूसरी ओर मेरे मित्र शर्माजी। मेरे सामने का भाग ज्यादा खुला था, शर्मा जी के सामने का कम।
मेरे अन्य मित्र काफी दूर अन्य मचानों पर थे।
आठ बज गए। चाँदनी खूब छिटक आई। मेरे सामने सौ गज तक खुला हुआ मैदान था, फिर घनी झाड़ी शुरू हुई थी।
आठ बजे के उपरांत इस खुले हुए मैदान में लगभग अस्सी गज की दूरी पर एक सफेद सफेद सा ढेर दिखलाई पड़ा। मैंने आँखों को गड़ाया। वह ढेर स्थित था। सोचा, आँखों का भ्रम है। कुछ मिनट बाद वह ढेर हिला और मचान की ओर थोड़ा सा बढ़ा। विश्वास हो गया कि शेर है और बंदूक की अनी पर आ रहा है। मैंने शर्मा जी को इशारा किया। उन्होंने ने भी अपने झाँके में होकर देखा। वह लगभग आधे घंटे तक ठिठकता-ठिठकता सा चला। फिर उसने उस नाले पर छलाँग भरी, जिसमें वह दिन में मारे हुए बैल को ठूँस आया था। इसके उपरांत वह दृष्टि से लोप हो गया। बाट जोहते-जोहते ग्यारह बज गए। चाँदनी निखरकर छिटक गई थी। ठंडी-ठंडी हवा चल रही थी। शर्मा जी ने सिर और आँखों पर हाथ फेरकर नींद की विवशता प्रकट की। मेरे भी सिर में दर्द था। हम दोनों लेट गए। मैंने सोचा, गायरा प्रबल खपचों से बँधा हुआ है। शेर आकर जब बैल के उठाने का उत्कट प्रयत्न करेगा, हम लोग सोते ही न पड़े रहेंगे। लेटते ही सो गए, क्योंकि मचान पर किसी विशेष संकट की आशंका न थी।
चाँदनी ठीक ऊपर चढ़कर थोड़ी सी वक्र हो गई थी। एक बजा था, जब मुझको पेड़ के नीचे कुछ आहट मालूम पड़ी। मैं यकायक उठकर नहीं बैठा। मचान पर का जरा सा भी शब्द सुनकर यदि शेर होगा तो फिर नहीं आएगा- शायद महीने-पंद्रह दिन तक न आवे; क्योंकि शेर तेंदुए की तरह ढीठ नहीं होता। मैं बहुत धीरे-धीरे उठा। आँखें मलकर मचान के नीचे झाँका। कोई दो छोटे जानवर बरगद की सूखी पत्तियों को रौंद-रौंदकर बैल की घात लगा रहे थे। बैल को भी देखा संदेह था, कहीं उस समय शेर उसको न घसीट ले गया हो, जब सो रहे थे। बैल समूचा पड़ा था। शेर उसके पास नहीं आया था।
मैं कुछ क्षण ही इस तरह बैठा था कि सामने से शेर आता दिखलाई पड़ा। शेर के आने के पहले ही वे दोनों जानवर भाग गए। मैं जब लेटा था, मैंने अपनी राइफल का तकिया बनाया था। शर्मा जी दुनाली बंदूक छाती पर रखे हुए सो रहे थे। मैं राइफल को उठाने के लिए मुड़ नहीं सकता था। मुड़ते ही मेरी गति को शेर देख लेता और भाग जाता, सारी कमी कमाई मेहनत और लालसा व्यर्थ जाती। मैंने शर्मा जी की छाती पर से धीरे से दुनाली उठा ली। उनको जगाने का समय तो था ही नहीं। बंदूक के घोड़े चढ़े हुए थे और नालों में गोलियों के कारतूस पड़े थे। परंतु मुझे अपनी राइफल का अधिक भरोसा रहा है; लेकिन उस मौके पर राइफल उठाना मेरे लिए संभव न था। दुनाली लेकर मैंने बैल पर सीधी कर ली। झुक गया और एकाग्र दृष्टि से अपनी ओर आते हुए शेर को देखने लगा।
शेर बड़ी मस्त चाल से आ रहा था। बगल की पहाड़ी पर पतोखी बोली। अलसाते-अलसाते उठाते हुए अपने भारी पैरों को शेर ने एकदम सिकोड़ा, बिजली की तरह गरदन मरोड़ी, पीछे के पैरों को सधा और जिस पतोखी बोली थी उस ओर एकटक देखने लगा। जब वह उस ओर से निश्चिंत हो गया तब मचान की ओर बढ़ा।
खरी चाँदनी में उसकी छोहें स्पष्ट दिख रही थीं। सफेद भाल और छपके चमक रहे थे। भारी भरकम सिर की बगलों में छोटे-छोटे कान विलक्षण जान पड़ते थे। शेर जरा सा मुड़ा, तब उसके भयंकर पंजे और भयानक बाहु और कंधे दिखलाई पड़े। गरदन जबरदस्त मोटी और सिर से पीठ तक ढालू। उसके पुट्ठों को देखकर मन पर आतंक सा छा गया। सोचा, यदि बड़े-से-बड़ा खिसारा सुअर इससे भिड़ जाय तो कितनी देर ठहरेगा? परंतु सुअर इससे भिड़ जाता है और देर तक सामना भी करता है।
शेर फिर मचान के सामने सीधा हुआ। उसने मेरी ओर गरदन उठाई। चद्रंमा के प्रकाश में उसकी आँखें जल रही थीं। वह टकटकी लगाकर मेरी ओर देखने लगा और मैं तो आँख गड़ाकर उसकी ओर पहले से ही देख रहा था। एक क्षण के लिए मन चाहा कि गोली छोड़ दूँ; परंतु जंगल का शेर और इतना बड़ा जीवन में पहली बार देखा था, इसलिए मन में उसको देखते रहने का लालच उमड़ा। कभी उसके सिर और कभी उसकी छाती तो देखता था। ऐसी चौड़ी छाती जैसी किसी भी जानवर की न होती होगी।
शेर कई पल मेरी ओर देखता रहा। उसको संदेह था। वह जानना चाहता था कि मैं हूँ कौन? पर मैं अडिग और अटल था। उसको बाल बराबर भी हिलता नहीं देखा। जब शेर मेरा निरीक्षण कर चुका तब बैल के पास गया। उसने अपना भारी जबड़ा बैल के ऊपर रखा और दाढ़े गड़ाकर एक झटका दिया। एक ही झटके में कई आदमियों के बाँधे हुए बाँस के खपचे तड़ाक से टूट गए। दूसरी बार मुँह हाल कर जो उसने झटका दिया तो बैल तीन-चार हाथ की दूरी पर जा गिरा। इस समय उसकी पीठ मेरी ओर थी। उसने बैल को एक और झटका दिया। बैल चार-पाँच डग पर जाकर गिरा। मुझको लगा, अब यह चला। सवेरे जब मित्रगण इकट्ठे होंगे तब मेरी इस बात को कोई न सुनेगा कि मैं शेर की लोचों का अध्ययन कर रहा था सब कहेंगे कि मैं डर गया था। मैं मनाने लगा कि किसी तरह यह मेरे सामने अपनी छाती फेरे।
सेर ने कुछ क्षण के लिए मेरे सामने अपनी छाती की। बंदूक तो मिली हुई हाथ में थी ही। मैंने गोली छोड़ी। शेर ने काफी ऊँची उछाल लेकर गर्जन किया। शर्मा जी जाग उठे। उन्होंने भी सुना और देखा।
शेर ने नीचे गिरकर तुरंत एक तिरछी उचाट ली और आँखों से ओझल हो गया।
उसी समय मचान से उतरकर अनुसंधान करने का सवाल ही न था; क्योंकि कुछ पहले इसी प्रकार का प्रयत्न करते हुए इलाहाबाद के एक अँगरेज वकील श्री डिलन फाड़ डाले गए थे; और जैसा कि दो दिन बाद मंडला पहुँचकर हम लोगों ने सुना, कलकत्ता हाई कोर्ट के जज श्री चौधरी के भाई जो वकील थे इसी जंगल से कुछ मील दूर इसी रात इसी प्रकार के प्रयत्न में मार डाले गए थे।
हम लोग मचान से नहीं उतरे। बातें करते-करते सवेरा हो गया। हम लोगों के मचान से उतरने के पहले ही मित्र लोग वहाँ आ गए। आते ही उन्होंने भूमि का निरीक्षण किया। जहाँ गोली चली थी वहाँ खून की एक बूँद भी न थी।
एक साहब बोले, 'गोली चूक गई।'
मैंने कहा, 'असंभव।'
नीचे उतरकर देखा, शेर के खून की बूँदें मिलीं। जरा आगे बढ़े कि हड्डी के टुकड़े, और आगे बढ़े तो खून की धार। परंतु हड्डियों के टुकड़े और रक्त की धार लगभग आधा मील तक मिली। एक नाले में उसने पानी पिया और नाले के उस पार के जंगल की लंबी घनी घास में विलीन हो गया। कई दिन बाद उसकी लाश सड़ी हुई मिली। गोली हँसुली की हड्डी पर पड़ी थी। चोट करारी थी, परंतु फिर भी वह इतनी दूर निकल गया।
दूसरे दिन उसी मरे बैल के गायरे को बाँधकर शर्मा जी और मैं बरगद के मचान पर जा बैठे। रात भर जागते रहे, लेकिन मचान तले कोई भी नहीं आया। परंतु अन्य मित्रों को विचित्र अनुभव प्राप्त हुए।
कई मित्र मचान बाँधकर पानी के पोखरे के पास बैठे थे। शुद्ध चाँदनी रात थी। खूब दिखलाई पड़ता था। पोखरे पर पहले दो बाइसन आए। बाइसन के मारने की मनाही थी, इसलिए गोली नहीं चलाई गई। उनके उपरांत एक शेर आया। मित्र को सिगरेट पीने की थी आदत। इधर सिगरेट ने खाँसी पैदा की, उधर शेर छलाँग भरकर ओझल हो गया।
दूसरे मित्र भी एक सज्जन के साथ मचान पर बैठे थे, और यह मचान मैंने ही बँधवाई थी। मचान एक गहरे और चौड़े नाले के किनारे के एक पेड़ पर थी। नाले में पानी न था, परंतु जानवरों के निकलने का उधर होकर मार्ग था।
जब मैं नाले में खड़ा हुआ तब वह पेड़ काफी ऊँचा दिखलाई दिया। मैंने सोचा, इस पर का मचान बिलकुल सुरक्षित रहेगा। पर वह पेड़ किनारे के धरातल से केवल दस-ग्यारह फीट ही ऊँचा था।
दिन में मचान बाँधे जाने के बाद हम लोग सब अपनी-अपनी जगह जा बैठे। जब सवेरे सब लोग मिले, नाले की ढीवाले मचान के शिकारियों का अनुभव सुनकर हम सबको दंग रह जाना पड़ा। उन्होंने बतलाया -
'नौ बजे के लगभग मचान के पास गुरगुराने की आहट मिली। हम लोग सावधान होकर उस दिशा की ओर देखने लगे, जहाँ से गुरगुराहट सुनाई पड़ी थी। कुछ ही क्षण बाद एक बड़ी शेरनी अपने दो बच्चों के साथ धीरे-धीरे झूमती-झूमती मचान के नीचे आई। बच्चे कलोल में थे और गुरगुरा रहे थे। शेरनी मचान के नीचे बैठ गई। वह जरा सी उठाल लेकर मचान पर बैठे हुए शिकारियों के नीचे पटक ला सकती थी। शेरनी के बच्चे कभी आपस में उलझते और लिपटते, तो कभी शेरनी के भारी शरीर को अपने खेल-कूद का अखाड़ा बनाते। जब दूरी से चीतल या साँभर की आवाज आती तो शेरनी अपने पंजे की मुलायम गद्दी से बच्चों को चुपका कर देती और जबड़े को जमीन से सटाकर ध्यान के साथ कुछ सुनती और देखती। चंचल बच्चे जब उसकी गहरी बगलों में से, उतावले होकर, जंगल के जगत का कारबार समझने के लिए सिर उठाते, वह पंजे की गद्दीदार ठोकर से उनको बुद्धि देने का प्रयास करती। एक बार एक बच्चा कूदने-फाँदने के लिए विकल हो गया तो शेरनी ने हलकी सी चपत जमा दी। चपत ने उस बच्चे को कुछ समझदारी दी और कुनमुनाकर अपनी माँ की बगल में सट गया। थोड़ी देर में नाले के उस पार पेड़ों की छाया में एक बड़ा आकार आया। समझ में नहीं आया, क्या था। शेरनी उस आकार को देखकर फरफराकर खड़ी हो गई और उसने अपने गले में जिस स्वर को दबाकर नाक से निकला, वह बहुत दूर से सुनाई पड़नेवाली भूकंप की सी आवाज थी। मचान पर बैठे एक शिकारी ने बंदूक पर उँगली पसारी। दूसरे शिकारी ने हाथ पकड़ लिया। बिलकुल संभव यह था कि शेरनी केवल घायल होती और निश्चित यह था कि वह घायल होकर मचानवाले किसी भी शिकारी को न छोड़ती।'
मचान बँधवाने के समय मेरे मन में, पेड़ की ऊँचाई के विषय में, नाले की गहराई में खड़े रहने के कारण भ्रम हो गया था। वैसे वह मचान तो तेंदुए के भी शिकार के योग्य न थी।
बाहर फीट की ऊँचाईवाली मचान से तो एक बार नयागाँव छावनी के पास तिंदरी पहाड़ी के नीचे एक पेड़ पर मचान बाँधकर बैठे हुए शिकारी को घायल होते ही तेंदुए ने उछलकर नीचे पटक लिया था और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले थे। फिर शेर के लिए यह मचान केवल दस-ग्यारह फीट की ही ऊँचाई पर थी। बंदूक चल जाती तो गजब हो जाता।
एक चौथी मचान और थी। उस मचान को एक बिलकुल बेढंगी सुनसान जगह में बाँधने की सूझ शिकारी को उसकी झक ने दी थी। शिकारी बिलकुल अकेले, बहुत दूर और बिलकुल बीहड़ झाड़ी में बैठना चाहते थे - शेर वहाँ आए, चाहे न आए।
शेर तो क्या, उनके मचान के पास एक चूहा भी नहीं आया। लाल आँखों सवेरा हुआ।
इसके बाद मैं अनेक बार अमरकंटक पहाड़ पर शेर के लिए गया। अमरकंटक पहाड़ के पठार के समतल पर एक छोटा सा खेत है। उसकी पश्चिमी दरार आगे चलकर नर्मदा बनी है और पूर्ववाली सोन। मजे में अपने दोनों पैर दोनों दरारों पर रखे जा सकते हैं; परंतु कुछ मील जाकर उस पठार पर से दोनों के भयंकर प्रपात हैं। अमरकंटक पर कुछ पेड़ ऐसे मिले, जिनके पत्तों से जून के महीने में रात्रि के समय बारीक फुहार झरती थी। वहीं मलिनियाँ नाम की एक बेल देखी, जिसमें लाल-लाल छोटे-छोटे फल लगे थे। हम लोगों ने फल चखे, स्वादिष्ट लगे। ग्रीष्म ऋतु में बघेलखंड के अनेक किसान अपने ढोर अमरकंटक के पठार पर चराने के लिए ले आते हैं।
पठार प्रकृत्ति के सौंदर्य का कोष है। उन दिनों जंगल में फूलों से लदे जूही के पेड़ मैंने विंध्यखंड के इसी स्थान में देखे। घूमते-घूमते एक स्थल पर पहुँचे, जिसको 'सूमपानी' कहते थे। सूमपानी शायद इसलिए कि पानी पहाड़ में से थोड़ा-थोड़ा करके रिसता था। इस पानी के आगे पहाड़ की एक घूम थी और मार्ग सँकरा। नीचे बड़ा भारी खड्ड। हम लोग घूम के इस सिरे पर थे, दूसरे सिरे पर कोमल कंठ निःसृत एक सामूहिक गान सुनाई पड़ा। ऐसे घने बीहड़ जंगल में यह सुरीला गान कहाँ से आया? थोड़ा आगे बढ़े तो जंगल की कुछ स्त्रियाँ और कन्याएँ रंग-बिरंगे फूलों से अपने केश सजाए, डलियाँ बगल में दाबे, फटे कपडे पहने आ रही थीं। हम लोगों को देखकर वे संकोच में मुसकाईं और गाना बंद कर दिया। हम लोग आगे बढ़ गए। मेरे मन में एक टीस उठी- हमारे देश की सुंदरता और संस्कृति ऐसी दरिद्रता में सनी हुई है।
जब पठार पर पहुँचकर नर्मदा के प्रपात को देखने गए, ऊपर की ओर बगल में एक छोटा सा बंगला देखा। उसमें शायद कोई संन्यासी या प्रवासी रहते थे। संन्यासी का अनुमान इसलिए करता हूँ कि उसमें से वनकन्या या देवकन्या के समान सौंदर्यवाली एक युवती निकली, जो गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थी और चौड़े मस्तक पर भस्म का त्रिपुंड लगाए हुए थी। यदि जीवन रोमांस है - मुझे तो बहुलता के साथ मिला है तो उस कुटी में अवश्य था।
प्रपात के नीचे हम लोग नहाने को उतरे। स्नान से निवृत्त हुए थे कि समाचार देनेवाले ने सूचना दी 'नायरा ने गायरा किया है।' जेबों में गुड़ और भुने हुए चने डाले और रास्ते में खाते-पीते, पहाड़ के उतार-चढ़ाव को नापते हुए सूर्यास्त के पहले पाँच मील की दूरी तय करके गायरे के पास पहुँच गए। एक खड्ड के ऊपर बड़ा पेड़ था। उसपर कलमुँहे बंदर बहुत चीं-चिख कर रहे थे। जरूर शेर वहीं कहीं छिपा होगा, हम लोगों ने निष्कर्ष निकाला। पास ही एक मारे गए भैंसे का गायरा पड़ा था।
शेर जानवर की गरदन ऊपर से पकड़ता है और तेंदुआ नीचे से। भैंसे की गरदन पर ऊपर से दाढ़ों की फाँस पड़ी थी। निश्चय ही उसको शेर ने मारा था।
परंतु मचान बनाने में इतना हो हल्ला हुआ की शेर नहीं आया। रात भर आँखें गड़ाए रहे, लेकिन सिवाय एक रीछ के और मचान के पास कोई जानवर नहीं निकला।
शेर के लिए मैंने होशंगाबाद के भी कुछ जंगलों को छाना है। जंगलों की विशालता और महानता तो देखने को मिली, परंतु शेर नहीं मिला। एक स्थान पर गायरे की खबर पाकर गए। शेर ने गाय मार डाली थी। एक ऊँची मचान बनाई। चारों ओर से उसको ढाँका। सूर्यास्त के पहले ही मचान पर आसन जमा लिया। परंतु ठीक समय न जाने कहीं से असंख्य चींटे आ गए। आफत हो गई। बड़ी कठिनाई के साथ उनसे पार पा रहे थे कि पगडंडी पर शेरनी आती हुई दिखलाई दी। मंडला जिले में जो शेर देखा था उससे छोटी थी; परंतु उससे कहीं अधिक लचीली और फुरतीली। मैं चींटा युद्ध में व्यस्त था। मचान थोड़ी-थोड़ी हिल रही थी। शेरनी ने देख लिया, वह तुरंत चल दी। एक बार अपने जिले की हद से जरा हटकर हम लोग शिकार खेलने के लिए गए। संध्या के समय ठीहे के लिए जा रहे थे कि बगल की छोटी सी झाड़ी में शेर दिखलाई पड़ा। गोल बाँधकर हम लोग उसके पीछे पड़ गए। भाग्य की बात कि वह हम लोगों से अधिक बुद्धिमान था, वह भाग गया और हम लोग अपने सिर चिथवाने से बच गए।
ठीहे के लिए आगे बढ़े। बादल घिर आए और इतनी जोर का पानी बरसा कि शिकार-विकार सब भूल गए। कपड़े, बिस्तर, हथियार - सब बिलकुल जलमग्न हो गए। जब ठौर पर पहुँचे, घंटों कपड़ों के सुखाने में लग गए। दो बजे रात को कुछ भोजन मिला और तीन बजे थोड़ी सी नींद। सवेरे एक गप्पी ने शिकार के बड़े-बड़े सब्जबाग दिखलाए। कमबख्ती के मारे ऊँट चढ़े कुत्ते काटते हैं। दो दिन पहाड़ों में मारे-मारे फिरे, भूखे-प्यासे, कुछ भी न मिला। मिला क्या, दिखा तक नहीं। परंतु मसखरे साथी संग में थे, इसलिए भूख-प्यास, भटक और वह कठोर वर्षा के भी नहीं अखरी। जब लौटकर झाँसी आया तब मालूम हुआ श्री बद्रीनाथ भट्ट आए हुए हैं। भट्ट जी पुराने मित्र थे। उन दिनों अस्वस्थ थे। जलवायु परिवर्तन के लिए आए थे। झाँसी से दो मील दूर मैंने एक कृषि फॉर्म बनाया था और एक मकान खड़ा कर लिया था। एकांत स्थान और जलवायु अच्छा। भट्ट जी वहीं ठहर गए।
मुझसे बोले, 'लोग कहते हैं कि हिंदी के लेखक होकर आप शिकार खेलते हैं।'
मैंने कहा, 'लोगों का आरोप ठीक ही होगा, क्योंकि हिंदी के लेखक सिवाय धर्म और नीति के और किसी विषय पर लिखते ही कहाँ हैं!'
भट्ट जी विकट दुःख दर्द में भी हँसने हँसान में सचेष्ट रहते थे।
उन्होंने कहा, 'देखिए, हिंदी का लेखक उनको कहना चाहिए, जो सदा सिर झुकाकर चले, इधर-उधर कुछ न देखे। और बाजार में जब कोई सौदा लेने जाय तब चार पैसे की चीज के चार आने देकर घर आवे।'
मैंने भट्ट जी को इस बार की अपनी शिकार यात्रा का विवरण सुनाया। उसमें मनोरंजन के लिए कोई सामाग्री न थी, केवल पैर तोड़नेवाली यात्रा के क्रम थए।
उस दिन की कठोर वर्षा के दुःख को तो मैं जल्दी भूल गया, परंतु उससे लड़ने में जो प्रयत्न किया था, वह सदा याद रहा।