शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती है, जिसमें उसने गायरा किया हो- क्योंकि गायरा करके वह आस पास ही कहीं छिप जाता है। तब लगानवालों को पूरी चुप्पी साधकर बैठना पड़ता है। शेर को लगानवालों के पास भेजने के लिए पेड़ पर कुछ लोग बैठ जाते हैं; यदि सेर भटककर उनकी ओर आता है तो वे कंकड़ बजा देते हैं और शेर मुड़कर लगानवालों की ओर चला जाता है।
कुछ लोगों का अनुभव है कि शेर आदमियों के बीच से ढोर को पकड़ ले ताजा है; परंतु ऐसे लोगों का यह भी कहना है कि आदमियों के हल्ला-गुल्ला करने पर शेर डरकर, छोड़कर भाग जाता है।
अनेक शिकार यह कहते हैं कि घायल होने पर ही शेर शेर बनता है; वैसे तो वह डरपोक जानवर है। सदा अपनी रक्षा की चिंता में रहता है।
एक अँगरेज शिकारी ने घायल शेर के रोमांचकारी पराक्रम का वर्णन किया।
अँगरेज और उसकी पत्नी दोनों शिकार खेलने गए। वे निकट मचानों पर पृथक-पृथक बैठे। हँकाई हुई। शेर पहले पुरुषवाले की मचान के पास आया। वह अपनी पत्नी को शिकार खिलाना चाहता था, इसलिए उसने बंदूक नहीं चलाई। शेर उसकी पत्नी की मचान के पास पहुँचा। उसने बंदूक चलाई। शेर घायल हो गया। घायल शेर ने उस स्त्री को देख लिया। शेर मचान पर पहुँचने के लिए पेड़ पर चढ़ा। स्त्री ने बंदूक की गोलियाँ खर्च कर डाली, परंतु शेर न मुड़ा।
उसका पति यह सब देखकर बहुत घबराया। शेर स्त्री के निकट पहुँचता चला जा रहा था। अँगरेज पत्नी को चोट पहुँचने के भय से बंदूक नहीं चला रहा था। वह अपने मचान से उतरा। शेर झपट मारकर स्त्री पर टूटना ही चाहता था कि उसने अपनी पत्नी को बरकाते हुए गोली चलाई। स्त्री डर के मारे मचान से नीचे जा गिरी और घायल शेर गोली खाकर जमीन पर लुढ़का। स्त्री बच गई। शेर मर गया। शेर संबंधी और अनेक मनोरंजक घटनाएँ हैं।
शेर का मेरा अनुभव यद्यपि अन्य शिकारियों की अपेक्षा अधिक विस्तृत नहीं है, तथापि समकक्ष अवश्य होगा।
अप्रैल सन् 1946 की बात है। मैं ओरछा राज्य (श्यामसी) वाले फॉर्म पर था। इस फॉर्म के निकट ही राज्य का रक्षित वन है। जानवर तो उसमें कम हैं, परंतु जंगल पर्वतमय होने के कारण सुंदर है।
मेरे पास शिकार खेलने का लाइसेंस था। एक दिन पहले तक काफी परिश्रम कर चुकने के कारण सोचा कि जंगल की सैर कर आऊँ। बैलगाड़ी पर गया।
मेरा फॉर्म प्रबंधक बिंदेश्वरी गाड़ी हाँक रहा था। गाड़ी में मेरे पास एक बुड्ढा और बैठा था। फॉर्म से गाड़ी लगभग साढ़े छह बजे सुबह चली। चार-पाँच फर्लांग चलने के उपरांत सूरज ऊपर चढ़ आया।
फॉर्म और रक्षित वन के बीच सिंगा नाला है। नाले की चढ़ाई साधारण है। चढ़ाई पार करते ही सघन वन मिलता है। उसी स्थान पर छोटा सा नाला ऊपर आकर उस नाले में दाईं ओर मिला है। नाले पर हिंस, मकोय, करधई, नेगड़ और पलाश के छुटपुट पेड़ हैं।
मैं आगे की ओर मुँह किए था, एक बुड्ढा बगल में। बैल मट्ठर थे और धीमे-धीमे चल रहे थे।
बुड्ढे ने मेरी बगल में धीरे से कुहनी से स्पर्श किया और कहा, 'नाले के ऊपर और पत्तों के बीच चीतल पड़ा है।'
मैंने तुरंत उस ओर देखा। गाड़ी खड़ी करवा दी। पत्तों के पीछे शेर खड़ा था। खरी छौहोंवाला दीर्घकाल पूरा शेर। बुड्ढे ने पहले कभी शेर न देखा था, इसलिए उसे चीतल का भ्रम हआ।
मैंने बिंदेश्वरी और बुड्ढे से कहा, 'नाहर है।' वे दोनों उत्सुकता के साथ उसे देखने लगे। बंदूक मेरी तैयार थी, परंतु लाइसेंस में शेर के शिकार की अनुमति न होने के कारण बंदूक चलाने का लालच तक मन में न आया। परंतु मुझको एक कल्पना सूझी।
लोग कहते हैं कि मनुष्य की आवाज पर सेर भाग जाता है, परंतु वह अडिग रहा, और मैंने जोर के साथ बातचीत की थी, तो भी वह नहीं हटा था। मैंने शेर की हुंकार-गर्जन का अभिनय अपने कंठ से किया। मैं कम से कम पच्चीस बार गरजा।
फिर भी शेर वहाँ से न हिला।
मैंने सोचा, इतना खेल काफी है। गाड़ी आगे बढ़वाई। मुश्किल से चालीस-पचास कदम बढ़ी होगी कि शेर दाईं ओर से चलता हुआ बिलकुल आड़ा आ खड़ा हुआ। हम लोगों के और उसके बीच कोई आड़ नहीं थी; न एक पत्ता और न एक सींक। इस बार गोली चलाने का लोभ मन में हुआ; परंतु लाइसेंस की बाधा के कारण रुक गया।
शेर पूर्व की दिशा की ओर था। उसके ऊपर से सूर्य की किरणें रिपट रही थीं। गाड़ी से वह पचास-साठ डग के अंतर पर होगा। मुझको फिर शरारत सूझी। और मैंने फिर उसके गर्जन की नकल की। अव की बार शेर ने अपना जबड़ा जरा नीचे को लटकाया और अगला पंजा लगभग एक इंच जमीन से उठाकर फिर रखा- मानो सोच रहा हो कि इस अभद्रता का क्या उत्तर दूँ। मुझको भी संदेह हुआ। दाल में काला समझकर मैंने गाड़ी हँकवाई।
मार्ग में एक मोड़ था, लगभग पचास गज का। इस मोड़ से शेर नहीं दिखलाई पड़ रहा था; परंतु जैसे ही मोड़ साफ हुआ, देखा कि शेर गाड़ी के पीछे-पीछे आ रहा है।
मैं समझ गया कि शेर चिढ़ गया है और उसकी नियत में फर्क है, शायद आक्रमण करेगा।
मैंने बिंदेश्वरी से कहा, 'गाड़ी तेज चलाओ।'
उसने बहुत प्रयत्न किया, यहाँ तक कि बैल को ठोकर मारते-मारते एक पैर का जूता खिसककर गिर गया; परंतु बैल मट्ठे थे, इसलिए न बढ़े। बैलों ने शेर को नहीं देखा था, और पश्चिम का पवन होने के कारण उन्होंने सेर की गंध भी नहीं पाई थी, नहीं तो गाड़ी को फेंक-फाँककर भाग जाते।
शेर के मार्ग में जूता आया। उसने एक छोटी सी छलाँग मारकर इस अपशकुन को पार किया।
बिंदेश्वरी चुप्पा बहादुर है। उसका धीरज उसकी गाँठ में था; परंतु बुड्ढे के चेहरे पर मैंने घबराहट के लक्षण देखे। वह पीछे बैठा था। डर लगता था, कहीं वहीं का वहीं न टपक जाए। मैंने अपने दोनों साथियों को चिल्लाकर ढाढ़स दिया।
मैंने शेर पर गोली न चलाने का निश्चय कर लिया था, क्योंकि मैं ओरछा नरेश के सौजन्य का अपमान नहीं करना चाहता था।
परंतु इधर अकेले मेरे ही नहीं, मेरे दो साथियों के प्राणों पर आ बनी थी, जिसमें बिंदेश्वरी तो मेरे कुटुंब का एक अंग सा ही था।
गाड़ी अपनी गति से चली जा रही थी। शेर मानो नाप-नापकर अपने और गाड़ी के बीच के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
मैंने पूरे जोर के साथ चिल्लाना शुरू किया, 'हट जा, भाग जा, कमबख्त! अभागे हट जा, भाग जा।'
मैं इतना चिल्लाया कि अंत में मेरा गला बैठने लगा। सुनसान जंगल में मेरी चिल्लाहट गूँज-गूँज जा रही थी। चिल्लाहट के कारण मेरे कान सनसना रहे थे; परंतु हम लोग भयभीत नहीं हुए थे।
जब जब मैं चिल्लाहट को और अधिक कठोर और भीषण बनाता, तब-तब शेर जरा सा, बहुत जरा सा सहमता जान पड़ता; परंतु वह रुका नहीं। उत्तरोत्तर अपने और गाड़ी के अंतर को कम करता चला आ रहा था।
उसके पंजों से नाखून निकल-निकल पड़ रहे थे। मूँछें खड़ी थीं। बड़ी-बड़ी आँखें जल रही थीं।
दो फर्लांग चलने के बाद अंतर केवल पच्चीस-तीस कदम का रह गया था।
चिल्लाते-चिल्लाते मेरा गला लगभग बैठ गया था। शेर को केवल दो लंबी छलाँगें मारने की कसर थी कि हम तीनों की हड्डी पसली एक हो जाती। यदि भागनेवाले तेज बैल होते, तो भी पार नहीं पा सकते थे; क्योंकि शेर भी उसी अनुपात में अपना डग बढ़ाता।
अब केवल एक विकल्प कल्पना में आ रहा था - या तो शेर गाड़ी पर कूदकर हम लोगों को चबाता है या फिर उसपर राइफल चलाकर उसकी गति को कुंठित करना चाहिए।
परंतु इस विकल्प में एक बड़ी बाधा थी - पहाड़। ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर गाड़ी चल रही थी। शेर उलटा-सीधा हम लोगों की ओर बिना रुके हुए चला आ रहा था। निशाना नहीं बाँधा जा सकता था। ऐसी परिस्थिति में वह शायद घायल ही होता और फिर घायल शेर वास्तव में शेर होता है। फिर वह किसी हालत में भी हम लोगों को न छोड़ता।
तब एक और उपाय सूझा। मैंने सोचा, शेर के आगे जरा अंतर पर गोली छोड़नी चाहिए। शायद बंदूक की आवाज और गोली से उडी धूल के कारण डरकर लौट जाय। शायद गोली से उचटी हुई धूल उसकी आँखों में पड़ जाय। तब तक हम लोग, मंथर गति से ही सही, जान बचा ले जाएँगे। और यदि यह उपाय विफल हुआ तो एक अंतिम संकल्प वही था - ताककर सेर के सिर पर गोली चलाना। फिर लगे कहीं भी।
मैंने तुरंत बढ़ते हुए शेर के सामने गोली चलाई, ऐसी कि उसके फुट या दो फुट आगे पड़े। गोली चलते ही अर्राट का शब्द हुआ। उसके सामने धूल भी उड़ी। शेर की हिम्मत डिग गई।
वह लौट पड़ा और जंगल में विलीन हो गया। हम लोग अपने प्राणों की कुशल मनाते हुए घर लौट आए।