चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम लेता है। चिंकारा थोड़ी दूर ठहरता है। चिंकारा झोरों और भरकों में अधिक रहता है। तिल और गेहूँ के उगते हुए पौधों को खोंट-खोंटकर नुकसान पहुँचाता है; परंतु हिरन की अपेक्षा कम। हिरन से छोटा है। सींग भँजे हुए और सीधे खड़े होते हैं। मादा के भी सींग होते हैं, परंतु छोटे-छोटे। मादा हिरन के सींग नहीं होते हैं। और बातों में दोनों मिलते जुलते हैं। ये दोनों दिन में दो-तीन बार पानी पीते हैं। रात भर कुछ-न-कुछ खाते ही हैं। दिन में काफी चरते हैं; परंतु सोने को भी कई घंटे देते हैं। सोते समय इनके झुंड के दो-एक होकर चौकसी करते हैं। खतरे का शक हुआ कि पहरेवालों ने चौकड़ी ली और बाकी भी तुरंत सचेत होकर भाग निकले।
दोनों वर्गों का जनन समय वसंत ऋतु है। जब पलाश के पत्ते झड़ जाते हैं और उसमें बड़े-बड़े लाल फूलों के गुच्छे लगते हैं, तब इनके छौने कूदने-फाँदने लायक हो जाते हैं।
दोनों जानवर काफी मजबूत होते हैं। पेट की गोली खाकर बहुत दूर निकल जाते हैं। मर तो जाते हैं, परंतु उनको पीड़ा होती है। सिर से लेकर जोड़ तक का निशाना ही शिकारी को अपयश ने देगा।
किसान और बहेलिए रस्सियों का जाल बनाकर इन जानवरों को पकड़ते हैं और लाठियों से मार डालते हैं, परंतु यह शिकार शिकार नहीं है।
हिरन और चिंकारे सूर्यास्त के पहले ही खेती चरने के लिए जंगल से निकल पड़ते हैं और सूर्योदय के उपरांत खेतों को छोड़ते हैं। बहुत से तो खेतों में या उनके बिलकुल करीब के झाड़-झंखाड़ में गुप्त हो जाते हैं और अवसर मिलते ही खेतों में घुस पड़ते हैं। जब गेहूँ और चने के पौधे बड़े हो जाते हैं तब इनको छिपने का काफी सुभीता मिल जाता है। ज्वार और बाजरा के पेड़ों में तो अनेक झुंड बसेरा ही डाल लेते हैं। ऐसी हालत में बिना हाँके के इनका शिकार दुःसाध्य है।
इनके हाँके का शिकार बहुत संकटमय है। खड़ी खेती के दो-तीन ओर से हँकाई होती है। एक कोने पर बंदूकवाला खड़ा हो जाता है। ये जानवर झुंड बाँधकर खेतों में से नहीं निकलते। कोई इधर होकर भागता है और कोई उधर होकर। शिकारी अनुभवहीन हुआ तो वह भी मोहवश अपना ठौर-ठिकाना छोड़ देता है और धाँय-धाँय कर उठता है। कभी-कभी इसका फल भयंकर होता है। गोली या छर्रा बंदूक को छोड़ते ही फिर शिकारी के बस का नहीं रहता, और वह किसी भी हँकाईवाले के शरीर में जाकर धँस सकता है।
ये जानवर घरने जंगल या पहाड़ों में नहीं रहते। बिखरी-सँकरी झाड़ी और भरके ही इनके घर हैं। इन्हीं स्थानों में गाँववाले और जंगलवासी घास व लड़की के लिए घूमते-फिरते रहते हैं। इसलिए शिकारियों के बहुत सावधानी के साथ इन स्थानों में बंदूक चलानी चाहिए। मैं यह बात उपदेश के तौर पर लिख रहा हूँ। आप बीती घटनाओं के अनुभव की बात कह रहा हूँ।
एक बार हिरन में से छर्रे का एक दाना निकलकर एक गाँववाले के पैर में धँस गया था। कुछ कठिनाई के साथ निकलवा पाया था। हड्डी बच गई, नहीं तो उसकी एक टाँग बेकार हो जाती।
एक दुर्घटना मेरी बंदूक से नहीं ही थी; परंतु हुई थी मेरे निकट।
एक बार एक मित्र की गोली से मेरी खोपड़ी भी बाल-बाल बची। मेरे वे मित्र कान से कम सुनते थे। निशाना भी बहुत सुहावना नहीं लगाते थे। परंतु मेरे साथ मटरगश्त करने की कामना उनके मन में बहुत दिन से थी। कई बार मैंने उनकी इच्छा को टाला। परंतु एक बात तो वे बिलकुल ही सिर हो गए। साथ गए। जंगल में छोटे-छोटे नाले थे। उन नालों की तली में हाँकवाले और नालों के किनारों पर हम लोग एक-दूसरे के कंधों के सामने थे। फासला काफी था। हँकाई के पहले तय हो गया था कि मुँह के सामने की तरफ बंदूक चलाई जावेगी, न तो अगल-बगल और न पीछे।
हँकाई में जानवर निकले। वे नाले की तली की सीध में भागे; परंतु तितर-बितर होकर। मेरे मित्र पहले तय की हुई सब बातों को भूल गए। नाले में उतर पड़े और मेरी ओर बंदूक दाग दी। उनकी बंदूक का निशाना जानवर पर तो नहीं पड़ा। एक समूचा टीला उनकी अनी पर चढ़ा और गोली फिसलकर भनभनाती हुई मेरे सिर पर से निकल गई।
मैंने उनको चिल्लाकर बुलाया। जब पास आए, मैंने उनसे पूछा -
'यह क्या किया, साहब?'
मेरे वे मित्र हकलाते थे।
उन्होंने हकलाकर उत्तर दिया, 'क क क्या ज ज जानवर घायल हो हो हो गया?'
मैंने कहा, 'जि जि जि जी नहीं। केवल मिट्टी का टि टि टि टीला थोड़ा सा घायल हुआ और मेरी खो खो खोपड़ी बिलकुल बच गई।'
फिर हँसी के तूफान में हम लोग उस घटना को भूल गए।
इन मित्र को सावधानी का यह पहला पाठ शायद रट-रटकर याद करना पड़ा होगा। परंतु इस बात के बतलाने में कोई हानि नहीं जान पड़ती कि वे इस पहले 'श्रीगणेश' को बिलकुल भूल गए।
एक बार जंगल और बेतवा की ऊबड़-खाबड़ भूमि का सपाटा भरने के बाद उन्होंने दुबारा-तिबारा घूमने का हठ किया। उनका हँस-हँसकर हकलाना और किसी भी परिस्थिति में रुष्ट न होना हमारी छोटी सी शिकार मंडली को बड़ा भला लगता था, इसलिए उनको संकटसंपन्न समझते हुए भी मैं साथ लेने लगा।
फागुन का महीना था। खरी चाँदनी रात। तय हुआ कि पत्थरों और ढोंकों के समूहों में हम लोग बिखरकर बैठें। इन पत्थरों के अगल-बगल से संध्या के उपरांत प्रायः जानवर निकल पड़ते थे। हम सब अपने चुने हुए स्थानों पर जा बैठे।
बैठे-बैठे रात के दस बज गए। साथ में खाना था और पास ही बेतवा का निर्मल जल। भूख भी लग आई थी। जानवर कतराकर निकल चुके थे। कोई आशा शिकार की न रही। मैं अपने स्थान से उठा। सीटी बजाई। अन्य मित्र मेरे पास आकर इकट्ठे हो गए; परंतु ऊँचा सुननेवाले मित्र न आए। सीटी का उनपर प्रभाव ही क्या पड़ सकता था! हम लोग उनके स्थान की ओर चले। पैर पटकते हुए, खाँसते हुए और थोड़ी सी बातें करते हुए भी। ज्यादा शोर इसलिए नहीं कर रहे थे, क्योंकि नदी ही में रात को यत्र-तत्र लेटना था - शायद सवेरे तक कोई शिकार हाथ लग जाय।
अच्छा प्रकाश था। मित्र के कान के भरोसा तो न था, पर आँख का था। आवाज न सुनेंगे तो आँख से हम लोगों को देख तो लेंगे। तो भी हम लोग डरते-डरते उनके पास पहुँचे। लगता था, कहीं जानवर समझकर बंदूक न दाग दें।
देखें तो मित्र एक पत्थर से टिके हुए खर्राटे कस रहे हैं। बंदूक दूसरे पत्थर से टिकी हुई है। मैंने चुपचाप उनकी बंदूक उठाई और एक साथी को दे दी। वे सब जरा दूर चले गए। थोड़ी देर बाद मैंने नाम लेकर उनको पुकारा। वे हड़बड़ाकर उठ बैठे। मैं उनके सामने एक पत्थर पर बैठ गया। वे उस पत्थर को नहीं देख सकते थे, जिनके सहारे थोड़ी देर पहले ही उनकी बंदूक टिकी थी।
वे समझे, उनकी नींद को मैंने नहीं भाँपा।
कुछ लोग एक आँख सबको देखते हैं; परंतु वे किसी कान भी दुनिया भर की कुछ नहीं सुनते थे - और सबको ऐसा समझते भी थे।
बोले, 'बाट जो जो जोहते बड़ी देर हो गई। कोई भी जानवर नहीं निकला।'
मैंने कहा, 'मेरे पास से एक जानवर निकला। मैंने बंदूक चलाई। घायल होकर इसी ओर आया है। यहीं कहीं पड़ा होगा।'
वे बारीकी से मेरे चेहरे पर शरारत ढूँढ़ने लगे। मैं बिलकुल गंभीर था। बेचारे कुछ भी न ताड़ पाए।
मैंने प्रस्ताव किया, 'चलो न, जरा ढूँढ़ें।'
हम दोनों उठ खड़े हुए।
उन्होंने आँख बचाकर बंदूक की खोज की। बंदूक तो पहले ही खिसका दी गई थी। मैं आहट लेने के बहाने दूसरी ओर मुँह किए था।
मित्र परेशान थे - बंदूक कहाँ गई? कैसे चली गई? रहस्य देर तक छिपा नहीं रह सकता था।
मैंने कहा, 'वह घायल जानवर तुम्हारी बंदूक लेकर चंपत हो गया है।'
वे समझ गए और हँस पड़े। उनको स्वीकार करना पड़ा, 'मैं जरा देर के लिए झप गया था। इस बीच में आप आए और मेरी बंदूक उड़ा ले गए।'
मैंने कहा, 'बाट जो जो जोहते बड़ी देर हो गई। यहाँ तक कि ज ज ज जानवर बंदूक ही ले भागा।'
अधमुँदे कानवालों को शिकार का साथी बनाना अनगिनत आफतों को न्योता देना है।
इसके बाद फिर शायद ही कभी वे मेरा साथ आए हों। साथ आते, परंतु मैं सदा टाला-टाली करता रहा। यह टाला-टाली उनके हित में तो शायद थी ही, हम लोगों के हित में निर्विवाद थी।
यह सब जानते हुए भी नए शिकारियों को साथ लेना ही पड़ता है; परंतु इनको आरंभ में किसी अनुभवी शिकारी के साथ लगा देना श्रेयकर है। इससे उनका कोई अपमान न होगा और शिकारियों तथा हाँकेवालों की जान विपद् में पड़ने से बची रहेगी।