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दबे पाँव (अध्याय 6 )

16 मई 2022

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल पीली खैली होती है और उसपर सफेद चित्ते होते हैं। सिर से लेकर रीढ़ तक एक काली कैरी चौड़ी रेखा होती है, जिसमें पूँछ तक दुतरपा बुंदे होते हैं। रंगों की भिन्नता पर जब उगते हुए सूर्य की किरणें रिपटती हैं तब चीतल सचमुच स्वर्णमृग जान पड़ता है।

परंतु जब रात भर ज्वार, तिली, गेहूँ और चने के खेतों को चरकर, ऊँची-ऊँची बिरवाइयों को लाँघकर चीतल अपने कूकों से घंटे-दो घंटे की नींद पाए हुए किसान को जगाता है, तब वह किसान इसको 'स्वर्णमृग' के नाम से नहीं पुकारता। वह जलती हुई आँखों से अपनी उजड़ी हुई खेती को देखता है और सूखे भर्राए हुए कंठ से केवल गालियाँ देकर रह जाता है।

चीतल बहुत ही चालाक और सावधान जानवर है। झुंडों में रहता है। नर झुंड के बीच में या लगभग पीछे रहता है। नेतृत्व मादा करती है। जंगलों और पहाड़ों में इस जानवर का निवास है। किसान दिन भर काम करके संध्या के बाद ही अपने खेत के ढबुए पर चली जाती है। आग सुलगाकर खेत की सुनसान मेंड़ पर रख दी और तंबाकू पीकर ढबुए में जा लेटा। दस-ग्यारह बजे तक हू-हा की, फिर झपकी आ गई। जब तक हू-हा की तब तक चीतल दबे पाँव बिरवाई के आसपास टोह लेता हुआ घूमता रहा। जैसे ही आधी रात का सन्नाटा आया, किसान ने नींद ली और चीतल ने खेत की ऊँची बिरवाई लाँघी। बहुत धीरे-धीरे खेत में आया, पीछे-पीछे सारी झुंड। फिर पड़ा खड़ी फसल पर ताबड़तोड़। झुंड सारे खेत में फैल जाता है। अँधेरी रात में तो जागते हुए किसान या शिकारी को कुछ दिखलाई ही नहीं पड़ता; उजेली रात में भी तितर-बितर झुंड आसानी से लख में नहीं बीधता।

एक रात का सताया हुआ किसान या जागा हुआ शिकारी जब दूसरी रात सावधान होकर तन-मन एक कर डालता है, तब वह झुंड उस रात उस खेत आती ही नहीं।

एक-दो अंतर दे देता है। किसान सोचता है, आई बला टल गई। परंतु बला अंतर देकर फिर आती है। जब किसान फसल गाहता है तब भाग्य को ठोंकता और कोसता है।

मैंने पचास के ऊपर तक का झुंड देखा है। गेहूँ के खेत में खुदवाँ गड्ढा बनाकर मैं रात भर बैठा। चीतल एक दिशा से खेत में आकर बिखर गए। बंदूक की मार में न आए। मौज से चरते रहे और सवेरे के पहले आराम के साथ खिसक गए। मैं अवसर की ताक ही में गड्ढे के भीतर पड़ा रहा।

बहुत से शिकारी गड्ढे के भीतर व्यर्थ नहीं पड़े रहते, उनकी बंदूक को चीतल मिल जाता है; परंतु ऐसा हमेशा नहीं होता। इसीलिए शिकारियों का शकुन-अपशकुन-विश्वास विख्यात है। जरा सा भी खुटका हुआ उनके मन में, अपशकुन का रूप धारण कर बैठता है। मार्ग में ब्राह्मण मिल जाय तो अपशकुन, खाली घड़ा, छींक, बिल्ली का रास्ता काटना, सियार क दाईं ओर से बाईं ओर निकल जाना, लोमड़ी का दुम को उठाकर भागना इत्यादि ऐसी अगणित क्रियाएँ हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि जंगली जानवर इतने चतुर होते हैं कि सहज ही हाथ नहीं आते। भरे हुए घड़े, तिलकधारी और बगल में पोथी-पत्रा दबाए हुए ब्राह्मण तथा बाईं ओर से दाईं ओर जानेवाले सियार या साँप के मिलने पर भी दिन भर भटकने के बाद शाम को खाली हाथ और सूखा मुँह लेकर लौटना पड़ता है।

चीतल का शिकार बहुत सावधानी के साथ की जानेवाली ढुकाई में हो सकता है। परंतु बाँव काटकर ढुकाई की जाय, तभी सफलता संभव हो सकती है; अन्यथा चीतल हँकाई में आसानी से मिल जाता है।

मुझको एक बार एक बड़ा और लंबे सींगोंवाला चीतल दूर से दिखलाई पड़ा। जंगल में काफी आड़ें-ओटें थीं। मेरे पास .30 बोरवाली राइफल थी। यह बोर छोटे-बड़े सब प्रकार के शिकार के लिए उपयोगी है।

मैं ढुकाई करता हुआ उस चीतल की ओर बढ़ा। काफी मेहनत की। उसका प्रमाण मेरे छिले हुए घुटने और काँटों से कुहनियों तक रुले हुए हाथ थे। मैं बाँव काटता हुआ धीरे-धीरे, चुपचाप इतनी सफाई के साथ उसके पास पहुँच गया कि मेरे-उसके बीच में केवल एक झाड़ी रह गई। गजों में अंतर दस-बारह मात्र का रह गया होगा। मैंने धीरे-धीरे साँस साधी। चीतल के चाहे जिस अंग का निशाना बना सकता था। जब साँस बिलकुल सध गई, मैं धीरे से उठा। कंधे से बंदूक जोड़ी और घोड़े की लिबलिबी दबा दी।

परंतु हुआ कुछ भी नहीं। बंदूक की नाल में कारतूस ही न था। कारतूस मैगजीन में पड़े थे और घोड़े पर ताला। ढुकाई आरंभ करने के पहले मैं नाल में कारतूस का डालना भूल गया था। मुझे चीतल ने देख लिया। वह कूका मारकर जंगल में विलीन हो गया। कुछ दूरी पर मेरा एक देहाती साथी था। उसने मुझको चीतल के पास पहुँचा हुआ देख लिया था। बंदूक का उबारना भी उसने लक्ष्य कर लिया था।

जब मैं उसके पास पहुँचा तब उसको निस्संकोच पूरी कहानी सुना दी। वह भीतर-भीतर कुढ़ा और ऊपर से हँसा। बोला, 'इतने दिनों तो हो गए, पैसिकार कौ लच्छन न आओ!'अर्थात् इतने दिनों में भी शिकार की तमीज न आई। परंतु भरी हुई बंदूक और खुले हुए घोड़े ले चलने की अपेक्षा खाली बंदूक ले चलने का यह कुलक्षण कहीं अच्छा।

मेरी खोपड़ी दूसरी बार चटकते-चटकते बच गई।

दिन भर घूमते-घामते बीत गया था। संध्या के समय अपना सा मुँह लिये हम सब लौट रहे थे। मेरे एक सहवर्गी के कंधे पर .275 बोर की राइफल थी। नाल में कारतूस पड़ा था। घोड़ा चढ़ा हुआ और ताला खुला हुआ था। सहवर्गी मेरे आगे थे। उनकी राइफल की नाल पर मील के मार्ग मे बहुधा मेरे भेजे की ठीक सीध में हो-हो जाती थी। जब हम लोग गाँव में आए, एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए। सहवर्गी ने राइफल जमीन पर टेकी और नाल आकाश की ओर कर दी। आकाश और राइफल की मुहार के बीच में पीपल की डालियाँ थीं। उन्होंने लिबलिबी पर अँगूठा रखा। आदत से लाचार थे। अँगूठा जरा दबा। लिबलिबी खट से हुई और जोर का धड़ाका हुआ। राइफल की गोली पीपल की डाल पर पड़ी। डाल हिल गई। तब जाना कि राइफल उस एक मील के मार्ग में मेरे माथे का क्या कर सकती थी।

भरी हुई बंदूक को यों ही रख देना बहुधा गजब ढाया करता है; तो भी लोग असावधानी करते हैं। मैंने भी असावधानी की है; परंतु अब सीख गया हूँ।

एक बार शिकार से लौटकर आया; परंतु दुनाली में कारतूस भरे छोड़ दिए। कुछ दिन वह वैसी ही रखी रही। कुछ दिन वह वैसी ही रखी रही। एक दिन एक मनचले ने उसे उठाया। उसको घोड़ा खींचने की सूझी। खींचा, पर वह हाथ से सटक गया। बंदूक धड़ाम हुई। नाल के सामने मेज थी और मेज के आगे कमरे की दीवार। गोली ने मेज को फोड़ दिया और फिर दीवार में जाकर धँस गई।

तब से मैं जंगल से लौटते ही बंदूक को खाली कर लेने का अभ्यासी हो गया हूँ।

हँकाई करने के समय एक गलती प्रायः की जाती है। हाँकनेवाली बेहद हो-हल्ला करते हैं। इस नियमहीन हल्ले के कारण जानवर सिर पर पैर रखकर भागते हैं। लगान पर बैठे हुए शिकारी परेशान हो उठते हैं। हाँकनेवालों और लगान पर लगे शिकारियों का श्रम अकारथ जाता है। कुछ शिकारी अपने आसनों को छोड़-छोड़कर इधर-उधर भाग खड़े होते हैं और एक-दूसरे का निशाना बनते हैं।

हाँकनेवालों के लिए दो बातें अत्यंत आवश्यक है। एक तो उनको सिवाय कंकड़ बजाने के और कोई आवाज नहीं करनी चाहिए-इसका अपवाद शेर, भालू और तेंदुए का शिकार है; क्योंकि ये जानवर देर में जंगल छोड़ते हैं। और साधरण हल्ले-गुल्ले की परवाह नहीं करते। दूसरे हाँका करनेवालों को किसी भी हालत में अपनी पाँत को छोड़कर लगानवालों की पाँत के आगे नहीं जाना चाहिए।

एक जंगल में हम कुछ लोग चीतल का शिकार हाँके के साथ करने की धुन में थे। लगान पर मैं और मेरे मित्र शर्माजी एक ही ठौर पर थे। दूसरे लगानों पर अन्य शिकारी थे। हाँका बगल से होता आ रहा था। हम लोगों के सामने जरा दूर झाड़ी में पीछे कुछ पीला-पीला से आकार के ऊपर। शर्माजी को जान पड़ा जैसे कोई लंबे सींगोंवाला चीतल हो।

'धाँय!' शर्माजी ने लक्ष्य बाँधकर बंदूक चलाई। उन्होंने चीतल के सिर का अनुमान करके गोली छोड़ी थी।

'ओ मताई, मर गओ!' चीतल के आकार की तरफ से शब्द आए।

हम दोनों को काटो तो खून नहीं। शर्माजी तो पसीने में तर हो गए। जा पड़ता था कि कोई हाँकेवाला मारा गया। दौड़कर उसके पास पहुँचे। देखा तो हाँकेवालों में से एक 'मंटोला' नाम का खड़ा है - सही और साबुत। हम लोगों की दम में दम आई।

मैंने पूछा, 'कहीं लगी तो नहीं, मटोले?'

मंटोला शिकारी था, बहुत हँसमुख और बड़ा मनोरंजक साथी। बोला, 'बारन में छू कें निकर गई, राम धई। काए पंडितजू, कब की कसर निकर रये ते?'

पंडित जी बेचारे क्या कहते। बड़ी बात हुई कि उन्होंने गोली चलाई थी, यदि छर्रा चलाते तो अवश्य उसको एक-न-एक लग जाता। यह मंटोला एक छोटे से जीवन चरित्र का अधिकारी है।

बिलकुल अऩपढ़। आयु करीब तीस साल की। बेतवा की मछली, जंगल के शिकार और खेतों की बची-खुची उपज से अपनी तथा अपने कुटुंब की गुजर करनेवाला। कठोर-से-कठोर परिस्थिति में भी उसके चेहरे पर उदासी या शिकन नहीं देखी। जंगल में वह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहा। मैंने उसको बहुत नजदीक से देखा है।

मंटोला एक दिन तेज बुखार में चारपाई से लगा पड़ा था। मैं उसको देखने के लिए गया।

मैने पूछा, 'मंटोले, क्या हाल है, भाई?'

उस तेज बुखार में भी हँसकर उसने उत्तर दिया, 'जवानी चढ़ी है, बाबू साब, जवानी।' उसके प्रति मेरे मन में श्रद्धा उमड़ी।

मैंने कहा, 'मंटोले, इतनी पीड़ा में भी तुम हँस सकते हो!'

वह बोला, 'सो तो बाबू साब, मैं तो मरतन-मरतन हँसते रहो।'

और वह सचमुच मरते-मरते तक हँसी को पकड़े रहा। वह अस्पतालों से दूर रहता था। उसके गाँव में दवा-दारू का कोई साधन न था। एक बार जब मैं उसके घर गया तो उसने चीतल खाने की इच्छा प्रकट की -

'मरवे के पैलें एक बेर मोये चीतरा खुवा देओ।'

मैंने निश्चय किया। नदी के एक घाट पर गड्ढा बनाकर संध्या के पहले ही जा बैठा। रात भर जागता रहा। सवेरे के समय चीतल गड्ढे के पास से निकला। मारना बिलकुल सहज था। मैं उसे मंटोले को भेंट कर आया। फिर वह मुझको नहीं मिला। फिर वह मुझको नहीं मिला।

चीतल के विषय में कुछ शिकारियों का एक सिद्धांत है - वे छत्तीस या चौंतीस इंच से कम सींगवाले चीतलों को नहीं मारते; परंतु जिन किसानों की हरी-भरी फसल का चीतलों के झुंड विनाश करते हैं, उनको सींगों के नाप से बिलकुल मतलब नहीं रहता। वे तो बिना किसी भेद के चीतलमात्र के शत्रु है।

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रचनाएँ
वृंदावन लाल वर्मा की रोचक कहानियाँ
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इन्हे बचपन से ही बुन्देलखंड की ऐतिहासिक विरासत में रूचि थी। जब ये 19 साल के किशोर थे तो इन्होंने अपनी पहली रचना ‘महात्मा बुद्ध का जीवन चरित’(1908) लिख डाली थी। उनके लिखे नाटक ‘सेनापति दल’(1909) में अभिव्यक्त विद्रोही तेवरों को देखते हुये तत्कालीन अंग्रजी सरकार ने इसी प्रतिबंधित कर दिया था। ये प्रेम को जीवन का सबसे आवश्यक अंग मानने के साथ जुनून की सीमा तक सामाजिक कार्य करने वाले साधक भी थे। इन्होंने वकालत व्यवसाय के माध्यम से कमायी समस्त पूंजी समाज के कमजोर वर्ग के नागरिकों को पुर्नवासित करने के कार्य में लगा दी। इन्होंने मुख्य रूप से ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित उपन्यास, नाटक, लेख आदि कुछ निबंध एवं लधुकथायें भी लिखी हैं।
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मेंढकी का ब्याह

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खजुराहो की दो मूर्तियाँ

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चंद्रमा थोड़ा ही चढ़ा था। बरगद की पेड़ की छाया में चाँदनी आँखमिचौली खेल रही थी। किरणें उन श्रमिकों की देहों पर बरगद के पत्तों से उलझती-बिदकती सी पड़ रहीं थीं। कोई लेटा था, कोई बैठा था, कोई अधलेटा। खजु

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रक्षा

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मुहम्मदशाह औरंगजेब का परपोता और बहादुरशाह का पोता था। 1719 में सितंबर में गद्दी पर बैठा था। सवाई राजा जयसिंह के प्रयत्न पर मुहम्मदशाह ने गद्दी पर बैठने के छह वर्ष बाद जजिया मनसूख कर दिया। निजाम वजीर ह

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रामशास्त्री की निस्पृहता

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दो सौ वर्ष के लगभग हो गए, जब पूना में रामशास्त्री नाम के एक महापुरुष थे। न महल, न नौकर-चाकर, न कोई संपत्ति। फिर भी इस युग के कितने बड़े मानव! भारतीय संस्कृति की परंपरा में जो उत्कृष्ट समझे जाते रहे है

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दबे पाँव (अध्याय 1)

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कुछ समय हुआ एक दिन काशी से रायकृष्ण दास और चिरगाँव से मैथिलीशरण गुप्त साथ-साथ झाँसी आए। उनको देवगढ़ की मूर्ति कला देखनी थी - और मुझको दिखलानी थी। देवगढ़ पहुँचने के लिए झाँसी-बंबई लाइन पर जालौन स्टेशन

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दबे पाँव (अध्याय 2 )

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हिंदी में कुछ-न-कुछ लिखने की लत पुरानी है। सन् 1909 में छपा हुआ मेरा एक नाटक सरकार को नापसंद आया। जब्त हो गया और मैं पुलिस के रगड़े में आया। परंतु रंगमंच पर अभिनय करने पर अभिनय करने का शौक था और नाटक

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दबे पाँव (अध्याय 3)

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चिंकारे का शिकार करछाल के शिकार से भी अधिक कष्टसाध्य है। चिंकारा बहुत ही सावधान जानवर होता है। उसे संकट का संदेह हुआ कि फुसकारी मारी और छलाँग मारकर गया। हिरन संकट से छुटकारा पाने के लिए दूर भागकर दम ल

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दबे पाँव (अध्याय 4)

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एक जगह जमकर बैठने का शिकार काफी कष्टदायक होता है। झाँखड़ या पत्थरों के चारों ओर ओट बना लेते हैं और उसके भीतर जानवरों को अगोट पर शिकारी बैठ जाते हैं-ऐसे ठौर पर, जहाँ होकर जानवर प्रायः निकलते हों। उनके

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दबे पाँव (अध्याय 5)

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हिरन वर्ग के जानवरों के लिए ढूका या ढुकाई का शिकार भी अच्छा समझा जाता है। इस शिकार में काफी परिश्रम करना पड़ता है। पेट के बल रेंगते हुए भी चलना पड़ता है; पहेल ही कहा जा चुका है। कुछ लोग बंदूक के घोड़

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दबे पाँव (अध्याय 6 )

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चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल प

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चीतलों के बाद मुझको पहला तेंदुआ सहज ही मिल गया। विंध्यखंड में जिसको 'तेंदुआ' कहते थे, उसकी छोटी छरेरी जाति को कहीं-कहीं 'चीता' का नाम दिया गया है। हिमाचल में शायद इसी को 'बाघ' कहते हैं। तेंदुए की खबर

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दबे पाँव (अध्याय 8)

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खेती को नुकसान पहुँचानेवाले जानवरों से सुअर चीतल और हिरन से कहीं आगे है। मनुष्यों के शरीर को चीरने-फाड़ने में वह तेंदुए से कम नहीं है। सुअर की खीसों से मारे जानेवालों की संख्या तेंदुए की दाढ़ों और नाख

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दबे पाँव (अध्याय 9)

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मैं संध्या के पहले ही बेतवा किनारे ढीवाले गड्ढे में जा बैठा। राइफल में पाँच कारतूस डाल लिए। कुछ नीचे रख लिए। रातभर बैठने के लिए आया था, इसलिए ओढ़ना-बिछौना गड्ढे में था। अँधेरा हुआ ही था कि एक छोटी सी

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दबे पाँव (अध्याय 10)

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एक बार जाड़ों में पहाड़ की हँकाई की ठहरी। लगान लग गए। मैं पहाड़ की तली में बैठ गया और शर्मा जी चोटी पर। बीच में अन्य मित्र लगान पर लग गए। हँकाई होते ही पहले साँभर हड़बड़ाकर निकल भागे। हँकाई में पहले

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दबे पाँव (अध्याय 11)

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साँभर और नीलगाय इसके नर को 'रोज' और मादा को 'गुरायँ' कहते हैं। खेती के ये काफी बड़े शत्रु हैं। बड़े शरीर और बड़े पेटवाले होने के कारण ये कृषि का काफी विध्वंस करते हैं। जब गाँव के ढोर चरते-चरते जंग मे

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दबे पाँव (अध्याय 12)

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एक समय था जब हिंदुस्थान में सिंह - गरदन पर बाल, अयालवाला - पाया जाता था। काठियावाड़ में सुनते हैं कि अब भी एक प्रकार का सिंह पाया जाता है। नाहर या शेर ने, जिसके बदन पर धारें होती हैं, अपना वंश बढ़ाकर

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दबे पाँव (अध्याय 13)

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अगली छुट्टी में मैं अपने मित्र शर्मा जी के साथ उसी गड्ढे में आ बैठा। चाँदनी नौ बजे के लगभग डूब गई। अँधेरे की कोई परवाह नहीं थी। एक से दो थे और टॉर्च भी साथ थी। जिस घाट पर हम लोग गड्ढे में बैठा करते थ

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दबे पाँव (अध्याय 14)

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मोर, नीलकंठ, तीतर, वनमुरगी, हरियल, चंडूल और लालमुनैया जंगल, पहाड़ और नदियों के सुनसान की शोभा हैं। इनके बोलों से - जब बगुलों और सारसों, पनडुब्बियों और कुरचों की पातें की पातें ऊँघते हुए पहाड़ों के ऊपर

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दबे पाँव (अध्याय 15 )

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मध्य प्रदेश कहलाने वाले विंध्यखंड में ऊँची-ऊँची पर्वत श्रेणियाँ, विशाल जंगल, विकट नदियाँ और झीलें हैं। शिकारी जानवरों की प्रचुरता में तो यह हिंदुस्थान की नाक है। किसी समय विंध्यखंड में हाथी और गैंडा भ

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दबे पाँव (अध्याय 16)

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एक बार विंध्यखंड के किसी सघन वन का भ्रमण करने के बाद फिर बार-बार भ्रमण की लालसा होती है। इसलिए सन् 1934 के लगभग मैं कुछ मित्रों के साथ मंडला गया। मंडला की रेलयात्रा स्वयं एक प्रमोद थी। पहाड़ी में होक

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दबे पाँव (अध्याय 17)

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जंगली कुत्ते का मैंने शिकार तो नहीं किया है, परंतु उसको देखा है। जिन्होंने इसके कृत्यों को देखा है वे इस छोटे से जानवर के नाम पर दाँतों तले उँगली दबाते हैं। रंग इसका गहरा बादामी होता है, इसलिए शायद इस

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दबे पाँव (अध्याय 18)

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भेड़िया आबादी के निकट के प्रत्येक जंगल में पाया जाता है। यह जोड़ी से तो रहता ही है, इसके झुंड भी देखे गए हैं। मैंने आठ-आठ, दस-दस तक का झुंड देखा है। भेड़िया बहुत चालाक होता है। भेड़-बकरियों और बच्छे-

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दबे पाँव (अध्याय 19)

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भेड़िये को हाँक-हूँककर गड़रिए की स्त्री प्यासी हो आई। भेड़-बकरियों को लेकर नदी किनारे पहुँची। पानी के पास गई। चुल्लुओं से हाथ मुँह धोया। थोड़ी दूर पर एक मगर पानी के ऊपर उतरा रहा था। वह मगर के स्वभाव क

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दबे पाँव (अध्याय 20)

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जंगल में शेर और तेंदुए से भी अधिक डरावने कुछ जंतु हैं - साँप, बिच्छू और पागल सियार। अजगर का तो कुछ डर नहीं है, क्योंकि वह काटने के लिए आक्रमण नहीं करता है, भक्षण के लिए पास आता है; और जहाँ तक मैंने द

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दबे पाँव (अध्याय 21)

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जंगलों में जितने भीतर और नगरों से जितनी दूर निकल जाएँ उतना ही रमणीक अनुभव प्राप्त होता है। पुराने नृत्य और गान तो जंगलों के बहुत भीतर ही सुरक्षित मिलते हैं। अमरकंटक की यात्रा में कोलों और गोंडों का क

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दबे पाँव (अध्याय 22)

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शिकार के साथ यदि हँसोड़ न हों और चुप भी रहना न जानते हों तो सारी यात्रा किरकिरी हो जाती है। मुझको सौभाग्यवश हँसोड़ या चुप्प साथी बहुधा मिले। संगीताचार्य आदिल खाँ वह अपने को कभी-कभी 'परोफेसर' कहते हैं

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दबे पाँव (अध्याय 23)

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शेर के संबंध में शिकारियों के अनुभव विविध प्रकार के हैं। सब लोगों का कहना है कि मनुष्यभक्षी शेर के सिवाय सब शेर मनुष्य की आवाज से डरते हैं। जब शेर की हँकाई होती है और ऐसे जंगल की हँकाई प्रायः की जाती

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दबे पाँव (अध्याय 24)

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लौटने पर किसी ने कहा तलवार पास रखनी चाहिए, किसी ने कहा छुरी। तलवार और छुरी का उपयोग शिकार में हो सकता है; परंतु मैं तलवार से छुरी को ज्यादा पसंद करूँगा और छुरी से भी बढ़कर लाठी को, और लाठी से बढ़कर क

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दबे पाँव (अध्याय 25)

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यदि गाँववालों को शिकारी की सहायता नहीं करनी होती है तो वे कह देते हैं कि जंगल में जानवर हैं तो जरूर, पर उनका एक जमाने से पता नहीं है। सहायता वे उन लोगों की नहीं करते, जिनसे उनको कोई भय या आशंका होती ह

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रिहाई तलवार की धार पर

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बंदा बैरागी और उसके सात सौ सिख साथियों के कत्ल का दिन आ गया। ये सब बंदा के साथ गुरदासपुर से कैद होकर आए थे। बंदा ने स्वयं खून की होली खेली थी, इसलिए उसके मन में किसी भी प्रकार की दया की आशा या प्रार्थ

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सच्चा धर्म

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हिंदू रियासतों में एक जमाने से शिया मुसलमान काफी संख्या में आ बसे थे; कोई नौकर थे, कोई कारीगर, हकीम-जर्राह इत्यादि। परंतु संख्या सुन्नी मुसलमानों की अधिक थी। इनमें भी उन्नाव दरवाजे की तरफ मेवाती और बड

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शाहजादे की अग्निपरीक्षा

16 मई 2022
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दिल्ली का बादशाह जहाँगीर सन 1605 में राजसिंहासन पर बैठा था। उसे दस-बारह साल राज करते-करते हो गए थे। जहाँगीर सूझ-बूझवाला व्यक्ति था; परंतु कभी-कभी दुष्टता का भी बरताव कर डालता था। उसमें सनक भी थी। जहा

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शेरशाह का न्याय

16 मई 2022
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वह नहा रही थी। ऋतु न गरमी की, न सर्दी की। इसलिए अपने आँगन में निश्चिंतता के साथ नहा रही थी। छोटे से घर की छोटी सी पौर के किवाड़ भीतर से बंद कर लिए थे। घर की दीवारें ऊँची नहीं थीं। घर में कोई था नहीं,

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शहीद इब्राहिमख़ाँ गार्दी

16 मई 2022
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'इस क़ैदी को शाह के सिपुर्द कीजिये ।' अहमदशाह अब्दाली के दूत ने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से युद्ध की समाप्ति पर कहा । सन् १७६१ में पानीपत के युद्ध में मराठे हार गये थे। कई सरदारों के साथ मराठों का सरद

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पहले कौन?

16 मई 2022
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मेवाड़ और मारवाड़ (जोधपुर) में परस्पर बहुत वैर बढ़ गया था। बात लगभग तीन सौ वर्ष पुरानी है। मेवाड़ की सीमा पर जोधपुर राज्य का एक गढ़ था। गढ़ खँडहर हो गया है और खँडहरों का नाम क्या! जोधपुर अपनी आन पर थ

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लुटेरे का विवेक

16 मई 2022
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बात बारहवीं शताब्दी के अंत की है। मुहम्मद साम दिल्ली का सुल्तान था और भीम द्वितीय गुजरात का राजा। भीम ने लगभग इकसठ वर्ष राज किया। वह सिद्धांत पर चलता था, जिसे सत्रहवीं शताब्दी में छत्रसाल ने यों व्यवह

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इंद्र का अचूक हथियार

16 मई 2022
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तपस्वी की साधना की जो प्रतिक्रिया हुई, उससे इंद्र का इंद्रासन डगमगाने लगा। तपस्या भंग करने के उपकरण इंद्र के हाथ में थे ही। उसने प्रयुक्त किए। तपस्वी के पास मेनका अप्सरा अपने साज-बाज के साथ जा पहुँची।

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वृंदावनलाल के जीवन के प्रेरक प्रसंग

16 मई 2022
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सच्चा इतिहास मैं लिखूँगा मनुष्य के जीवन में एकाध घटना ऐसी गुजरती है, जो संवेदनशील मन को झनझना देती है। जिस घटना ने वृंदावनलाल वर्मा के मन को झकझोरकर उन्हें इतिहास लिखने के लिए प्रेरित किया, वह घटना उ

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