चीतल (स्वर्णमृग) हिरन वर्ग का पशु समझा जाता है। परंतु इसके सींग फंसेदार होते हैं। यह बहुत ही सुंदर होता है। इतना सुंदर कि कभी-कभी शिकारी इसके भयानक हानि पहुँचानेवाले कृत्यों को भूल जाता है। इसकी खाल पीली खैली होती है और उसपर सफेद चित्ते होते हैं। सिर से लेकर रीढ़ तक एक काली कैरी चौड़ी रेखा होती है, जिसमें पूँछ तक दुतरपा बुंदे होते हैं। रंगों की भिन्नता पर जब उगते हुए सूर्य की किरणें रिपटती हैं तब चीतल सचमुच स्वर्णमृग जान पड़ता है।
परंतु जब रात भर ज्वार, तिली, गेहूँ और चने के खेतों को चरकर, ऊँची-ऊँची बिरवाइयों को लाँघकर चीतल अपने कूकों से घंटे-दो घंटे की नींद पाए हुए किसान को जगाता है, तब वह किसान इसको 'स्वर्णमृग' के नाम से नहीं पुकारता। वह जलती हुई आँखों से अपनी उजड़ी हुई खेती को देखता है और सूखे भर्राए हुए कंठ से केवल गालियाँ देकर रह जाता है।
चीतल बहुत ही चालाक और सावधान जानवर है। झुंडों में रहता है। नर झुंड के बीच में या लगभग पीछे रहता है। नेतृत्व मादा करती है। जंगलों और पहाड़ों में इस जानवर का निवास है। किसान दिन भर काम करके संध्या के बाद ही अपने खेत के ढबुए पर चली जाती है। आग सुलगाकर खेत की सुनसान मेंड़ पर रख दी और तंबाकू पीकर ढबुए में जा लेटा। दस-ग्यारह बजे तक हू-हा की, फिर झपकी आ गई। जब तक हू-हा की तब तक चीतल दबे पाँव बिरवाई के आसपास टोह लेता हुआ घूमता रहा। जैसे ही आधी रात का सन्नाटा आया, किसान ने नींद ली और चीतल ने खेत की ऊँची बिरवाई लाँघी। बहुत धीरे-धीरे खेत में आया, पीछे-पीछे सारी झुंड। फिर पड़ा खड़ी फसल पर ताबड़तोड़। झुंड सारे खेत में फैल जाता है। अँधेरी रात में तो जागते हुए किसान या शिकारी को कुछ दिखलाई ही नहीं पड़ता; उजेली रात में भी तितर-बितर झुंड आसानी से लख में नहीं बीधता।
एक रात का सताया हुआ किसान या जागा हुआ शिकारी जब दूसरी रात सावधान होकर तन-मन एक कर डालता है, तब वह झुंड उस रात उस खेत आती ही नहीं।
एक-दो अंतर दे देता है। किसान सोचता है, आई बला टल गई। परंतु बला अंतर देकर फिर आती है। जब किसान फसल गाहता है तब भाग्य को ठोंकता और कोसता है।
मैंने पचास के ऊपर तक का झुंड देखा है। गेहूँ के खेत में खुदवाँ गड्ढा बनाकर मैं रात भर बैठा। चीतल एक दिशा से खेत में आकर बिखर गए। बंदूक की मार में न आए। मौज से चरते रहे और सवेरे के पहले आराम के साथ खिसक गए। मैं अवसर की ताक ही में गड्ढे के भीतर पड़ा रहा।
बहुत से शिकारी गड्ढे के भीतर व्यर्थ नहीं पड़े रहते, उनकी बंदूक को चीतल मिल जाता है; परंतु ऐसा हमेशा नहीं होता। इसीलिए शिकारियों का शकुन-अपशकुन-विश्वास विख्यात है। जरा सा भी खुटका हुआ उनके मन में, अपशकुन का रूप धारण कर बैठता है। मार्ग में ब्राह्मण मिल जाय तो अपशकुन, खाली घड़ा, छींक, बिल्ली का रास्ता काटना, सियार क दाईं ओर से बाईं ओर निकल जाना, लोमड़ी का दुम को उठाकर भागना इत्यादि ऐसी अगणित क्रियाएँ हैं, जो इस बात को प्रमाणित करती हैं कि जंगली जानवर इतने चतुर होते हैं कि सहज ही हाथ नहीं आते। भरे हुए घड़े, तिलकधारी और बगल में पोथी-पत्रा दबाए हुए ब्राह्मण तथा बाईं ओर से दाईं ओर जानेवाले सियार या साँप के मिलने पर भी दिन भर भटकने के बाद शाम को खाली हाथ और सूखा मुँह लेकर लौटना पड़ता है।
चीतल का शिकार बहुत सावधानी के साथ की जानेवाली ढुकाई में हो सकता है। परंतु बाँव काटकर ढुकाई की जाय, तभी सफलता संभव हो सकती है; अन्यथा चीतल हँकाई में आसानी से मिल जाता है।
मुझको एक बार एक बड़ा और लंबे सींगोंवाला चीतल दूर से दिखलाई पड़ा। जंगल में काफी आड़ें-ओटें थीं। मेरे पास .30 बोरवाली राइफल थी। यह बोर छोटे-बड़े सब प्रकार के शिकार के लिए उपयोगी है।
मैं ढुकाई करता हुआ उस चीतल की ओर बढ़ा। काफी मेहनत की। उसका प्रमाण मेरे छिले हुए घुटने और काँटों से कुहनियों तक रुले हुए हाथ थे। मैं बाँव काटता हुआ धीरे-धीरे, चुपचाप इतनी सफाई के साथ उसके पास पहुँच गया कि मेरे-उसके बीच में केवल एक झाड़ी रह गई। गजों में अंतर दस-बारह मात्र का रह गया होगा। मैंने धीरे-धीरे साँस साधी। चीतल के चाहे जिस अंग का निशाना बना सकता था। जब साँस बिलकुल सध गई, मैं धीरे से उठा। कंधे से बंदूक जोड़ी और घोड़े की लिबलिबी दबा दी।
परंतु हुआ कुछ भी नहीं। बंदूक की नाल में कारतूस ही न था। कारतूस मैगजीन में पड़े थे और घोड़े पर ताला। ढुकाई आरंभ करने के पहले मैं नाल में कारतूस का डालना भूल गया था। मुझे चीतल ने देख लिया। वह कूका मारकर जंगल में विलीन हो गया। कुछ दूरी पर मेरा एक देहाती साथी था। उसने मुझको चीतल के पास पहुँचा हुआ देख लिया था। बंदूक का उबारना भी उसने लक्ष्य कर लिया था।
जब मैं उसके पास पहुँचा तब उसको निस्संकोच पूरी कहानी सुना दी। वह भीतर-भीतर कुढ़ा और ऊपर से हँसा। बोला, 'इतने दिनों तो हो गए, पैसिकार कौ लच्छन न आओ!'अर्थात् इतने दिनों में भी शिकार की तमीज न आई। परंतु भरी हुई बंदूक और खुले हुए घोड़े ले चलने की अपेक्षा खाली बंदूक ले चलने का यह कुलक्षण कहीं अच्छा।
मेरी खोपड़ी दूसरी बार चटकते-चटकते बच गई।
दिन भर घूमते-घामते बीत गया था। संध्या के समय अपना सा मुँह लिये हम सब लौट रहे थे। मेरे एक सहवर्गी के कंधे पर .275 बोर की राइफल थी। नाल में कारतूस पड़ा था। घोड़ा चढ़ा हुआ और ताला खुला हुआ था। सहवर्गी मेरे आगे थे। उनकी राइफल की नाल पर मील के मार्ग मे बहुधा मेरे भेजे की ठीक सीध में हो-हो जाती थी। जब हम लोग गाँव में आए, एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए। सहवर्गी ने राइफल जमीन पर टेकी और नाल आकाश की ओर कर दी। आकाश और राइफल की मुहार के बीच में पीपल की डालियाँ थीं। उन्होंने लिबलिबी पर अँगूठा रखा। आदत से लाचार थे। अँगूठा जरा दबा। लिबलिबी खट से हुई और जोर का धड़ाका हुआ। राइफल की गोली पीपल की डाल पर पड़ी। डाल हिल गई। तब जाना कि राइफल उस एक मील के मार्ग में मेरे माथे का क्या कर सकती थी।
भरी हुई बंदूक को यों ही रख देना बहुधा गजब ढाया करता है; तो भी लोग असावधानी करते हैं। मैंने भी असावधानी की है; परंतु अब सीख गया हूँ।
एक बार शिकार से लौटकर आया; परंतु दुनाली में कारतूस भरे छोड़ दिए। कुछ दिन वह वैसी ही रखी रही। कुछ दिन वह वैसी ही रखी रही। एक दिन एक मनचले ने उसे उठाया। उसको घोड़ा खींचने की सूझी। खींचा, पर वह हाथ से सटक गया। बंदूक धड़ाम हुई। नाल के सामने मेज थी और मेज के आगे कमरे की दीवार। गोली ने मेज को फोड़ दिया और फिर दीवार में जाकर धँस गई।
तब से मैं जंगल से लौटते ही बंदूक को खाली कर लेने का अभ्यासी हो गया हूँ।
हँकाई करने के समय एक गलती प्रायः की जाती है। हाँकनेवाली बेहद हो-हल्ला करते हैं। इस नियमहीन हल्ले के कारण जानवर सिर पर पैर रखकर भागते हैं। लगान पर बैठे हुए शिकारी परेशान हो उठते हैं। हाँकनेवालों और लगान पर लगे शिकारियों का श्रम अकारथ जाता है। कुछ शिकारी अपने आसनों को छोड़-छोड़कर इधर-उधर भाग खड़े होते हैं और एक-दूसरे का निशाना बनते हैं।
हाँकनेवालों के लिए दो बातें अत्यंत आवश्यक है। एक तो उनको सिवाय कंकड़ बजाने के और कोई आवाज नहीं करनी चाहिए-इसका अपवाद शेर, भालू और तेंदुए का शिकार है; क्योंकि ये जानवर देर में जंगल छोड़ते हैं। और साधरण हल्ले-गुल्ले की परवाह नहीं करते। दूसरे हाँका करनेवालों को किसी भी हालत में अपनी पाँत को छोड़कर लगानवालों की पाँत के आगे नहीं जाना चाहिए।
एक जंगल में हम कुछ लोग चीतल का शिकार हाँके के साथ करने की धुन में थे। लगान पर मैं और मेरे मित्र शर्माजी एक ही ठौर पर थे। दूसरे लगानों पर अन्य शिकारी थे। हाँका बगल से होता आ रहा था। हम लोगों के सामने जरा दूर झाड़ी में पीछे कुछ पीला-पीला से आकार के ऊपर। शर्माजी को जान पड़ा जैसे कोई लंबे सींगोंवाला चीतल हो।
'धाँय!' शर्माजी ने लक्ष्य बाँधकर बंदूक चलाई। उन्होंने चीतल के सिर का अनुमान करके गोली छोड़ी थी।
'ओ मताई, मर गओ!' चीतल के आकार की तरफ से शब्द आए।
हम दोनों को काटो तो खून नहीं। शर्माजी तो पसीने में तर हो गए। जा पड़ता था कि कोई हाँकेवाला मारा गया। दौड़कर उसके पास पहुँचे। देखा तो हाँकेवालों में से एक 'मंटोला' नाम का खड़ा है - सही और साबुत। हम लोगों की दम में दम आई।
मैंने पूछा, 'कहीं लगी तो नहीं, मटोले?'
मंटोला शिकारी था, बहुत हँसमुख और बड़ा मनोरंजक साथी। बोला, 'बारन में छू कें निकर गई, राम धई। काए पंडितजू, कब की कसर निकर रये ते?'
पंडित जी बेचारे क्या कहते। बड़ी बात हुई कि उन्होंने गोली चलाई थी, यदि छर्रा चलाते तो अवश्य उसको एक-न-एक लग जाता। यह मंटोला एक छोटे से जीवन चरित्र का अधिकारी है।
बिलकुल अऩपढ़। आयु करीब तीस साल की। बेतवा की मछली, जंगल के शिकार और खेतों की बची-खुची उपज से अपनी तथा अपने कुटुंब की गुजर करनेवाला। कठोर-से-कठोर परिस्थिति में भी उसके चेहरे पर उदासी या शिकन नहीं देखी। जंगल में वह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहा। मैंने उसको बहुत नजदीक से देखा है।
मंटोला एक दिन तेज बुखार में चारपाई से लगा पड़ा था। मैं उसको देखने के लिए गया।
मैने पूछा, 'मंटोले, क्या हाल है, भाई?'
उस तेज बुखार में भी हँसकर उसने उत्तर दिया, 'जवानी चढ़ी है, बाबू साब, जवानी।' उसके प्रति मेरे मन में श्रद्धा उमड़ी।
मैंने कहा, 'मंटोले, इतनी पीड़ा में भी तुम हँस सकते हो!'
वह बोला, 'सो तो बाबू साब, मैं तो मरतन-मरतन हँसते रहो।'
और वह सचमुच मरते-मरते तक हँसी को पकड़े रहा। वह अस्पतालों से दूर रहता था। उसके गाँव में दवा-दारू का कोई साधन न था। एक बार जब मैं उसके घर गया तो उसने चीतल खाने की इच्छा प्रकट की -
'मरवे के पैलें एक बेर मोये चीतरा खुवा देओ।'
मैंने निश्चय किया। नदी के एक घाट पर गड्ढा बनाकर संध्या के पहले ही जा बैठा। रात भर जागता रहा। सवेरे के समय चीतल गड्ढे के पास से निकला। मारना बिलकुल सहज था। मैं उसे मंटोले को भेंट कर आया। फिर वह मुझको नहीं मिला। फिर वह मुझको नहीं मिला।
चीतल के विषय में कुछ शिकारियों का एक सिद्धांत है - वे छत्तीस या चौंतीस इंच से कम सींगवाले चीतलों को नहीं मारते; परंतु जिन किसानों की हरी-भरी फसल का चीतलों के झुंड विनाश करते हैं, उनको सींगों के नाप से बिलकुल मतलब नहीं रहता। वे तो बिना किसी भेद के चीतलमात्र के शत्रु है।