ज़िंदगी एक सफ़र ही तो है।
सारा शहर मेरा घर ही तो है।
ये शहर जला, वो कोई मारा
ख़ैर छोड़ो ये ख़बर ही तो है।
तेरी बातें खंज़र सी चुभती है।
छलनी होने दो जिगर ही तो है।
जाने वाले को भला मैं कैसे रोकूं।
अपना नहीं वो राह गुज़र ही तो है।
ये ज़िंदगी से कड़वी तो नही होगी।
शौक़ से पी सकता हूं ज़हर ही तो है।
हर-सू एक ही चेहरा देखती है आंखें।
गुस्ताख़ है मगर ये मेरी नज़र ही तो है।
मृत्युंजय विश्वकर्मा