“गीतिका”
ऋतु बसंती रूठ कर जाने लगी
कंठ कोयल राग बिखराने लगी
देख री किसका बुलावा आ गया
छाँव भी तप आग बरसाने लगी॥
मोह लेती थी छलक छवि छाँव की
अब सजन सी रूठ तरसाने लगी॥
लुप्त होती जा रही प्रति गाँव की
थी गज़ब रंगत हवा गाने लगी॥
हो चला कितना निराला साजना
महफ़िलें अब चमन दिखलाने लगी॥
यदि कभी फुरसत फले तो आ सुनो
गीत यादों की मधुर भाने लगी॥
देख गौतम क्या वहीं खलिहान है
क्या जमीं पर फसल उग आने लगी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी