आधार- छंद द्विमनोरम, मापनी- 2122, 2122, 2122, 2122
"गीतिका"
अब पिघलनी चाहिए पाषाण पथ का अनुकरण हो।
मातु सीता के चमन में कनक सा फिर क्यों हिरण हो।।
जो हुए बदनाम उनकी नीति को भी देखिए तो
जानते हैं यातना को फिर दनुज घर क्यों शरण हो।।
पाँव फँसते जा रहे हों दलदले खलिहान में जब
क्यों बनाए जा रहे घर जब किनारे पर छरण हो।।
सह के' रहना पी के' जीना दर्द गैरों का कहाँ तक
आदमी को वेदना हितकर कहाँ जबतक मरण हो।।
सोच ले गौतम अनाड़ी बन के' जीना सीख ले तूँ
इस जमाने में कहाँ सतयुग सरीखा अवतरण हो।।
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी