रूबरू जब कोई हुआ ही नहींताक़े दिल पर दिया जला ही नहींज़ुल्मतें यूं न मिट सकीं अब तककोई बस्ती में घर जला ही नहींबेजमीरों के अज़्म पुख़्ता हैंज़र्फ़दारों में हौसला ही नहींनक़्श चेहरे के पढ़ लिये उसनेदिल की तहरीर को पढ़ा ही नहींउम्र भर वह रहा तसव्वुर मेंदिल की ज़ीनत मगर बना ही नहींहमने अश्कों पर कर लिया क़ाबूग़
मुश्किल ना था यादों को तरो-ताज़ा करना,बैठे-बिठाये खुद का ही खामियाज़ा करना, पहली ही दस्तक पे जो खोल दिया था मैंने,फ़िज़ूल था उसका बंद वो दरवाज़ा करना, रुकता भी तो शायद ना रोकता कभी उसे,वक़्त से चंद लम्हों का क्
जख्म ऐसा दिया की कोई दवा काम ना आई,आग ऐसी लगाई की पानी से भी बुझ ना पाई|हम आज भी रोते हैं उनकी याद में,जिन्हें हमारी याद गुजर जाने पर भी ना आई ||****************************************कांच चुभे तो निशान रहे जाते है,और दिल टूटे तो अरमान रहे जाते हैं |लगा देता हैं वक्त मरहम इस दिल पर,फिर भी उम्र भर ए