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जमीन

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पानी को पानी रहने दोनदी अकेले बहकर अनेको घाट बनाती थी। हर घाट निराला होता था।पनघट मे पानी भरी बाल्टी रस्सी से खीच कर औरत सुस्ताती थी।भर मटका कलस फुरसत मे सखी सहेलियों से बतियाती थी, बेटी बहू।चरवाहा बैठ पेड़ की छांव मे मन से गीत गुंगुनाता, गीले होठो से। जानवर तालाबो मे डुबकी लगाते तैरते इतराते ले प

भविष्य की आवाज।जुबा चुप ही सही सत्य बोलताहैं, गरीब ही अमीरी को जानता हैं।लम्हे कितने भी दुख भरे होजीवन की राह मे, चलते रहो मंजिल की तरफ। जिसे मजदूर अपनी जरूरत समझताहैं, अमीर उसे अपना सौक समझता हैं।मोटा दाना खाने वाले को दिमागसे मोटा कहते हैं,चना खाकर घोड़ा दौड़ता हैं।मक

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