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महक

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छुप ने लगे हैं रिश्ते कि चुभने लगें हैं रिश्ते। दर्द गहरा है, आंखों की कोर पर आंसू कोई ठहरा है। शामिल हो चले हैं लोगों के मेले में, खुद को खुद से छुपाने में शामिल होने लगें हैं झमेले में। रोज रोज कहां बहार आती है, बिन चाही बरसात भी आ जाती है। मन की जमीं सुलग रही है शोलो से, बात जुबां पर न आ जाए । चु

बसंत पंचमी दिली अरमान थे माँ से मिलने के सो मिलने चले आए दरबार मे।माँ का प्रेम अजीब हैं वह अपने नजदीक बैठने के लिए लोरी सुनाती हैं।लोरी वह जो मन को शकुन देती हैं आंखो मे नींदियाँ ला देती हैं।आंखो मे अपने ममता का आँचल बिछा देती हैं, जिसकी छाया मे कौन बालक नहीं सोना नहीं चाहेगा? वह उसका पल भर का प्रेम

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