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चल चार कदम  हर बार यूँ ही, डगमगाया लौट आया। कभी कोशिश नहीं की, कभी थोड़ा चला, कभी बीच रस्ते से लौट आया। ठोकरों का डर कभी, कभी उनसे गिर जाने का, हर बार डरा,  और डर के वापस आया। कभी मंजिल

है कठिन डगर सुन ले ओ पथिक चलने से घबरा मत जाना  जाति - पाति के भेदभाव में  फंसकर कहीं तुम न रह जाना  कांटो को तुम पुष्प बनाकर  बढ़ते जाना चलते जाना  कहीं लगे थक गए बहुत हो  तनिक ये भाव न मन में

नानी बाई रो मायरो नानी बाई ने (मायरा) भात भरने के लिए नरसी जी को बुलाया। नरसी जी के पास भात भरने के लिए कुछ नहीं था. वह निर्धन थे लेकिन भगवन की भक्ति का खजाना भरपूर था. वो कहते थे कि - हम्हे अपनी चिंत

मेरे प्रभु श्रीरामसंवरे सारे बिगड़े काम, विपदा का हो काम तमाम, संशय हटे तब मन का सारा, प्रभु श्रीराम का लें जब नाम, छवि अनोखी जिनकी प्यारी, उनसे महके हर फुलवारी, कांटों म

प्रभु श्रीराम सालों बाद आज अयोध्या नगरी में प्रभु श्रीराम आए हैं ।सूनी आँखों ने आज प्रभु श्रीराम के दर्शन पाए हैं ।बालक - वृद्ध, नर - नारी सभी जश्न मनाते हैं ।देवगण, ऋषिगण - मुनिगण

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डोरबेल की कर्कश आवाज से उन दोनों की नींद खुल गई। हड़बड़ाते हुए मिश्रा जी और उनकी पत्नी उठे। मिश्रा जी ने तुरंत लाइट जलाकर घड़ी पर नज़र डाली। “अरे! बाप रे बाप, पाँच बज गए, तुमने उठाया क्यों नहीं”, मिश्रा

एक थे राम-एक था रावण, दोनों अपनी-अपनी जगह शक्तिशाली। रावण के पास - सोने की लंका, तो राम के पास - सम्पूर्ण धरा। रावण के पास - विभिषण, तो राम के पास - भरत। रावण के पास - अहंकार, तो राम के पास - न

जब गाड़ी ट्रैफिक लाइट पर रेंग रही थी, आशा ने ताज्जुब से कहा, ‘आज दोपहर में भी इतना ट्रैफिक है इस रोड पर’। ‘सारा शहर ही जब देखो तब कहीं भागता रहता है’, लता ने उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा। सुदीप उन

अपराजिता - जीवन की मुस्कराहटबड़े शहर से शादी करके आई अपराजिता जब से अपने ससुराल एक छोटे से गांव में आई तब से देख रही थी ससुराल में उसकी बुजुर्ग दादी सास का निरादर होता हुआ। ससुराल में उसके पति वि

शिखाकुछ ख़ामोश सा था दिल है । न जाने क्यों ? पर बार - बार उसकी याद आ रही थी । चार साल हो चुके मेरे विच्छेद को पर शायद ही कोई पल गया हो उसे याद किए बिना ।   कितने खुश थे हम दोनों । छोटा सा पर

ढूँढने वाला सितारों की गुज़रगाहों का अपने अफ़कार फ़िक्र का बहुवचन/चिंताएँ की दुनिया में सफ़र कर न सका अपनी हिकमत दुस्साहस  के ख़मो-पेच उलझनों में उलझा ऐसे आज तक फ़ैसला-ए-नफा-ओ-ज़रर लाभ-हानि का नि

इक वलवला-ए-ताज़ा   नया भाव    दिया मैंने दिलों को लाहौर से ता-ख़ाके-बुख़ारा-ओ-समरक़ंद    बुख़ारा और समरकंद की भूमि तक    लेकिन मुझे पैदा किया उस देस में तूने जिस देस के बन्दे हैं ग़ुलामी पे रज़ाम

जहाने-ताज़ा   नये संसार    की अफ़कारे-ताज़ा   ताज़ा चिंतन    से है नमूद कि संगो-ख़िश्त   ईंट-पत्थर    से होते नहीं जहाँ पैदा ख़ुदी में डूबने वालों के अज़्मो-हिम्मत   हिम्मत और इरादे    ने इस आबे-

बच्चा-ए-शाहीं   बाज़(पक्षी)के बच्चे से    से कहता था उक़ाबे-साल -ख़ुर्द   बूढ़ा उक़ाब    ऐ तिरे शहपर   पंख    पे आसाँ रिफ़अते- चर्ख़े-बरीं   आकाश की ऊँचाई    है शबाब   यौवन   अपने लहू की आग मे‍ जल

अक़्ल ने एक दिन ये दिल से कहा भूले-भटके की रहनुमा हूँ मैं दिल ने सुनकर कहा-ये सब सच है पर मुझे भी तो देख क्या हूँ मैं राज़े-हस्ती अस्तित्व के रहस्य को तू समझती है और आँखों से देखता हूँ मैं 

है कलेजा फ़िगार   घायल    होने को दामने-लालाज़ार होने को इश्क़ वो चीज़ है कि जिसमें क़रार   चैन    चाहिए बेक़रार होने को जुस्तजू-ए-क़फ़स   पिंजरे की अभिलाषा    है मेरे लिए ख़ूब समझे शिकार होन

परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये कभी छोडी हूई मज़िलभी

सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं हाय क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं है मेरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं बज

उक़ाबी    गिद्ध पक्षी जैसी   शान से झपटे थे जो बे-बालो-पर   बिना बालों और परों के    निकले सितारे शाम को ख़ूने-फ़लक़   सूर्यास्त-समय की क्षितिज की लालिमा    में डूबकर निकले हुए मदफ़ूने-दरिया    दर

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँढता है मेरा ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी

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