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प्रीत

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मूक प्रीत की स्पष्ट हो रही है वाणी अब.... अमिट प्रतिबिंम्ब इक जेहन में, अंकित सदियों से मन के आईने में, गुम हो चुकी थी वाणी जिसकी, आज अचानक फिर से लगी बोलनें। मुखर हुई वाणी उस बिंब की,स्पष्ट हो रही अब आकृति उसकी, घटा मोह की फिर से घिर आई, मन की वृक्ष पर लिपटी अमरलता सी। प्रतिबिम्ब मोहिनी मनमोहक वो

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 मदन मोहन सक्सेना की रचनाएँ : प्रीत

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