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प्रिय

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जब था छोटागाँव में, घर मेंसबका प्यारा, सबका दुलाराथोडा सा कष्ट मिलने परमाँ के कंधे पररखकर अपना सिरसरहोकर दुनिया से बेखबरबहा देता, अपने सारे अश्कमाँ के हाथ की थपकियाँदेती सांत्वनासाहस व झपकियाँसमय ने, परिस्थितियों नेउम्र से पहले बड़ा कर दियाअब जब भीजरूरत महसूस करतासांत्वना, आश्वासन कीमाँ के पास जाता

प्रिय प्राणेश्वरीअत्र कुशलम तत्रास्तु.......जमाना बीत गया तुम्हें विदित ही है पढ़ना- लिखना तुम्हारी जुल्फों में ही बिखर गया व मंजिल तुम्हारी वह खिड़की थी जिसे तुम खुद समय-समय पर खोला करती थी और बिना परवाह किए उसे बंद करके परिंदे की तरह उड़ गई। वापस न आई न तुम्हारा कोई पता ही

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