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मोहब्बत का महीनामोहब्बत में जान क़ुर्बान कर गये !वो अपनी पूरी ज़िंदगी, देश के नाम कर गये !नहीं सोचा बच्चों का , पत्नी को बेसहारा छोड़ गये !कहते हैं मोहब्बत इसे, अंतिम साँस तक लड़ गये !ह

सावित्री बाई फुले - नारी मुक्ति आंदोलन की प्रणेता, देश की पहली महिला शिक्षिका की जयंती है, जानें उनके संघर्ष की कहानीसावित्रीबाई फुले को समाज सेविका, कवयित्री और दार्शनिक के तौर पर पहचाना जाता है। लेक

दोहे—मीरा  दीवानी  हुई  , श्याम  दिखे  चहुँओर ।विष प्याला अमृत हुआ,श्याम समाए कोर ॥मीरा की वाणी बसे, सप्त सुरों का मेल ।कृष्ण भजन में रम गई,राणा खेलें खेल ॥दासी मीरा हो गई,कृष

कबीरदास की जीवनी कबीरदास जी ने हिंदी साहित्य की 15 वीं सदी को अपनी रचनाओं के माध्यम से श्रेष्ठ बना दिया था। वह ना केवल एक महान् कवि थे, बल्कि उन्होंने एक समाज सुधारक के तौर पर भी समाज में व्याप्त अंधव

भारत रत्न डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम हमारे देश के प्रख्यात वैज्ञानिक हैं जो भारत गणराज्य के राष्ट्रपति रह चुके हैं। उनका पूरा नाम है अवुल पकीर जैनुलाबदीन अब्दुल कलाम। वे भारत के ग्यारहवें राष्ट्रपति रहे

जिंदगी के हर अहसास के,अंदाज निराले होते हैं।प्रकृति यह है मनुष्य की,कभी हंसते कभी रोते हैं।।दोस्ती:-दोस्ती है प्रेम का रिश्ता,जो दिल में पैदा होता है।हर मनुष्य के जीवन में,एक सच्चा दोस्त होता है।।जहां

मुखौटा लगाये हुए लोग दुनिया में घूम रहे हैं। मुंह में राम बगल में छुरी को मुकाम दे रहे हैं।। हर वक्त डर लगता है अनजान लोगों से। विश्वास का कत्ल हो गया कुछ सदियों से।। अनजान ही पहचान वाले भी बदल गये है

कुश(तिनका) को मत समझो छोटा,यही खग नीड़ बनाता है।तरू की डाल पर तिनका,सुंदर खग नीड़ बनाता है।।किसी के सपनों का श्रृंगार ,किसी के जीवन जीवन का घर-बार।किसी के जीवन का मकसद,कुश का महत्व भिन्न-भिन्न सार।।तृ

करें संकल्प हम ऐसा, काम परहित में हम आये।। तोड दें सारे बंधन हम,पार दुष्कर पथ कर जाये।। हाथ से हाथ मिलाकर अब, हमें अति दूर जाना है। ठोकरें खाकर पडे हुए, हमें उनको उठाना है।। फैला जहां राज तम का है,सदा

हर सुबह हमें नया संदेश देती है।नये जीवन के लिए नई सांस देती है।करती है हर दिन भानु का अभिनन्दन।शशि की विदाई कर शुरुआत करती है।।हमें कहती हैं उठो जागो और बढो मंजिल की ओर।खग चहचहाने लगे हैं तरू पर हो गय

डॉक्टर है समाज का गहना,सदा इन्हें आदर ही देना ।बिन इनके सहयोग के मानो,स्वस्थ समाज एक है सपना।।डॉक्टर का जीवन तो देखो,इतना नहीं होता आसान।पूरी ताकत झोंक कर अपनी,बचाते हैं मरीजों की जान।।रख देते हैं ताक

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बरसात के दिन आते ही किचन की खुली खिड़की से रह-रहकर बरसती फुहारें बचपन में बिताए सावन की मीठी-मीठी यादें ताज़ी करा देती है। जब सावन आते ही आँगन में नीम के पेड़ पर झूला पड़ जाता था। मोहल्ले भर के बच्

   अपलक रूप निहारूँ    तन-मन कहाँ रह गये?   चेतन तुझ पर वारूँ,  अपलक रूप निहारूँ!   अनझिप नैन, अवाक् गिरा   हिय अनुद्विग्न, आविष्ट चेतना   पुलक-भरा गति-मुग्ध करों से   मैं आरती उतारूँ।  अपलक

गुरु ने छीन लिया हाथों से जाल, शिष्य से बोले  'कहाँ चला ले जाल अभी ? पहले मछलियाँ पकड़ तो ला ?' तकता रह गया बिचारा भौंचक । बीत गए युग । चले गए गुरु । बूढ़ा, धवल केश, कुंचित मुख चेला सोच रहा

तू फाड़-फाड़ कर छप्पर चाहे जिस को तिस को देता जा मैं मोती अपने हिय के उन में भरा करूँ। तू जहाँ कहीं जी करे घड़े के घड़े अमृत बरसाया कर मैं उस की बूँद-बूँद के संचय के हित सौ-सौ बार मरूँ। तू स

बरसों की मेरी नींद रही। बह गया समय की धारा में जो, कौन मूर्ख उस को वापस माँगे? मैं आज जाग कर खोज रहा हूँ वह क्षण जिस में मैं जागा हूँ।

ओ तू पगली आलोक-किरण, सूअर की खोली के कर्दम पर बार-बार चमकी, पर साधक की कुटिया को वज्र-अछूता अन्धकार में छोड़ गयी?

यह नहीं कि मैं ने सत्य नहीं पाया था यह नहीं कि मुझ को शब्द अचानक कभी-कभी मिलता है  दोनों जब-तब सम्मुख आते ही रहते हैं। प्रश्न यही रहता है  दोनों जो अपने बीच एक दीवार बनाये रहते हैं मैं कब, कैसे,

हरे-भरे हैं खेत मगर खलिहान नहीं  बहुत महतो का मान मगर दो मुट्ठी धान नहीं। भरा है दिल पर नीयत नहीं  हरी है कोख-तबीयत नहीं। भरी हैं आँखें पेट नहीं  भरे हैं बनिये के कागज टेंट नहीं। हरा-भरा

चेहरे थे असंख्य, आँखें थीं, दर्द सभी में था जीवन का दंश सभी ने जाना था। पर दो केवल दो मेरे मन में कौंध गयीं। क्यों? क्या उन में अतिरिक्त दर्द था जो अतीत में मेरा परिचित कभी रहा, या मुझ में

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