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कविताआलोक_कौशिक_की_कविता

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विध्वंसक धुंध से आच्छादितदिख रहा सृष्टि सर्वत्र किंतु होता नहीं मानव सचेत कभी प्रहार से पूर्वत्र सदियों तक रहकर मौन प्रकृति सहती अत्याचार करके क्षमा अपकर्मों को मानुष से करती प्यार आती जब भी पराकाष्ठा पर मनुज का अभिमान दंडित करती प्रकृति तब अपराध होता दंडमान पशु व पाद

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