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छड़

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"छड़, मकान और छत"ठिठुर रहा है देश, ठिठुर रहें हैं खेत, ठंड की चपेट में पशु-पंछी, नदी, तालाब और अब महासागर भी जमने लगे हैं अपने खारे पानी को उछालते हुए, लहरों को समेटते हुए। शायद यही कुदरत की शक्ति है जिसे इंसान मानता तो है पर गाँठता नहीं। आज वह बौना बना हुआ है और काँप रहा है अपनी अकड़ लिए पर झुकने को

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