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दर्पण

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 किस किस से तुम दोष छुपाओगे अपने । हे प्रिय अपना मन भी दर्प

एक शाम के लिए|हसती मुस्कराती दिन को गुजारती|कर काम घर पर, बिस्तर सवांरती|दिन भर की आवाजे तंग करती उसे|दिन में तरह-तरह के ब्यंग भरती वह|लौटती दोपहरी, जीवन के नएपन में|हसता खिलखिलाता बचपन लौट आता|बदल कपडे, दे कटोरा, दूधभात भरा हाथ में|चौखट की माथे पर बैठ, मै कई निवाले खाती|माँ अक्सर बैठ आँगन में, पूस

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बोले टूटकर बिखरा दर्पण, कितना किया कितनों को अर्पण, बेरंगों में रंग बिखेरा, जीवन अपना किया समर्पण। देखा जैसा, उसको वैसा, उसका रूप दिखाया, रूप-कुरूप हैं छैल-छवीले, सबको मैंने सिखाया, घर आया, दीवा

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मेरी नई पुस्तक मन दर्पण का कवर पेज प्रस्तुत है. पुस्तक अप्रेल 2017 तक प्रकाशित हो जाएगी.

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दर्पण को दोष लगाने से सूरत नहीं बदल जाती है !तुम मत पूजो घर की तुलसी !तुम मत मानों ,कोई देवता ! बहती नदिया को छलकर तुम ,भ्रम पाले ना ,कोई देखता !छुप-छुपकर ,चोरी करने सेसीरत नहीं बदल जाती है !चुगली करतीं हैं ख़ुद आँखें !कितना पाप लिए जागे हो !सीढ़ी पर हो झुकते लेकिन ,विश्वासों के तोड़े धागे !अर्चन को

एक बार सुकारात सुबह के समय दर्पण देख रहे थे ऐसा वह लगभग रोज करते थे  ऐसा देखकर उनका एक शिश्य पीछे से मुसकरा रहा था कि सुकारात इतने बदसूरत है फिर भी दर्पण देख रहे है  सुकारात ने उसे मुसकराते देखा तो पूँछा क्या बात है  उसने कहा कुछ नही  तब सुकारात ने कहा मै दर्पण इस लिए देखता हूँ  कि और कितने अच्छे का

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