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दास्तां

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एक फटी सी निकर ,और पुरानी ढीली ढाली कमीज़; पैरों में साइज से बड़ी चप्पल, कांधे पे

बयाँ मैं ये हकीकत कर रहा हूँ मैं धीरे धीरे हर पल मर रहा हूँ तुझे कमियाँ नज़र आतीं हैं मुझमें मुझे लगता है मैं बेहतर रहा हूँ ख़ुदा जाने मिलेंगी मंजिलें कब मैं ख़ुद में हौसला तो भर रहा हूँ नहीं अब ज़िन्दगी से कोई निस्बत मैं आती मौत से भी डर रहा हूँ ये बुत अब भी गवाही दे रहे हैं मैं अपने वक़्त का आ

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