द्रुतविलम्बित छंदमन बसी जब से छवि श्याम की।रह गई नहिँ मैं कछु काम की।लगत वेणु निरन्तर बाजती।श्रवण में धुन ये बस गाजती।।मदन मोहन मूरत साँवरी।लख हुई जिसको अति बाँवरी।हृदय व्याकुल हो कर रो रहा।विरह और न जावत ये सहा।।विकल हो तकती हर राह को।समझते नहिँ क्यों तुम चाह को।उड़ ग