shabd-logo

नाटक

hindi articles, stories and books related to natak


स्थान - मगध में राजकीय भवन छलना और देवदत्त। छलना : धूर्त्त! तेरी प्रवंचना से मैं इस दशा को प्राप्त हुई। पुत्र बन्दी होकर विदेश चला गया और पति को मैंने स्वयं बन्दी बनाया। पाखण्डी, तूने ही यह चक्र रचा

स्थान - मगध अजातशत्रु की राजसभा। अजातशत्रु : यह क्या सच है, समुद्र! मैं यह क्या सुन रहा हूँ! प्रजा भी ऐसा कहने का साहस कर सकती है? चींटी भी पंख लगाकर बाज के साथ उड़ना चाहती है! 'राज-कर मैं न दूँगा'-

स्थान - प्रकोष्ठ राजकुमार अजातशत्रु , पद्मावती , समुद्रदत्त और शिकारी लुब्धक। अजातशत्रु : क्यों रे लुब्धक! आज तू मृग-शावक नहीं लाया। मेरा चित्रक अब किससे खेलेगा समुद्रदत्त : कुमार! यह बड़ा दुष्ट हो

[पथ में मुद्गल] मुद्गल-- राजा से रंक और ऊपर से नीचे; कभी दुवृर्त्त दानव, कभी स्नेह-संवलित मानव; कहीं वीणा की झनकार, कहीं दीनता का तिरस्कार। (सिरपर हाथ रखकर बैठ जाता है) भाग्यचक्र! तेरी बलिहारी! जयमा

( विजया और अनन्तदेवी ) अनन्त०--क्या कहा? विजया--मैं आज ही पासा पलट सकती हूँ। जो झूला ऊपर उठ रहा है, उसे एक ही झटके में पृथ्वी चूमने के लिये विवश कर सकती हूँ। अनन्त०--क्यों? इतनी उत्तेजना क्यों है?

[शिप्रा-तट] प्रपंचबुद्धि--सब विफल हुआ! इस दुरात्मा स्कन्दगुप्त ने मेरी आशाओं के भंडार पर अर्गला लगा दी। कुसुमपुर में पुरगुप्त और अनन्तदेवी अपने विडम्बना के दिन बिता रहे हैं। भटार्क भी बन्दी हुआ, उसके

[मालव में शिप्रा-तट-कुंज] देवसेना--इसी पृथ्वी पर है और अवश्य है। विजया--कहाँ राजकुमारी? संसार में छल, प्रवञ्चना और हत्याओं को देखकर कभी-कभी मान ही लेना पड़ता है कि यह जगत् ही नरक है। कृतघ्ता और पाखं

पुरुष-पात्र स्कंदगुप्त-- युवराज (विक्रमादित्य) कुमारगुप्त-- मगध का सम्राट गोविन्दगुप्त-- कुमारगुप्त का भाई पर्णदत्त-- मगध का महानायक चक्रपालित-- पर्णदत्त का पुत्र बन्धुवर्मा-- मालव का राजा भीमव

(यजमान और सर्वभट्ट और मुदंर भट्ट आते हैं) यज. : महाराज इसका नाम बसंत पूजा क्यों है? स.भ. : महाराज इसमें बसंतों की बसंत ही में पूजा करते हैं विशेषतः हम लोग पूरे बसंतनंदन है क्योंकि तौकी बाई को बाईस र

स्थान-विल्वमठ, पुश्री के घर का प्रवेशद्वार (लवंग और जसोदा आते हैं) लवंग : आहा! चाँदनी क्या आनन्द दिखा रही है! मेरे जान ऐसी ही रात में जब कि वायु इतना मन्द चल रहा था कि वृक्षों के पत्तों का शब्द तक स

स्थान-वंशनगर की एक सड़क (पुरश्री और नरश्री आती हैं) पुरश्री : जैन के घर का पता लगा कर उससे झटपट इस पाण्डुलिपि पर हस्ताक्षर करा लो। हम लोग आज ही रात को चलते होंगे, जिसमें अपने पति से एक दिन पहले घर पह

स्थान-वंशनगर राजद्वार (मण्डलेश्वर वंशनगर, प्रधान लोग, अनन्त, बसन्त, गिरीश, सलारन, सलोने और दूसरे लोग आते हैं) मण्डलेश्वर : अनन्त आ गए हैं? अनन्त : धर्मावतार उपस्थित हूँ! मण्डलेश्वर : मुझे तुम पर अ

स्थान-विल्वमठ-एक उद्यान (गोप और जसोदा आते हैं) गोप : हाँ बेशक-तुम जानती हो कि पिता के पापों का दण्ड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है। इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है। मैंने त

स्थान-विल्वमठ पुरश्री के घर का एक कमरा (पुरश्री, लवंग, जसोदा और बालेसर आते हैं) लवंग : प्यारी यद्यपि आप के मुँह पर कहना सुश्रूषा है पर आप में ठीक देवताओं का सा सच्चा और पवित्र प्रेम पाया जाता है और

स्थान-वंशनगर की एक सड़क (शैलाक्ष, सलारन, अनन्त और कारागार के प्रधान आते हैं) शैलाक्ष : प्रधान इससे सचेत रहो; मुझसे दया का नाम न लो। यही वह मूर्ख है जो लोगों को बिना ब्याज रुपये ऋण दिया करता था। प्रधा

स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा (नरश्री एक नौकर के साथ आती है) नरश्री : शीघ्रता करो; पर्दे को झटपट उठाओ; आर्यग्राम के राजकुमार शपथ ले चुके और सन्दूक चुनने के लिये पहुँचा ही चाहते हैं। (तुरहि

स्थान-वंशनगर, एक सड़क (सलारन और सलोने आते हैं) सलारन : अजी मैंने स्वयं बसन्त को जहाज पर जाते देखा; उन्हीं के साथ गिरीश भी गया है, पर मुझे विश्वास है कि उस जहाज में लवंग कदापि नहीं है। सलोने : उस दु

स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा, (तुरहियाँ बजती हैं। पुरश्री और मोरकुटी का राजुकुमार अपने अपने साथियों के साथ आते हैं) पुरश्री : जाओ, पर्दे उठाओ और इस प्रतिष्ठित राजकुमार को तीनों सन्दूक दिख

(स्थान-शैलाक्ष के घर के सामने) (गिरीश और सलारन भेस बदले हुए आते हैं) गिरीश : यही बरामदा है जिसके नीचे लवंग ने हमें खड़े रहने को कहा था। सलारन : उनका समय तो हो गया। गिरीश : आश्चर्य है कि उन्होंने द

स्थान-वंशनगर-शैलाक्ष के घर के सामने (शैलाक्ष और गोप आते हैं) शैलाक्ष : अच्छा तो तू देखेगा, तेरी आँखें आप ही इस बात का न्याय करेंगी कि वृद्ध शैलाक्ष और बसन्त में कितना अन्तर है। अरी जसोदा! जैसा तू मे

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए