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नज़्म

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अगर मैं तुझ को भुला दूंगा तो फिर क्या होगा।

रात मेरी किताब के पन्ने बिछा के सो गई सुबह तक रात की बेचैनी को पढता रहा। सूरज उगा ललिमाओं का लबादा लिए मैं अपने आप में ही चाँद स ढलता रहा। डूबते सूरज की परछाइयों का पीछा वो करता है समय की उम्र में मगर वो बढ़ता रहा। सूरज फिर उगेगा ढलने के लिए जैसे लोग मरते है जन्म लेने

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जुबां का वायदा किया तूनेकच्चा हिसाब मान लिया मैंने,कहाँ है बातों से जादू टोना करने वाले?तेरी कमली का मज़ाक उड़ा रहे दुनियावाले... रोज़ लानत देकर जाते,तेरे प्यार के बही-खाते...तेरी राख के बदले समंदर से सीपी मोल ली,सुकून की एक नींद को अपनी 3 यादें तोल दी।इस से अच्छा तो बेवफा हो जाते,कहीं ज़िंदा होने के मि

खुली अगर जुबान तो किस्से आम हो जायेंगे।इस शहरे-ऐ-अमन में, दंगे तमाम हो जायेंगे !!न छेड़ो दुखती रग को, अगर आह निकली ! नंगे यंहा सब इज्जत-ऐ-हमाम हो जायेंगे !!देकर देखो मौक़ा लिखने का तवायफ को भी ! शरीफ़ इस शहर के सारे, बदनाम हो जायेंगे।।दबे हुए है शुष्क जख्म इन्हें दबा ही

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