shabd-logo

पौराणिक

hindi articles, stories and books related to Pauranik


लिखना भी तो, क्या लिखना है? कहना भी तो, क्या कहना है? खलिश है रहती,  हर पल मन में, मिल भी ले तो, क्या कहना है? खत लिखता हूँ,  लिख लेता हूँ, और उसे फिर,  मोड़ माडकर, बक्शे में कहीं, रख दे

चल चार कदम  हर बार यूँ ही, डगमगाया लौट आया। कभी कोशिश नहीं की, कभी थोड़ा चला, कभी बीच रस्ते से लौट आया। ठोकरों का डर कभी, कभी उनसे गिर जाने का, हर बार डरा,  और डर के वापस आया। कभी मंजिल

इक वलवला-ए-ताज़ा   नया भाव    दिया मैंने दिलों को लाहौर से ता-ख़ाके-बुख़ारा-ओ-समरक़ंद    बुख़ारा और समरकंद की भूमि तक    लेकिन मुझे पैदा किया उस देस में तूने जिस देस के बन्दे हैं ग़ुलामी पे रज़ाम

जहाने-ताज़ा   नये संसार    की अफ़कारे-ताज़ा   ताज़ा चिंतन    से है नमूद कि संगो-ख़िश्त   ईंट-पत्थर    से होते नहीं जहाँ पैदा ख़ुदी में डूबने वालों के अज़्मो-हिम्मत   हिम्मत और इरादे    ने इस आबे-

बच्चा-ए-शाहीं   बाज़(पक्षी)के बच्चे से    से कहता था उक़ाबे-साल -ख़ुर्द   बूढ़ा उक़ाब    ऐ तिरे शहपर   पंख    पे आसाँ रिफ़अते- चर्ख़े-बरीं   आकाश की ऊँचाई    है शबाब   यौवन   अपने लहू की आग मे‍ जल

अक़्ल ने एक दिन ये दिल से कहा भूले-भटके की रहनुमा हूँ मैं दिल ने सुनकर कहा-ये सब सच है पर मुझे भी तो देख क्या हूँ मैं राज़े-हस्ती अस्तित्व के रहस्य को तू समझती है और आँखों से देखता हूँ मैं 

है कलेजा फ़िगार   घायल    होने को दामने-लालाज़ार होने को इश्क़ वो चीज़ है कि जिसमें क़रार   चैन    चाहिए बेक़रार होने को जुस्तजू-ए-क़फ़स   पिंजरे की अभिलाषा    है मेरे लिए ख़ूब समझे शिकार होन

परीशाँ होके मेरी खाक आखिर दिल न बन जाये जो मुश्किल अब हे या रब फिर वही मुश्किल न बन जाये न करदें मुझको मज़बूरे नवा फिरदौस में हूरें मेरा सोज़े दरूं फिर गर्मीए महेफिल न बन जाये कभी छोडी हूई मज़िलभी

सख़्तियाँ करता हूँ दिल पर ग़ैर से ग़ाफ़िल हूँ मैं हाय क्या अच्छी कही ज़ालिम हूँ मैं जाहिल हूँ मैं है मेरी ज़िल्लत ही कुछ मेरी शराफ़त की दलील जिस की ग़फ़लत को मलक रोते हैं वो ग़ाफ़िल हूँ मैं बज

उक़ाबी    गिद्ध पक्षी जैसी   शान से झपटे थे जो बे-बालो-पर   बिना बालों और परों के    निकले सितारे शाम को ख़ूने-फ़लक़   सूर्यास्त-समय की क्षितिज की लालिमा    में डूबकर निकले हुए मदफ़ूने-दरिया    दर

दुनिया की महफ़िलों से उक्ता गया हूँ या रब क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो शोरिश से भागता हूँ दिल ढूँढता है मेरा ऐसा सुकूत जिस पर तक़रीर भी फ़िदा हो मरता हूँ ख़ामुशी पर ये आरज़ू है मेरी

अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा मुझे फ़िक्र-ए-जहाँ क्यूँ हो जहाँ तेरा है या मेरा अगर हँगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली ख़ता किस की है या रब ला-मकाँ तेरा है या मेरा उसे सुब्ह-ए-अज़

असर करे न करे सुन तो ले मेरी फ़रियाद नहीं है दाद का तालिब ये बंद-ए-आज़ाद ये मुश्त-ए-ख़ाक ये सरसर ये वुसअत-ए-अफ़लाक करम है या के सितम तेरी लज़्ज़त-ए-ईजाद ठहर सका न हवा-ए-चमन में ख़ेम-ए-गुल यही

डरते-डरते दमे-सहर   सुबह    से, तारे कहने लगे क़मर   चाँद    से । नज़्ज़ारे रहे वही फ़लक पर, हम थक भी गये चमक-चमक कर । काम अपना है सुबह-ओ-शाम चलना, चलन, चलना, मुदाम   लगातार    चलना । बेताब है इ

तस्कीन   तसल्ली    न हो जिस से वो राज़ बदल डालो जो राज़ न रख पाए हमराज़ बदल डालो तुम ने भी सुनी होगी बड़ी आम कहावत है अंजाम का जो हो खतरा आगाज़   शुरुआत    बदल डालो पुर-सोज़   दु:खी    दिलों को जो

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोसिताँ हमारा हम बुलबुलें हैं इसकी यह गुलसिताँ हमारा ग़ुर्बत परदेस   में हों अगर हम, रहता है दिल वतन में समझो वहीं हमें भी दिल हो जहाँ हमारा परबत वह सबसे ऊँचा, हम्साया पड़ोस

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर-- चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चा

कालिदास! सच-सच बतलाना इन्दुमती के मृत्युशोक से अज रोया या तुम रोये थे? कालिदास! सच-सच बतलाना! शिवजी की तीसरी आँख से निकली हुई महाज्वाला में घृत-मिश्रित सूखी समिधा-सम कामदेव जब भस्म हो गया रत

नए गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है यह विशाल भूखंड आज जो दमक रहा है मेरी भी आभा है इसमें भीनी-भीनी खुशबूवाले रंग-बिरंगे यह जो इतने फूल खिले हैं कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था कल इनको मेरे स

जो नहीं हो सके पूर्ण-काम मैं उनको करता हूँ प्रणाम । कुछ कुण्ठित औ' कुछ लक्ष्य-भ्रष्ट जिनके अभिमन्त्रित तीर हुए; रण की समाप्ति के पहले ही जो वीर रिक्त तूणीर हुए ! उनको प्रणाम ! जो छोटी-सी नै

किताब पढ़िए

लेख पढ़िए