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यादे

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वो भी बचपन के क्या दिन थेजब हम घूमते थे और खुस होते थेतब हम रोते थे फिर भी चुप होते थेना वादे होते थे ना शिकवे होते थेबस थोड़ा लड़ते थे फिर मिलते थेवो भी क्या बचपन के दिन थेतब सब कुछ अच्छा लगता थाचाहे जो हो सब सच्चा लगता थागांव की गालिया नानी के यहाँ अच्छा लगता थाना झूठ था ना फरेब था एक दूसरे की रोटिय

जमाने में रहे पर जमाने को खबर न थी ढिंढोरे की तुम्हारी आदत न थीअच्छे कामों का लेखा तुम्हारा व्यर्थ ही रह गयाहमसे साथ तुम्हारा अनकहा सा कह गयाजीतना ही सिखाया हारने की मन में न लाने दीतो क्यों एक पल भी जीने की मन में न आने दीहिम्मत बांधी सबको और खुद ही खो दीदूर कर ली खुदा ने हमसे माँ कि गोदीदिल था तुम

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