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विरह

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रात्रि का मध्यम चरण है, और दुनिया नींद में हैएक मैं सुधि में तुम्हारे  पागलों - सा जग रहा हूं।ग्रीष्म के आरंभ की यह पूर्ण विकसित पूर्णिमा हैधवल ज्यों मुखड़ा तुम्हारा, आज ऐसी चांदनी है ।शांत शीतल मंद म

उड़ियाना छंद "विरह"क्यों री तू थमत नहीं, विरह की मथनिया।मथत रही बार बार, हॄदय की मटकिया।।सपने में नैन मिला, हँसत है सजनिया।छलकावत जाय रही, नेह की गगरिया।।गरज गरज बरस रही, श्यामली बदरिया।झनकारै हृदय-तार, कड़क के बिजुरिया।।ऐसे में कुहुक सुना, वैरन कोयलिया।विकल करे कबहु मिले, सजनी दुलहनिया।।तेरे बिन शुष्

कविताजब भी मैंमैं चुप बैठकर जब भी खुद से बात करता हूँ,मैं हर उस पल उसके साथ टहलता और विचरता हूँ।साथ मेरे दूर तक जाती है वीरान तन्हाईयां,फिर भी मैं उसकी बाहों में गर्म राहत महसूस करता हूँ।होता है सफर मेरा अधूरा दूर छीतिज तक, मैं फिर भी हर सफर में उसके साथ रहता हूँ।होती नहीं वो पास मेरे किसी भी पड़ा

तेरी चाहत के तोहफे हैं,जो इन आँखों से बहते हैं,नहीं तू संग फ़क्त इनको तो मेरे पास रहने दे,महज़ आंसू बता इनको न तू अपमान कर इनका,मेरी उल्फत के मोती हैं, तू इनको ख़ास रहने दे,ज़माना, वक़्त और मजबूरियां मैं सब समझता हूँ,तू जा बेशक, तू मेरे संग तेरा एहसास रहने देन मुझसे छीन ये उम्मीद तू मेरा नहीं होगा,भले झू

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सखी री! विरह की इस पल का है कोई छोर नहीं....आया था जीवन में वो जुगनू सी मुस्कान लिए,निहारती थी मैं उनको, नैनों में श्रृंगार लिए,खोई हैं पलको से नींदें, अब असह्य सा इन्तजार लिए,कलाई की चूरी भी मेरी, अब

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