29 मई 2022
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14 मार्च 1981 को जिला- ग्वालियर (म.प्र.) में जन्म। शिक्षा : स्नातक प्रकाशित पुस्तकें : काव्य भारती, सतरंगी कहानियाँ, मन मंथन, नई भोर। D
वाह.... शतरंज के खेल को जीवन की सच्चाई में बेहतरीन तरीके से बयान किया हैं..
30 मई 2022
बहुत बहुत आभार आपका 🙏😊
उठो लाल, अब आँखें खोलो। मोबाइल लाई हूँ, पासवर्ड खोलो। बीती रात मैसेज बॉक्स फूले, उनके अंदर फॉलोअर्स झूले। नोटिफिकेशन चहक रहे व्हाट्सएप पर, बहने लगे स्टेटस अति सुंदर। ईन्स्टा पर न्यारी
देख कर पराई स्त्री को, आते बुरे विचार।इसे कहते हैं काम का विकार।छोटी-बड़ी बातों पर, आता गुस्सा अपार।इसे कहते हैं क्रोध का विकार।जरूरत पर भी नहीं खर्चते, चाहे वो बेशुमार।इसे कहते हैं लोभ का विकार।गलत क
कुछ रट लिए,कुछ याद किए,और कुछ घौंट कर पी लिए।हो गए कमर कस के,तैयार हम परीक्षा देने के लिए.....कुछ पेन रखे,कुछ पेंसिल रखे,और कुछ स्केल, रबड़ रखे।सजा के अपनी एग्जाम किट,तैयार हम परीक्षा देने के लिए.....
टीवी सीरियल की गृहणियाँ,इतनी सजी धजी कैसे रहतीं हैं। करतीं पूरा काम है घर का,फिर भी हमेशा फ्रैश दिखतीं है। सेट रहते उनके बाल और कपड़े,जब सुबह सबेरे जगतीं हैं।बड़े से बड़े टास्क वो,चुटकिय
हाय ! कोरोना, हाय ! कोरोना,फिर से अब ना आना तू।मुश्किल से जान छूटी तुझसे,अब ना और डराना तू ।खूब तबाही मचा दी तूने,फिर से ना उकसाना तू ।बदल बदल कर आया भेष,अब और रूप ना दिखाना तू। कितनों को निगल लि
सुबह की गुनगुनी धूप,दोपहर में तपिश बन जाती है।सर्दियों में लगती सुहानी,गर्मियों में चुभन बन जाती है।जिसकी जब हो जरूरत, तब मिले तो अनमोल है।और वक्त बेवक्त मिलने पर,नहीं उसका कोई मोल है।बारिश में ब
दहेज लेना और देना, दोनों ही पाप हैं।हमें कुछ नहीं चाहिए,क्योंकि हम दहेज के खिलाफ़ हैं। गर्मियों में आपकी बेटी, कैसे पिएगी गरम पानी।कूलर और पंखा के बिना,कैसे रहेगी बहु रानी।एक फ्रिज और एसी की,उसके लिए
स्कूल से आकर बिटिया,चहकती हुई मुझसे लिपट गई।मैंने हैरानी से पूछा,बता तो क्या बात हो गई।उसने इतराते हुए,मुझको बताया।अपनी यूनिफॉर्म पर,मॉनिटर के बैज को दिखाया।बोली फर्स्ट टर्म के टेस्ट में,मेरा प्रथम स्
सोचो अगर ऐसा हो जाए, आसमान रोटियाँ बरसाए। कैसा होगा वह नजारा, सोचो सोचो फिर दोबारा। भूखा कोई रहेगा नहीं, मारा मारा फिरेगा नहीं। मजदूर थककर घर जाएंगे, पेट भर कर खाना खाएंगे। महिलाओं को मिलेगी फुर्सत, र
ए जिंदगी तेरे खेल निराले लगते हैं।नाचते तेरे इशारों पर हम तो प्यादे लगते हैं।।कभी अपनों के बीच बैठे बेगाने लगते हैं।कभी अजनबियों की महफिल में पहचाने लगते हैं।।कभी कानाफूसी से भी सहम जाते हैं।कभी आँखों
कलयुग है भाई,घोर कलयुग आया है।लेकिन स्त्रियों के लिए तो,कलयुग हर युग में छाया है।त्रेता युग में रावण,सीता को उठाकर ले गया था।और फिर शुरू,राम और रावण का युद्ध हुआ था।लौट कर आईं सीता माता, तो श्रीर
छोटे छोटे शब्दों को जोड़ना जुनून बन गया। कविताओं को रचना दिल का सुकून बन गया।।लिखने की चाहत सोई थी बचपन से।बनकर सवेरा जीवन खिल गया।।जज्बातों को शब्दों में सजाने लगे।भावों को उकेरना हुनर बन गया।।अ
मन मनमौजी, कुछ भी सोचता है।बेगानौं की महफ़िल में, खुद को खोजता है।ढूंढता है शुकून, गमों के सागर में।झलकाता है आंसू, भरी हुई गागर में।सुनाता है दास्तां, नफ़रत से भरे लोगों को।अपनों का नह
एक कप चाय की प्याली,गरमा गरम अदरक वाली।सुबह सुबह नींद नहीं खुलती,जब तक चाय नहीं है मिलती। शाम को भी जब लगती तलब है,बिस्कुट का मेल गजब है। जब भी घर में मेहमान आते, सबसे पहले चाय हम पिलात
कभी मन उड़ ले चला मुझे, अतीत की गहराइयों में। कभी खुशियों की महफिल में, कभी गम की तन्हाइयों में। लगाकर पंख उड़ चली मैं, बचपन की गलियों में। कभी भाई बहनों की लड़ाई में, कभी बतियाती सखियों में। स्कूल की
सोचो एक दिन बरसने लगे, आसमान से मदिरा। भगदड़ मच जाएगी, कोई यहाँ गिरा कोई वहाँ गिरा। कोई छतों पर कोई रोड़ पर, कोई बालकनी में आएगा। कोई लाकर ड्रम और पीपे, भर भर कर ले जाएगा। अरे यहाँ तो भीड़ लगी कहकर,
वो सो रहा था पालने में,वो उस को निहार रही थी।देख देख कर अपने लाल को,सपने सजा रही थी।दिन बीतेंगे, महीने निकलेंगे,फिर निकलेंगे साल।छोटे से बड़ा होगा,जुग जुग जियो मेरे लाल।बैठेगा, घुटनों चलेगा,फिर चलना स
मोबाइल ने छीन लिया, सब का सुख चैन। रहता है मोबाइल हाथ में, दिन और रैन। दादाजी का रेडियो छीना, दादी का स्वेटर। पड़ोसियों को नहीं मिलता, गोसिप का मैटर।पापा के दोस्तों की महफिल छीनी, मम्
इस कदर तुमने मुझे दुखी कर दिया है,कि तुमसे दूर रहने का फैसला किया है। दूर रहकर तुम से सुकून ढूँढ़ रही हूँ, तुम्हारी खुशियों के लिए गम सहे जा रही हूँ। नहीं है कदर तुम्हें मेरे प्यार की,&
तुम मुझे मना लेते हो हर बार। इसलिए मैं रूठ जाती हूँ बार बार। रूठना तुमसे, यह मेरा हक है। मना लोगे तुम, नहीं कोई शक है। जब जब मैं रूठूंगी तब तब तुम मनाओगे।अपने हाथों से चाय बना कर म
यूँ हीं धीरे-धीरे उम्र ढलती गई,तन्हाइयां जिंदगी की बढ़ती गईं। कभी किया करते थे उनके दिल पर राज,आज हमारी खामोशियां भी उनको चुभने लगी।हमारी एक मुस्कुराहट पर हो जाते थे निहाल,आज सिसकियों की आवाज भी
कर्मों की मार से, बच नहीं सकता है। करके कर्म को कहीं, छुप नहीं सकता है।। करनी करने से पहले, एक बार भी नहीं सोचता है। और फिर पछता कर, भाग्य को कोसता है।। बड़ी-बड़ी बातें करक
बिखरते रिश्ते की बात पुरानी हो गई। अब तो यह घर घर की कहानी हो गई।। पहले एक कमाता था और दस खाते थे चैन से। अब दसों कमाए फिर भी दिखते हैं बेचैन से।। साथ बैठकर खाना खाते थे सभी। किसी को फुर्सत ही नहीं मि
बचपन में पापा के डर में रही। शादी के बाद पति की हद में रही। बुढ़ापे में बच्चों की लय में रही। सबके मन की रही, पर.... अपने लिए जीना भूल गई। मायके में अपने घर जाने की बातें सुनीं। ससुराल में अपने घर के
बढ़ती महंगाई को देख कर, दिया आदमी रोए। महंगाई की मार से, बच ना पाया कोए।। सुरसा के मुंह की तरह, बढ़ती जाए महंगाई। घंटों काम करके भी, छोटी लगे कमाई।। वेतन आवत देखकर, मन में गए हर्षाय। हिसाब लगाया
विज्ञापनों की चली है आंधी, उत्पादकों की चांदी ही चांदी। न्यूज़पेपर, टीवी, मोबाइल, खोलकर बैठे हैं हर जगह प्रोफाइल। उत्पादों को बढ़-चढ़कर दिखाते हैं, भर भरकर खूबियां गिनाते हैं। सुंदर-सुंदर मॉडल से एक्
हाँ थोड़ी सी बड़ी हो गई हूँ। उम्र के अर्धशतक पर खड़ी हूँ। फिर भी इस बात पर अड़ी हूँ। सोच समझ कर मुुँह खोलो। आंटी मत बोलो.... बालों में मेहंदी तो शौक से लगाई। जिम्मेदारियों के बोझ से पीठ है झुकाई। चश्म
यूँ ही नहीं डॉक्टर को, भगवान का रूप कहते हैं। मानव सेवा करने को, डॉक्टर तत्पर रहते हैं। कोई भी हो बीमारी, पुरजोर अपना लगाते हैं। मरीज को आखिरी सांस तक, हिम्मत वह बधांते हैं। इंजेक्शन, टेबलेट,
ऐसी करनी कीजिए, जासे ना कोई रोए। जीते जी सुख मिले, भव से पार होए।। पढ़त पढ़त किताबों को, रट्टा लियो लगाए। देख एग्जाम में पेपर को, सिर गया चकराए।। पाप कमाई करके, रटता नाम हरि का। गलत आचरण ना करो,
तेरी मेरी लड़ाई, अब पुरानी हो गई।यह तो अब रोज की, कहानी हो गई।। ना मुझको चुप रहना, ना तुझको कुछ सुनना।कहासुनी का सिलसिला, जगजाही हो गई।। करते थे बातें, पलकों पर बिठाऊँगा।अब नखरों के बोझ से ह
कभी-कभी थोड़ा, उलझ सी जाती हूँ।खुद में सिमटकर, बिखर सी जाती हूँ।।दिखता नहीं कोई, जिसे अपना कह सकूँ। अपनों की महफिल में तन्हा सी जाती हूँ।।एक आशियाना, बनाया सपनों का।उसकी दीवारों में, गिरफ्त सी जा
झिलमिलाता मीना बाजार, सुंदर लाइटों से सजा। चहक गए बच्चे खुशी से, आ गया उनको मजा।। रंग बिरंगी लाइटों से, सजी हुई थी दुकानें। व्यस्त थे दुकानदार, सामान लगे थे दिखाने।।लगी थी द
हर कोई अपने, गुरूर में खो गया है। मानव ही मानव का, दुश्मन हो गया है।। किसी की कामयाबी पर, बधाईयाँ देते हैं। लेकिन सहयोग के नाम पर, मुँह फेर लेते हैं।। मांगे मदद तो, हाथ खड़े करते ह
लो आ गया कलयुग का मेला।झुंड में है हर कोई अकेला।। रिश्ते बिकते कौड़ियों के दाम। मिलता नहीं है एक भी धेला।। सब दे रहे हैं एक दूसरे को धोखा। कोई गुरु है कोई चेला।। आगे निकलने की
इंसानियत अभी भी जिंदा है, शायद उसी पर धरती टिकी है। अभी भी कुछ लोगों में, मानवता की झलक दिखी है। रोड पर हो जाए एक्सीडेंट तो, हर कोई तमाशा नहीं देखता है।कुछ ऐसे भी होते हैं जो,आगे बढ़कर अस्पताल भेजता
पहला सुख निरोगी काया, इसको मानव ने विसराया।। दिन रात करके मेहनत, कोड़ी कोड़ी धन है कमाया। घंटों बैठकर करते काम, कंप्यूटर, मोबाइल ने जग भरमाया। टाइम नहीं है खुद के लिए, आर्डर देकर खाना मंगाया। शा
बदलते वक्त के साथ, लोगों की सोच बदल गई है। नई पीढ़ी के अनुसार, हमारी पीढ़ी ढल रही है।। हम नहीं ढाल पाते उन्हें, पर हम बदल रहे हैं। उनके फैसलों के आगे, हम ढल गए हैं।।
दुनिया है एक शतरंज, बिसात बिछी है। सह और मात देने की, होड़ मची है। अलग-अलग मोहरे यहाँ, अपना किरदार निभाते हैं। कोई पावरफुल वजीर है तो, कोई सैनिक जोर आजमाते हैं। वजीर अपनी ताकत का, पूरा लाभ उठाता
मैं तो सिर धुन के पछताई, मैंने कर ली पाप कमाई। बचपन खेल में गवाया, जवानी नींद ने भरमाया। बुढ़ापे में सुधि आई, मैंने कर ली पाप कमाई..... काम क्रोध का झूला झूली, अहंकार में फूली फूली। मोह माया ने
कचड़े की गाड़ी आई देखो। गाना गाती आई देखो।। गाड़ी आई द्वार द्वार पर।सब की बारी आई देखो।। रंग बिरंगी डस्टबिन लेकर। सब ने दौड़ लगाई देखो।। गीले और सूखे कचड़े की। अलग-अलग जग
जीने के लिए एक आश चाहिए।दिल के बहुत ही पास चाहिए। बिन कहे समझ जाए मन की बात।दोस्त एक ऐसा खास चाहिए।उलझन में कभी गर उलझ जाऊँ। कभी अकेले इस दुनिया में पड़ जाऊँ।आके थाम ले वह मेरा हाथ । उसका साथ पातें ही
चाह नहीं की सुंदर-सुंदर,गहनों से लद जाऊँ।चाह नहीं कि महंगे महंगे,कपड़े पहन के इतराऊँ। चाह नहीं के बाहर, घूमने मैं जाऊँ।चाह नहीं कि होटल में, खाना खाऊँ। चाह नहीं बार-बार, मैं म
आने वाला कल, क्या रंग दिखायेगा, ये तो वक्त ही बताएगा। जीवन के सागर में, कौनसा गीत गायेगा, ये तो वक्त ही बताएगा। कश्ती को हमारी, डुबोऐगा या पार लगाएगा, ये तो वक्त ही बताएगा। आने वाला कल, हँसाएगा या रुल
इससे पहले कि मैं, मेरी ही नजरों में गिर जाऊँ भूल सुधारना चाहती हूँ मैं देर से ही सही लेकिन अपने लिए जीना चाहती हूँ मैं जो कुछ खोया है मैंने वापस नहीं ला सकती हूँ लेकिन
बिना गलती के मांफी मंगवाकर, खुश हो जाते हैं लोग।पैरों में गिराकर,सिर पर बैठ जाते हैं लोग। झुका कर खुश हो गए,हँस दिए रुला कर।खुद की जीत समझ रहें हैं,हमें यूँ आजमाक
कभी ठहरी तो कभी,भागमभाग जिंदगी.... कभी कैद तो कभी, आजाद जिंदगी.... कभी पतझड़ तो कभी, बहार जिंदगी....कभी किनारे तो कभी, मझधार जिंदगी.... कभी अंधेरा तो कभी, रोशनी जिंद
मेरा गाँव कहीं खो गया है, अब शहर जैसा हो रहा है। कच्चे घरों की जगह अब, पक्के मकानों ने ले ली है। मिट्टी की सोंधी खुशबू अब, सीमेंट ने खाली है। कुएँ के पनघट की जगह, घर घर नल लग गए हैं। बुझ जाती है
क्यों चली? कब से चली? किसने लागू की? यह किसी को नहीं है पता। बस पीढी दर पीढ़ी, चली आ रही है यह प्रथा। क्यों है ये? क्या जरूरत है, क्यों छुपानी पड़ती सूरत है।&nb
चेहरे पर चेहरा लगाए हैं लोग। असली चेहरा छुपाए हैं लोग।। बोलते हैं मीठा रहते हैं कड़वे।शहद में मिश्री मिलाए हैं लोग।। दिखाते खुशी है मन में कुढ़ते। मन में छुरिया चलाए हैं लोग।।
माँ ये घर मेरा है, तो कहीं और क्यों जाना है। क्यों कहते हैं मुझसे सब, तुझे तो एक दिन उड़ जाना है। देखो यह दीवार पर, पेंटिंग मैंने बनाई है। यह फूलों की लड़ियाँ, मैंने ही लगाई है