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तो इंसान हूँ मैं!

29 जनवरी 2016

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watsapp और FB के बीच,

कोई दोस्त छत पे चिल्लाके बुलाता है,

तो लगता है इंसान हूँ मैं.

ऑनलाइन फ़ूडसे अलग जब,

खाऊ गली से गुज़रते ज़लेबी हलवाई महकाता है,

तो लगता है इंसान हूँ मैं.

डिस्काउंट कूपन और कार्ड की उहापोह में,

जब मां को मारवाड़ी से २ रुपये बचाता देखता हूँ,

तो लगता है इंसान हूँ मैं.

अगल बगल रह के भी फोन कर निपटा देता हूँ, से

जब केक काटने दोस्त घर आता,

तो लगता है कि इंसान हैं हम”.

क्यूंकि,

ऑनलाइन केक नहीं लगा करता,

कन्धा नहीं मिला करता,

रिश्ता नहीं बना करता,

सिर्फ कम्युनिकेशनहोता है,

और याद यादेंरहती हैं,

मेसेजतो डिलीट हो जाते हैं

आ जाओ बारिश में चाय बनाने कि होड़ में,

और कुछ आलस में,

ये याद करा दो कि,

अभी भी इंसान हूँ मैं

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तो इंसान हूँ मैं!

29 जनवरी 2016
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watsapp और FB के बीच,कोई दोस्त छत पे चिल्लाकेबुलाता है,तो लगता है इंसान हूँ मैं.“ऑनलाइन फ़ूड” से अलग जब,खाऊ गली से गुज़रते ज़लेबी हलवाईमहकाता है,तो लगता है इंसान हूँ मैं.डिस्काउंट कूपन और कार्डकी उहापोह में,जब मां को मारवाड़ी से २रुपये बचाता देखता हूँ,तो लगता है इंसान हूँ मैं.अगल बगल रह के भी फोन करनिपट

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और, लौट आई टीटू की दीदी | समाज का चलचित्र ६-वर्ष के बालक की आँखों से

29 जनवरी 2016
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टीटू अपनी दीदी को खोज रहा है, जो शायद किसी "सीक्रेटमिशन" पे गयी हैं. उसके बाल मन की कल्पनाशीलता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है इस कहानी में. हाँ, समाज का दर्पण और उसके बन्धनों का खाका खीचते हुए एक सन्देश देने की कोशिश की गयी है, पर रचनात्मक और गैर-टीचर अंदाज़ में. अगर आपको लगे की शायद ऐसा हमारे

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सांस बन कर रहो !

14 फरवरी 2016
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सफ़ेद के रंग हज़ार ! --- अजी हाँ! होली तो हर बार खेलते हैं, या न खेलने का नाटक करते हैं. हमने भी इस बार रंगों के साथ 'शब्दों' में भी होली खेल दी है.

23 मार्च 2016
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नहीं कोई “Open Letter”, है तो बस एक “बंद चिट्ठी”

29 मई 2016
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नहीं कोई “Open Letter”, है तो बस एक “बंद चिट्ठी”अरे पगली!जब बाप बेटे से, प्यार प्यार से, कुछ लोग और कुछ लोगों से आपस में कम और ‘सोसाइटी’ से ज्यादा जता रहे हैं,की वो कितना प्यार करते हैं,‘ईमेल’ से हो रहे इस मेल के बीच,मोबाइल में रखे हजारों ऑफर,और ‘शेयर’ हो रहे ‘सोशल पोस्ट’ के साथ, जज़्बात और उससे भरे

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