आज भगवान् श्री कृष्ण का
जन्म महोत्सव है | देश के सभी मन्दिर और भगवान् की मूर्तियों को सजाकर झूले लगाए
गए हैं | न जाने क्यों,
इस अवसर पर अपनी एक पुरानी रचना यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं, क्योंकि हमारे विचार से
मानव में ही समस्त चराचर का साथी बन जाने की अपार सम्भावनाएँ निहित हैं, और यही युग प्रवर्तक परम पुरुष भगवान श्री कृष्ण के महान चरित्र और
उपदेशों का सार भी है…
इस जीवन को मैं केवल सपना
क्यों समझूँ,
हर भोर उषा की किरण
जगाती है मुझको |
हर शाम निशा की
बाहों में मुस्काता है
चंदा, तब मादकता छा जाती है मुझको ||
हो समझ रहा कोई, जग मिथ्या छाया है
है सत्य एक बस
ब्रह्म, और सब माया है |
पर मैं इस जग को
केवल भ्रम कैसे समझूँ
क्षण क्षण कण कण है
आकर्षित करता मुझको ||
कल कल छल छल स्वर
में गाती है जब नदिया
प्राणों की पायल तब
करती ता ता थैया |
पर्वत की ऊँची छोटी
चढ़ थकती आँखें
तब मधुर कल्पना कर
जाती मोहित मुझको ||
जब कोई भूखा नंगा
मिल जाता पथ पर
लगता, खुद ब्रह्म खोजता है मरघट भू पर |
चंचल शिशु तुतलाए
नैनों मुझको पढ़ता
जग का नश्वर बन्धन
महान लगता मुझको ||
क्या ब्रह्म कभी
साथी बन पाया है नर का ?
क्या देख भूख का
ताण्डव मन रोया उसका ?
मैं इसी हेतु निज
शीश झुकाती मानव को
वह सकल चराचर का
साथी लगता मुझको ||