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इष्टनिष्ठा

24 अप्रैल 2022

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“इष्टनिष्ठा” नामक यह अध्याय स्वामी विवेकानंद की प्रसिद्ध पुस्तक भक्तियोग से लिया गया है। इसमें स्वामी जी इष्टनिष्ठा के सिद्धांत की चर्चा कर रहे हैं और इसके महत्व का वर्णन कर रहे हैं। वे बता रहे हैं कि इष्टनिष्ठा अर्थात अपने इष्ट के प्रति पूर्ण भक्तिभाव से साधना में लगे रहना ही आध्यात्मिक उन्नति का मूल है।

अब हम इष्टनिष्ठा के सम्बन्ध में विचार करेंगे। जो भक्त होना चाहता है, उसे यह जान लेना चाहिए कि ‘जितने मत हैं, उतने ही पथ।’ उसे यह अवश्य जान लेना चाहिए कि विभिन्न धर्मों के भिन्न भिन्न सम्प्रदाय उसी प्रभु की महिमा की अभिव्यक्तियाँ हैं। “लोग तुम्हें कितने नामों से पुकारते हैं। लोगों ने विभिन्न नामों से तुम्हें विभाजित-सा कर दिया है। परन्तु फिर भी प्रत्येक नाम में तुम्हारी पूर्ण शक्ति वर्तमान है। इन सभी नामों से तुम उपासक को प्राप्त हो जाते हो। यदि हृदय में तुम्हारे प्रति ऐकान्तिक अनुराग रहे, तो तुम्हें पुकारने का कोई निर्दिष्ट समय भी नहीं। तुम्हें पाना इतना सहज होते हुए भी मेरे प्रभु, यह मेरा दुर्भाग्य ही है, जो तुम्हारे प्रति मेरा अनुराग नहीं हुआ!”1 इतना ही नहीं, भक्त को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि अन्य धर्म सम्प्रदायों के तेजस्वी प्रवर्तकों के प्रति उसके मन में घृणा उत्पन्न न हो, वह उनकी निन्दा न करे और न कभी उनकी निन्दा सुने ही। ऐसे लोग वास्तव में बहुत थोड़े होते हैं, जो महान् उदार तथा दूसरों के गुण परखने में समर्थ हों और साथ ही प्रगाढ़ प्रेम सम्पन्न भी हों। बहुधा हम देखते हैं कि उदारभावापन्न सम्प्रदाय अपने धर्मादर्श के प्रति प्रेम की गम्भीरता खो बैठते हैं। उनके लिए धर्म एक प्रकार से सामाजिक और राजनीतिक भावों में रँगी एक समिति के रूप में ही रह जाता है। और दूसरी ओर बड़े ही संकीर्ण सम्प्रदाय के लोग हैं जो अपने अपने इष्ट के प्रति बड़ी भक्ति प्रदर्शित तो करते हैं, पर उन्हें इस भक्ति का प्रत्येक कण अपने से भिन्न मतवालों के प्रति केवल घृणा से प्राप्त हुआ है। कैसा अच्छा होता, यदि भगवान की दया से यह संसार ऐसे लोगों से भरा होता, जो परम उदार और साथ ही गम्भीर प्रेमसम्पन्न हों! पर खेद है, ऐसे लोग बहुत थोड़े होते हैं! फिर भी हम जानते हैं, कि बहुतसे लोगों को ऐसे आदर्श में शिक्षित करना सम्भव है, जिसमें प्रेम की गम्भीरता और उदारता का अपूर्व सामंजस्य हो। और ऐसा करने का उपाय है यह इष्टनिष्ठा। भिन्न भिन्न धर्मों के भिन्न भिन्न सम्प्रदाय मनुष्य जाति के सम्मुख केवल एक एक आदर्श रखते हैं, परन्तु सनातन वेदान्त धर्म ने तो भगवान के मन्दिर में प्रवेश करने के लिए अनेकानेक मार्ग खोल दिये हैं और मनुष्य जाति के सम्मुख असंख्य आदर्श उपस्थित कर दिये हैं। इन आदर्शों में से प्रत्येक उस अनन्तस्वरूप भगवान की एक एक अभिव्यक्ति है। परम करुणा के वश हो वेदान्त मुमुक्षु नर-नारियों को वे सब विभिन्न मार्ग दिखा देता है जो अतीत और वर्तमान में तेजस्वी ईश्वरतनयों या ईश्वरावतारों द्वारा मानव-जीवन की वास्तविकताओं की कठोर चट्टानों से काटे गये हैं; और वह हाथ बढ़ाकर सब का, यहाँ तक कि भविष्य में होनेवाले लोगों का भी, उस सत्य और आनन्द के धाम में स्वागत करता है जहाँ मनुष्य की आत्मा मायाजाल से मुक्त हो सम्पूर्ण स्वाधीनता और अनन्त आनन्द में विभोर होकर रहती है।

अतः भक्तियोग हमें इस बात का आदेश देता है कि हम भगवत्प्राप्ति के विभिन्न मार्गों में से किसी के भी प्रति घृणा न करें, किसी को भी अस्वीकार न करें। फिर भी, जब तक पौधा छोटा रहे, जब तक वह बढ़कर एक बड़ा पेड़ न हो जाय, तब तक उसे चारों ओर से रूँध रखना आवश्यक है। आध्यात्मिकता का यह छोटा पौधा यदि आरम्भिक, अपरिपक्व दशा में ही भावों और आदर्शों के सतत परिवर्तन के लिए खुला रहे, तो वह मर जायगा। बहुतसे लोग ‘धार्मिक उदारता’ के नाम पर अपने आदर्शों को अनवरत बदलते रहते हैं और इस प्रकार अपनी व्यर्थ की उत्सुकता तृप्त करते रहते हैं। सदा नयी बातें सुनने के लिए लालायित रहना उनके लिए एक बिमारी-सा, एक नशा-सा हो जाता है। क्षणिक स्नायविक उत्तेजना के लिए ही वे नयी नयी बातें सुनना चाहते हैं, और जब इस प्रकार की उत्तेजना देनेवाली एक बात का असर उनके मन पर से चला जाता है, तब वे दूसरी बात सुनने को तैयार हो जाते हैं। उनके लिए धर्म एक प्रकार से अफीम के नशे के समान है और बस उसका वहीं अन्त हो जाता है। भगवान श्रीरामकृष्ण कहते थे, “एक दूसरे भी प्रकार का मनुष्य है, जिसकी उपमा समुद्र की सीपी से दी जा सकती है। सीपी समुद्र की तह छोड़कर स्वाति नक्षत्र के पानी की एक बूँद लेने के लिए ऊपर उठ जाती है और मुँह खोले हुए सतह पर तैरती रहती है। ज्योंही उसमें उस नक्षत्र का एक बूँद पानी पड़ता है, त्यों ही वह मुँह बन्द करके एकदम समुद्र की तह में चली जाती है और फिर ऊपर नहीं आती। इसी तरह, यह दूसरे प्रकार का तत्त्वपिपासु, विश्वासी साधक गुरुमन्त्र-रूप जलबिन्दु पाकर साधना के अगाध समुद्र में डूब जाता है और तनिक भी इधर-उधर देखता तक नहीं।”

इष्टनिष्ठा का भाव प्रकट करने के लिए यह एक अत्यन्त हृदयस्पर्शी और आलंकारिक उदाहरण हैं, और इतनी सुन्दर उपमा शायद ही पहले कभी दी गयी हो। साधक के लिए आरम्भिक दशा में यह एकनिष्ठा नितान्त आवश्यक है। हनुमानजी के समान उसे भी यह भाव रखना चाहिए, “यद्यपि परमात्मदृष्टि से लक्ष्मी पति और सीता पति दोनों एक हैं, तथापि मेरे सर्वस्व तो वे ही कमललोचन श्रीराम हैं।”2 अथवा हिन्दी के एक सन्त कवि ने जैसा कहा है, “सब के साथ बैठो, सब के साथ मिष्ट भाषण करो, सब का नाम लो और सब से ‘हाँ हाँ’ कहते रहो, पर अपना स्थान मत छोड़ो- अर्थात् अपना भाव दृढ़ रखो,”3 उसे भी ऐसा ही करना चाहिए। तब यदि साधक सच्चे, निष्कपट भाव से साधना करे, तो गुरु के दिये हुए इस बीज-मन्त्र के प्रभाव से ही पराभक्ति और परम ज्ञानरूप विराट् वटवृक्ष उत्पन्न होकर, सब दिशाओं में अपनी शाखाएँ और जड़े फैलाता हुआ धर्म के सम्पूर्ण क्षेत्र को आच्छादित कर लेगा। तभी सच्चे भक्त को यह अनुभव होगा कि उसका अपना ही इष्टदेवता विभिन्न सम्प्रदायों में विभिन्न नामों और विभिन्न रूपों से पूजित हो रहा है।

1.  नाम्नाकारि बहुधा निजसर्वशक्तिस्तत्रार्पिता, नियमितः स्मरणे न कालः।  एतादृशी तव कृपा भगवन् ममापि,

दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः॥  श्रीकृष्णचैतन्य

2.  श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि।  तथापि मम सर्वस्वं रामः कमललोचनः॥

3.  सबसे बसिये सबसे रसिये, सबका लीजिये नाम।  हाँ जी हाँ जी करते रहिये, बैठिये अपने ठाम॥

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