महान चिंतक अरस्तू ने एक समय 6 प्रकार के राज्यों का वर्गीकरण किया था। उनका विश्वास था कि यह साइकिल;चक्करद्ध क्रम में परिक्रमी रहता है। यह साइकिल राजतंत्र से आरंभ होता है और जल्द ही पथभ्रष्ट होकर नादिरशाही में परिवर्तित हो जाता हैए चंद बुद्धिमान और प्रतिभा.संपन्न प्राणियों के रुप में जिसका स्थान अभिजात.तंत्र ले लेता है। जल्द ही गुटतंत्र में परिवर्तित होकर अमीरो का शासन बन जाता हैए जिसके स्थान पर प्रजा का शासन या बहुसंख्यक के शासन सरीखी राज्यव्यवस्था के रुप में भीड़ का शासन स्थापित हो जाता है। आखिरी चक्र में राजतंत्र का स्थान प्रजातंत्र ले लेता है और साइकिल फिर से चलना आरंभ हो जाता है। भारतीय उपमहाद्वीप ने भी अपने उदयकाल से विभिन्न प्रणालियां देखी हैं। राजतंत्र रहाए बुद्धिजीवियों का शासन रहाए विदेशी आक्रांताओंए आक्रमणकारिओं और शोषणकर्ताओं का शासन भी रहा। अंतिम विदेशी शासक अंग्रेज क्योंकि अपने देश में प्रजातंत्र और राजतंत्र की मिश्रित प्रणाली अपनाए हुए थे इसलिए 1947 में प्राप्त स्वतंत्रता के साथ ही भारतीयों को प्रजातंत्र विरासत में मिल गया जिसमें शासकवर्ग प्रजा की ओर से किए गए मतदान के माध्यम से चुना जाता है। कार्यपालिका के प्रमुख राष्ट्रपति हैं तथा राष्ट्रपति की ओर से किसी एक ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई जाती है जिसके बारे में वे आश्वस्त हों कि उसे संसद के निचले सदन लोकसभा के निर्वाचित सदस्यों का बहुमत प्राप्त है। अगर वह संसद के किसी भी सदन का सदस्य न हो तो पद पर बने रहने के लिए निर्धारित समय अवधि के भीतर उसे संसद का सदस्य निर्वाचित होना पड़ेगा। भारतीय प्रजातंत्र में किसी एक की जिम्मेदारी नहीं होती है। यह संयुक्त जिम्मेदारी से चलता है और सभी निर्णय भारतीय राष्ट्रपति युक्त संसद द्वारा पूर्ण की गई प्रक्रिया के उपरांत ही लागू हो पाते हैं। अगर नियमों की अनुपालना सही तरीके से न हो रही हो तो न्यायपालिका है। फिर भी कहीं कोई कमी रह जाए तो प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ गणमाध्यम तो है ही। 1950 से लागू भारतीय संविधान के अनुसार चाहे देश में प्रजातंत्र को अपनाया जा चुका है परंतु किसी न किसी रुप में राजतंत्र का मुद्दा छाया ही रहता है। क्योंकि कांग्रेस ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए आजादी की लड़ाई लड़ी थी इसलिए तोहफे के तौर पर भारत पर शासन करने का अवसर भी कांग्रेसियों को ही मिला। सत्ता चाहे कांग्रेस के हाथ में आ गई थी मगर ऐसे अनेक वर्ग उस समय देश में विद्यमान थे जिन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन को प्रभावित किया था। कुछ तो ऐसे थे जो परतंत्र काल में अंग्रेजी का साथ दे रहे थेए कुछ धर्मावलंबी थे जो भारत को केवल हिंदु या मुस्लिम देश के रुप में ही देखना चाहते थेए बहुतों ने अपने हौसले की ताकत से अंग्रेजी शासन की चूलें हिला दी थीं और सुभाषचंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता सेनानिओं की आजाद हिंद फौज के असंख्य सदस्य थे जिन्होंने आजाद हिंद फौज के बैनर तले अंग्रेजो के विरुद्ध द्वीतीय विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था। अंग्रेजों ने स्वतंत्रता खंड.खंड भारत को दी थी। इसलिए जिन जिन के हित आपस में टकराए उन्होंने अपना.अपना अलग झंडा बुलंद कर लिया। हिंदुवादी एक ओरए दूसरी तरफ इस्लाम के समर्थकए रजवाड़े एक तरफए बंदर की तर्ज पर झगड़ा बढ़ाने में माहिर अंग्रेज अलग। जलते भारत को संभालने की जिम्मेदारी थी कांग्रेस के कंधों पर। पंडित जवाहर लाल नेहरु सरकार के मुखिया थे तो खट्टे.मीठे स्वादों के बावजूद उनका सत्ता के केंद्रबिंदु में रहना स्वाभाविक ही था। जो जिम्मेदारी संभालेगा सही गलत निर्णयों के लिए भी उत्तरदायी होगा। आज के नेता चाहे पक्ष हों या विपक्षए इससे इंकार नहीं कर सकते कि उस समय जो देश और विश्व के हालात थे उनसे पार पाना किसी सामान्य शासक के बूते की बात नहीं थी। शीतयुद्ध का दौर था। चीन एक महाशक्ति के रुप में उभर रहा था। एक ओर दायां पक्ष तो दूसरी ओर बायां पक्ष। भारत का समर्थक न दायां और न ही बायां । दोनो ही पाकिस्तान का समर्थन करके भारत की कठिनाइयां बढ़ा रहे थे। तीसरे पक्ष चीन के हित भी पाकिस्तान का समर्थन करने को मजबूर थे। इसलिए पंडित नेहरु ने विश्व की अनेक हस्तियों को अपने साथ जोड़कर एक बहुत बढ़ा और प्रभावी गुटनिर्पेक्ष वर्ग खड़ा कर लिया जो कोई सामान्य बात नहीं थी। उन्होने तथा उनके साथी भारतीयों नेताओं ने सबसे ज्वलंत विषय कश्मीर पर पाकिस्तान को विश्व की पांचों महाशक्तियों यूकेए यूएसएए यूएसएसआर;आज का रुसद्धए चीन और फ्रांस का समर्थन होने के बावजूद पाकिस्तान के पैर नहीं लगने दिए तथा अपनी नीतियों से पूरे के पूरे विश्व को उलझाए रखा। अन्य विषयों के मामले में भी भारत का हित उन्होंने कभी नहीं छोड़ा। उस समय व्यक्तिवाद स्वरुप यह धारणा आम थी कि नेहरु के बाद देश को संभालेगा कौन। नेहरु गएए शास्त्री गएए इंदिरा जी सहित अनेक शासक चले गए मगर देश अपनी गति से चल रहा है। वर्तमान में शासन की बागडोर मोदी जी के हाथ में है। जैसे मैं पूर्व में संदर्भ दे चुका हुँ कि भारत में दायांए बायां और मध्यमार्ग के समर्थक राजनैतिक दल कार्यरत हैं। दायीं ओर भाजपा जैसे हिंदुवादी दल हैं जिनका आकर्षण पश्चिम जगत की ओर भी है और वे भारत को हिंदु राष्ट्र के रुप में देखने की चाहत रखते हैंए बाईं ओर साम्यवादी दल हैं जो भारत को गरीब.मजदूर हितैशी देखना चाहते हैं और मध्यमार्गिओं की तो वर्तमान में भीड़ इकट्ठा हो चुकी है। स्वतंत्रता प्राप्ति के अवसर पर केवल कांग्रेस ही मध्यमार्ग का समर्थन करती थी मगर समय बीतने के साथ एक के बाद एक अनेक बुद्धिजीविओं ने कोई न कोई आधार बनाकर दूसरी विचारधाराओं से जुड़ना आरंभ कर दिया किंतु रास्ता मध्यमार्ग का ही अपनाए रखा। नतीजतन अनेक क्षेत्रीय दल भारतीय तंत्र में कार्यरत हैं जिनमें से अधिकतर भारतीय प्रजातंत्र की सेहत के लिए हानिकारक हैं। अनेक राज्यों में क्षेत्रीय क्षत्रपों के रुप में अनेक क्षेत्रीय दल कार्यरत हैं जो सत्ता तो स्थानीय हितों को बढ़ावा देने के नाम पर हथियाते हैं मगर जब स्थानीय जनता उन्हें पूजना आरंभ कर देती है तो छोटी.छोटी सुविधाओं की एवज में प्रजा के सामने अपने आपको भगवान के रुप में प्रस्तुत करते हैं। उदाहरणार्थ तमिलनाडू में डीएमकेध्एआईडीएमके हिंदी के विरोध और तमिल के समर्थन के बल पर सत्ता पर काबिज हुई थी। किंतु वर्तमान में हिंदी का विरोध केवल सांकेतिक है और व्यक्ति पूजाध्व्यक्तिगत हित सबसे ऊपर हैं। जयाललिता की बीमारी और उसके देहांत के बाद सैंकड़ों लोगो ने आत्मदाह कर लिया। हिंदी.तमिल से किसी का कुछ लेना.देना नहीं रहा। अवयवस्था का लाभ उठाकर देश की सेहत के लिए हानिकारक बापू सत्ता पर काबिज हो जाते हैं। कोई घोषित आपातकाल लगवाता है व प्रजा की नसबंदी करवाकर अमानवीय व्यवहार करता है। कोई अघोषित आपातकाल लगवाता है व नोटबंदी लागू करके जनता को मरने को मजबूर करता है। देश को अपने नादिरशाही फरमानो से मुसीबत में डालता है। इसलिए प्रजातंत्र की सेहत के लिए यह बहुत ही आवश्यक है कि इसका राजनैतिक साइकिल निरंतर परिक्रमा करता रहे। इसका रुकना मतलब मुसीबत को आमंत्रण। विश्व फ्रांस में बहुदलीय प्रणाली से होने वाले नुकसानो का अनुभव कर चुका है। इसलिए वहां बहुदलीय प्रणाली से होने